अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -32
अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -32 - पंकज अवधिया
अन्ध-विश्वास ने जिन पक्षियो का जीना मुहाल कर दिया है उनमे उल्लू का नाम सबसे ऊपर है। इसे रहस्यमय शक्तियो के स्त्रोत के रुप मे प्रचारित किया गया है। बेचारे के लिये अजीब सी दिखने वाली शक्ल और निशाचर होना अभिशाप बन गया है। पिछले दिनो हमारे एक वैज्ञानिक मित्र का सन्देश आया। वे उल्लूओ की तेजी से घटती संख्या पर शोध कर रहे थे। उन्होने अपने अध्ययन मे पाया है कि देश भर मे पिछले एक दशक मे उल्लूओ की संख्या मे तेजी से कमी आयी है। शहरी इलाको मे तो वैसे ही उल्लू कम दिखते है पर अब गाँवो मे भी ये कम दिखने लगे है। पिछले दिनो देश के मध्य भाग से समाचार आया कि एक विचित्र-सा पक्षी मिला है। लोग उसे गरुड मानकर पूजा कर रहे है। पैसे चढा रहे है। यह खबर सतना से प्रसारित हुयी। उसके बाद छत्तीसगढ के जाँजगीर से भी यह खबर आयी। अखबारो ने प्रथम पृष्ठ पर इसकी तस्वीर छापी। खबर मे बताया गया था कि इस विचित्र पक्षी के पास जाने से फुफकारने की आवाज आ रही है। चित्र देखते ही इसके बार्न आउल होने का अन्दाज विशेषज्ञो को हो गया। फुफकारने के कारण इसे हिसिंग आउल भी कहते है। बार्न आउल पीढीयो से खलिहानो मे रहता आया है। यह किसानो का मित्र रहा है। हानिकारक कीटो और परमप्रिय चूहो को खाकर उनकी आबादी पर प्राकृतिक नियंत्रण करता रहा। अचानक ही इसकी संख्या मे कमी हो गयी। लोग इसे भूल गये। यही कारण है कि जब ये दिखे तो उन्हे गरुड मान लिया गया। इस खबर से यह भी स्पष्ट होता है कि ग्रामीण अंचलो मे अब गरुड को भी लोग भूल चुके है। यह बडा दुखद है। बार्न आउल की संख्या मे दुनिया के कई देशो मे कमी आयी है। पर सब जगह अलग-अलग कारण है। मसलन ब्रिटेन मे ग्रामीण क्षेत्रो मे बढते यातायात को इसके लिये उत्तरदायी माना गया है। दुनिया के उन देशो मे जहाँ कृषि रसायनो का अन्धाधुन्ध प्रयोग होता है जिनमे भारत भी शामिल है, ये लुप्तप्राय होते जा रहे है। वे किसानो के बदले हुये रुप को देखकर अब खलिहान छोडकर जा रहे है। किसान जाने-अंजाने अपना एक परम मित्र खो रहे है।
इन सब कारणो के अलावा जो सबसे महत्वपूर्ण कारण है वह है उल्लू से जुडा अन्ध-विश्वास और तांत्रिक क्रियाओ मे इसके सभी भागो का प्रयोग। मैने अपने वैज्ञानिक मित्र से इस कारण को भारत के सन्दर्भ मे सबसे ऊपर रखने का अनुरोध किया। उन्हे मेरे अनुरोध से कुछ अचरज हुआ। आमतौर पर वैज्ञानिक पूर्व मे प्रकाशित रपटो के आधार पर ही आगे बढते है। यदि उन्हे कुछ नया मिलता है जो कि सन्दर्भ साहित्यो मे नही मिलता है तो उसे लिखने से हिचकिचाते है। यह मेरा निजी अनुभव है। भारतीय वैज्ञानिको मे यह हिचकिचाहट कुछ ज्यादा ही है। यदि उन्हे कोई विदेशी रपट मिल गयी तो फिर तो वे इस आधार पर आगे बढने से जरा भी नही हिचकिचाते है। बहरहाल, वैज्ञानिक मित्र ने इच्छा जतायी कि वे उल्लू के अंगो से जुडे व्यापार को देखना चाहते है। मैने उनसे कहा कि यह