अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -57

अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -57 - पंकज अवधिया


कैसर की चिकित्सा मे माहिर एक पारम्परिक चिकित्सक के साथ पास की एक पहाडी मे जाने की योजना थी। मैने कुछ बूटियाँ उन्हे भेंट स्वरुप दी थी। इसके बदले वे एक विशेष बूटी मुझे भेट स्वरुप देना चाहते थे। बूटी डोंगर (छोटा पहाड) पर थी। सुबह-सुबह हमे चढाई शुरु करनी थी और फिर दोपहर तक नीचे आ जाना था। रायपुर से कुछ घंटो का सफर तय करके अल सुबह ही पारम्परिक चिकित्सक के पास पहुँचने की योजना थी पर उस दिन सुबह-सुबह एक प्रशासनिक अधिकारी का फोन आ गया। उन्होने कहा कि उनकी माता को हिपेटाइटिस सी है और वे दिल्ली मे है। आपको सुबह वाली फ्लाइट से दिल्ली जाना है। टिकट हो जायेगी। मैने उनसे कहा कि मै चिकित्सक नही हूँ। मै केवल पारम्परिक चिकित्सकीय ज्ञान का दस्तावेजीकरण कर रहा हूँ। इस पर वे बिफर पडे और पैसो की बात करने लगे। फिर उन्होने और भी कई तरीको से धौंस जमायी। वे मुझे दिल्ली भेज कर एक बडे चिकित्सा संस्थान के चिकित्सको से मेरी चर्चा करवाना चाहते थे। मुझे मालूम है कि मेरी बात वहाँ के चिकित्सक मानने से रहे। मान भी गये तो मेरे रिस्क पर दवा देने की बात करेंगे। अच्छा हुआ तो शायद धन्यवाद कहे पर केस बिगड गया तो मुझ पर जिम्मेदारी डाली जायेगी। अपने पहले के कडवे अनुभव से मै पहले ही मना कर देता हूँ पर जिस तरह से ऐसे फोन कालो की संख्या बढ रही है उससे तो लगता है कि मै चार साल की पढाई ही कर लूँ ताकि दवा देने का अधिकार मुझे मिल सके।

इस फोन से देर हो गयी गाँव के लिये निकलने मे। गाँव पहुँचते तक ग्यारह बज गये। एक छोटे दल के रुप मे जब हमने चढाई शुरु की तो बारह बज रहे थे। मन अच्छा नही थी क्योकि मुझे पता था कि नीचे आते तक रात हो सकती है। हमारे पास सुरक्षा उपकरण नही थे। डोंगर मे घना जंगल था। ऊपर सपाट भाग था। थोडी ही ऊँचाई पर बूटी मिलने की बात बतायी गयी थी। हम बतियाते हुये चढने लगे। हमारे साथ चल रहे स्थानीय लोग बार-बार रुककर कुछ बाते करते थे। उनकी बातो पर ध्यान दिया तो पता चला कि उन्होने अभी-अभी भालू देखा था। अब जंगल मे तो यह बात सभी जानते है कि आप किसी को नही देखते पर हजारो आँखे आपको देखती रहती है। पर कुछ दूर चलने पर हमारी आँखो मे जानवरो की झलक दिखने लगी। पहले तेन्दुए के पैरो के निशान दिखे फिर सामने से एक सोन कुत्ता निकला। सोन कुत्ता माने साक्षात मौत। इनके बारे मे सुना गया है कि बाघ भी इनसे भय खाते है। यदि आपने जंगल मे इसे देख लिया तो उल्टे पैर लौटने मे ही समझदारी है। हमारे साथ चल रहे पारम्परिक चिकित्सक ने आधे घंटे तक उसी स्थान मे रुककर जोर-जोर से बाते करने को कहा। सोन कुत्ते तो नही आये पर दूसरे जीव दिखायी दिये। दिन मे इतने सारे जीव देखना किसी आश्चर्य से कम नही था। स्थानीय लोगो ने इसका राज खोला।

जंगलो पर मानव जाति का प्रभाव बढने से जंगली जानवरो को रहने मे समस्या पेश आ रही है। यही कारण है कि जंगल के अन्दर के खेतो को जंगली सुअरो से लेकर बन्दरो तक से नुकसान होता रहता है। तेन्दुए और बाघ आये दिन किसानो के मवेशियो का शिकार करते रहते है। वनोपज की तलाश मे भटकते वनवासियो की अनचाही मुलाकात भालुओ से होती रहती है। इस मुलाकात का नतीजा अक्सर खूनी संघर्ष के रुप मे सामने आता है। भालू मर गया तो वनवासी को सजा होती है और यदि वनवासी मर गया तो कुछ नही होता। सिकुडते जंगलो के कारण अब डोंगरो पर जंगली जानवरो ने शरण ली है। वहाँ उनकी आबादी मे इतनी सघनता है कि सारा संतुलन बिगड गया है। यही कारण था कि हमे उस डोंगर मे दिन मे इतने सारे जंगली जानवर नजर आ रहे थे।

जिस ऊँचाई पर बूटी मिलनी चाहिये थी वहाँ कुछ खास नही मिला और हम लगातार ऊपर चढते रहे। चोटी पर हमे बूटी मिल गयी। हमने पूजा की। बूटी का एक भाग अपने पास रखा और शेष भाग वही छोड दिया ताकि वह फिर से फल-फूल सके। मैने इस अनुपम भेंट के लिये पारम्परिक चिकित्सक के पैर छुए तो उन्होने हाथ पकडकर रोक दिया। चोटी पर हमने फैसला किया कि वापसी दूसरी ओर से की जाये जहाँ पेड कम थे। इससे जंगली जानवरो से सामना होने की सम्भावना नही रहेगी। बीच रास्ते मे अन्धेरा घिरने लगा। अचानक कुछ नीचे एक घर दिखायी दिया जहाँ से तेज रोशनी आ रही थी। हमे आश्चर्य हुआ क्योकि वहाँ