व्यापार अस्तित्व मे तो है पर इतना भी खुला नही है कि आप किसी बाजार मे जाये और आपको खुलेआम यह बिकते हुये नजर आ जाये। मैने उन्हे अपने पास बुला लिया और फिर हम एक तांत्रिक से मिलने चल पडे। शहर से बहुत दूर इस तांत्रिक का गाँव था। हम व्यापारी बन कर गये। ऐसे व्यापारी जिन्हे व्यापार मे घाटा ही घाटा हो रहा था। लाखो खर्च कर चुके थे पर कोई मंत्र असर नही कर रहा था। हमारा यह छदम रुप तांत्रिक को खूब भाया। हमने ऊपर वाली जेबो मे हजार के नोट कुछ इस तरह रखे थे कि वे पहली नजर मे ही उसे दिख जाये। तांत्रिक ने बहुत से उपाय बताये पर उल्लू की बात नही की। आखिर मे हमने ही उल्लू पर चर्चा आरम्भ की। तांत्रिक का कहना था कि उल्लू का प्रयोग बहुत ही कारगर है पर इसमे बहुत खर्च है। खर्च की चिंता बिल्कुल न करे-हमने उसे आश्वस्त करना चाहा। तांत्रिक ने हमे उल्लू का ताजा खून और पंख लाने को कहा। हम कहाँ से लायेंगे, हमसे पैसे ले लीजिये और आप ही ले आये? हमने मजबूरी दिखायी। अरे, यह सब तो आपके शहर मे ही मिलता है? चलिये मै आपके साथ चलता हूँ ताकि आपको नकली सामान न दे दे। उसने कहा। हम भौचक्क थे। शहर गये तो भरे बाजार मे एक दुकान मे सब कुछ मिल गया। दुकान वाले को किसी बात का डर नही था। उसके पास उल्लू का कपाल भी था और जीभ तो उसने दुकान के सामने सजा रखी थी। हद हो गयी। यह खुल्लमखुल्ला बाजार था। मैने दुकान वाले से पूछा कि डर नही लगता छापा पडने का तो वह बोला छापा कैसा छापा? यह तो पूजा सामग्री है। इसे बेचने मे कोई मनाही नही है। उसने आगे बताया कि नेपाल और बंगाल के उल्लू की कीमत ज्यादा मिलती है। जाहिर है इन पर तांत्रिको का कमीशन भी ज्यादा रहता है। न केवल दूसरे राज्यो बल्कि पडोसी देशो से भी उल्लूओ की तस्करी होती है। दुकान वाले का कहना था कि आप दिल्ली जाइये। दीपावली के समय। वहाँ उल्लूओ की बोली लगती है लाखो मे। अरबो का बाजार है इसका और यह बढता ही जा रहा है।
उल्लू के ताजे खून से हमे पूजा के बाद तिलक लगाया जाना था। फिर हमे अपने प्रतिद्वन्दी के सामने जाने था। यह तिलक इतना करामाती बताया गया था कि प्रतिद्वन्दी कदमो मे गिर पडेगा और रहम की भीख माँगने लगेगा। यह सब पाँच हजार एक मे होने वाला था। वैज्ञानिक मित्र ने पूछा कि यदि प्रतिद्वन्दी पैरो मे नही गिरा और हमारी पिटायी हो गयी तो। तांत्रिक ने कहा, ऐसा हो सकता है, बिल्कुल हो सकता है यदि उसने भी ऐसा ही तिलक लगाया हो। पर इसकी सम्भावना कम है। हमे खूब हँसी आयी। इस बचकाने तर्क पर। हमारे बाद आये एक अन्य व्यक्ति को उल्लू की जीभ देकर उसने इसे धतूरे के रस के साथ मिलाकर धोखे से अपने शत्रु को पिलाने की सलाह दी। इससे शत्रु का दिमाग घूम जायेगा और वह कही का नही रहेगा। यह तो सरासर गलत बात थी। केवल धतूरे का रस यह काम कर सकता है। फिर उल्लू की जीभ डालने के क्या मायने? जीभ के लिये एक हँसते खेलते प्राणी की हत्या?? फिर धतूरे की जो मात्रा वह बता रहा था वह तो जान भी ले सकती थी। क्या शत्रु की हत्या करने की सलाह दी जा रही थी?
किसी जरुरी काम का बहाना बनाकर हमने तांत्रिक से पिंड छुडाया। दक्षिणा तो दी ही जा चुकी थी इसलिये तांत्रिक ने भी हमे छोड दिया। बाद मे हमने तंत्र-मंत्र की पुस्तको को खंगाला तो ऐसे बेसिर-पैर के कई प्रयोग पढने को मिले। ये सभी प्रयोग सत्य से कोसो दूर थे। जिस तरह उल्लू के अंग खुलेआम बिक रहे है उसी तरह इनके चमत्कारिक प्रयोगो से भरी पुस्तके भी आसानी से उपलब्ध है। इन पर किसी का अंकुश नही है। आप किसी सामाजिक मंच पर इस विषय मे चर्चा छेडना चाहे तो लोग तैयार नही होते है। उनकी अपनी ढेरो समस्याए है। राजनीति इस देश मे चर्चा का सर्वाधिक पसन्दीदा विषय है। उसके बाद फिल्मे और क्रिकेट है। पर्यावरण और प्रकृति से जुडी खबरो पर लोगो मे अफसोस जाहिर कर उन्हे भूल जाने की आदत है। ऐसे मे उल्लू जैसे जीवो पर संकट आने वाले दिनो मे गहराता ही जायेगा। उल्लूओ को कही का नही छोडने वाला इंसान यह क्यो भूल जाता है कि इस तरह के खिलवाड से वह भी जल्द ही कही का नही रहेगा। (क्रमश:)
(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)
© सर्वाधिकार सुरक्षित
अन्ध-विश्वास ने जिन पक्षियो का जीना मुहाल कर दिया है उनमे उल्लू का नाम सबसे ऊपर है। इसे रहस्यमय शक्तियो के स्त्रोत के रुप मे प्रचारित किया गया है। बेचारे के लिये अजीब सी दिखने वाली शक्ल और निशाचर होना अभिशाप बन गया है। पिछले दिनो हमारे एक वैज्ञानिक मित्र का सन्देश आया। वे उल्लूओ की तेजी से घटती संख्या पर शोध कर रहे थे। उन्होने अपने अध्ययन मे पाया है कि देश भर मे पिछले एक दशक मे उल्लूओ की संख्या मे तेजी से कमी आयी है। शहरी इलाको मे तो वैसे ही उल्लू कम दिखते है पर अब गाँवो मे भी ये कम दिखने लगे है। पिछले दिनो देश के मध्य भाग से समाचार आया कि एक विचित्र-सा पक्षी मिला है। लोग उसे गरुड मानकर पूजा कर रहे है। पैसे चढा रहे है। यह खबर सतना से प्रसारित हुयी। उसके बाद छत्तीसगढ के जाँजगीर से भी यह खबर आयी। अखबारो ने प्रथम पृष्ठ पर इसकी तस्वीर छापी। खबर मे बताया गया था कि इस विचित्र पक्षी के पास जाने से फुफकारने की आवाज आ रही है। चित्र देखते ही इसके बार्न आउल होने का अन्दाज विशेषज्ञो को हो गया। फुफकारने के कारण इसे हिसिंग आउल भी कहते है। बार्न आउल पीढीयो से खलिहानो मे रहता आया है। यह किसानो का मित्र रहा है। हानिकारक कीटो और परमप्रिय चूहो को खाकर उनकी आबादी पर प्राकृतिक नियंत्रण करता रहा। अचानक ही इसकी संख्या मे कमी हो गयी। लोग इसे भूल गये। यही कारण है कि जब ये दिखे तो उन्हे गरुड मान लिया गया। इस खबर से यह भी स्पष्ट होता है कि ग्रामीण अंचलो मे अब गरुड को भी लोग भूल चुके है। यह बडा दुखद है। बार्न आउल की संख्या मे दुनिया के कई देशो मे कमी आयी है। पर सब जगह अलग-अलग कारण है। मसलन ब्रिटेन मे ग्रामीण क्षेत्रो मे बढते यातायात को इसके लिये उत्तरदायी माना गया है। दुनिया के उन देशो मे जहाँ कृषि रसायनो का अन्धाधुन्ध प्रयोग होता है जिनमे भारत भी शामिल है, ये लुप्तप्राय होते जा रहे है। वे किसानो के बदले हुये रुप को देखकर अब खलिहान छोडकर जा रहे है। किसान जाने-अंजाने अपना एक परम मित्र खो रहे है।
इन सब कारणो के अलावा जो सबसे महत्वपूर्ण कारण है वह है उल्लू से जुडा अन्ध-विश्वास और तांत्रिक क्रियाओ मे इसके सभी भागो का प्रयोग। मैने अपने वैज्ञानिक मित्र से इस कारण को भारत के सन्दर्भ मे सबसे ऊपर रखने का अनुरोध किया। उन्हे मेरे अनुरोध से कुछ अचरज हुआ। आमतौर पर वैज्ञानिक पूर्व मे प्रकाशित रपटो के आधार पर ही आगे बढते है। यदि उन्हे कुछ नया मिलता है जो कि सन्दर्भ साहित्यो मे नही मिलता है तो उसे लिखने से हिचकिचाते है। यह मेरा निजी अनुभव है। भारतीय वैज्ञानिको मे यह हिचकिचाहट कुछ ज्यादा ही है। यदि उन्हे कोई विदेशी रपट मिल गयी तो फिर तो वे इस आधार पर आगे बढने से जरा भी नही हिचकिचाते है। बहरहाल, वैज्ञानिक मित्र ने इच्छा जतायी कि वे उल्लू के अंगो से जुडे व्यापार को देखना चाहते है। मैने उनसे कहा कि यह व्यापार अस्तित्व मे तो है पर इतना भी खुला नही है कि आप किसी बाजार मे जाये और आपको खुलेआम यह बिकते हुये नजर आ जाये। मैने उन्हे अपने पास बुला लिया और फिर हम एक तांत्रिक से मिलने चल पडे। शहर से बहुत दूर इस तांत्रिक का गाँव था। हम व्यापारी बन कर गये। ऐसे व्यापारी जिन्हे व्यापार मे घाटा ही घाटा हो रहा था। लाखो खर्च कर चुके थे पर कोई मंत्र असर नही कर रहा था। हमारा यह छदम रुप तांत्रिक को खूब भाया। हमने ऊपर वाली जेबो मे हजार के नोट कुछ इस तरह रखे थे कि वे पहली नजर मे ही उसे दिख जाये। तांत्रिक ने बहुत से उपाय बताये पर उल्लू की बात नही की। आखिर मे हमने ही उल्लू पर चर्चा आरम्भ की। तांत्रिक का कहना था कि उल्लू का प्रयोग बहुत ही कारगर है पर इसमे बहुत खर्च है। खर्च की चिंता बिल्कुल न करे-हमने उसे आश्वस्त करना चाहा। तांत्रिक ने हमे उल्लू का ताजा खून और पंख लाने को कहा। हम कहाँ से लायेंगे, हमसे पैसे ले लीजिये और आप ही ले आये? हमने मजबूरी दिखायी। अरे, यह सब तो आपके शहर मे ही मिलता है? चलिये मै आपके साथ चलता हूँ ताकि आपको नकली सामान न दे दे। उसने कहा। हम भौचक्क थे। शहर गये तो भरे बाजार मे एक दुकान मे सब कुछ मिल गया। दुकान वाले को किसी बात का डर नही था। उसके पास उल्लू का कपाल भी था और जीभ तो उसने दुकान के सामने सजा रखी थी। हद हो गयी। यह खुल्लमखुल्ला बाजार था। मैने दुकान वाले से पूछा कि डर नही लगता छापा पडने का तो वह बोला छापा कैसा छापा? यह तो पूजा सामग्री है। इसे बेचने मे कोई मनाही नही है। उसने आगे बताया कि नेपाल और बंगाल के उल्लू की कीमत ज्यादा मिलती है। जाहिर है इन पर तांत्रिको का कमीशन भी ज्यादा रहता है। न केवल दूसरे राज्यो बल्कि पडोसी देशो से भी उल्लूओ की तस्करी होती है। दुकान वाले का कहना था कि आप दिल्ली जाइये। दीपावली के समय। वहाँ उल्लूओ की बोली लगती है लाखो मे। अरबो का बाजार है इसका और यह बढता ही जा रहा है।
उल्लू के ताजे खून से हमे पूजा के बाद तिलक लगाया जाना था। फिर हमे अपने प्रतिद्वन्दी के सामने जाने था। यह तिलक इतना करामाती बताया गया था कि प्रतिद्वन्दी कदमो मे गिर पडेगा और रहम की भीख माँगने लगेगा। यह सब पाँच हजार एक मे होने वाला था। वैज्ञानिक मित्र ने पूछा कि यदि प्रतिद्वन्दी पैरो मे नही गिरा और हमारी पिटायी हो गयी तो। तांत्रिक ने कहा, ऐसा हो सकता है, बिल्कुल हो सकता है यदि उसने भी ऐसा ही तिलक लगाया हो। पर इसकी सम्भावना कम है। हमे खूब हँसी आयी। इस बचकाने तर्क पर। हमारे बाद आये एक अन्य व्यक्ति को उल्लू की जीभ देकर उसने इसे धतूरे के रस के साथ मिलाकर धोखे से अपने शत्रु को पिलाने की सलाह दी। इससे शत्रु का दिमाग घूम जायेगा और वह कही का नही रहेगा। यह तो सरासर गलत बात थी। केवल धतूरे का रस यह काम कर सकता है। फिर उल्लू की जीभ डालने के क्या मायने? जीभ के लिये एक हँसते खेलते प्राणी की हत्या?? फिर धतूरे की जो मात्रा वह बता रहा था वह तो जान भी ले सकती थी। क्या शत्रु की हत्या करने की सलाह दी जा रही थी?
किसी जरुरी काम का बहाना बनाकर हमने तांत्रिक से पिंड छुडाया। दक्षिणा तो दी ही जा चुकी थी इसलिये तांत्रिक ने भी हमे छोड दिया। बाद मे हमने तंत्र-मंत्र की पुस्तको को खंगाला तो ऐसे बेसिर-पैर के कई प्रयोग पढने को मिले। ये सभी प्रयोग सत्य से कोसो दूर थे। जिस तरह उल्लू के अंग खुलेआम बिक रहे है उसी तरह इनके चमत्कारिक प्रयोगो से भरी पुस्तके भी आसानी से उपलब्ध है। इन पर किसी का अंकुश नही है। आप किसी सामाजिक मंच पर इस विषय मे चर्चा छेडना चाहे तो लोग तैयार नही होते है। उनकी अपनी ढेरो समस्याए है। राजनीति इस देश मे चर्चा का सर्वाधिक पसन्दीदा विषय है। उसके बाद फिल्मे और क्रिकेट है। पर्यावरण और प्रकृति से जुडी खबरो पर लोगो मे अफसोस जाहिर कर उन्हे भूल जाने की आदत है। ऐसे मे उल्लू जैसे जीवो पर संकट आने वाले दिनो मे गहराता ही जायेगा। उल्लूओ को कही का नही छोडने वाला इंसान यह क्यो भूल जाता है कि इस तरह के खिलवाड से वह भी जल्द ही कही का नही रहेगा। (क्रमश:)
(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)
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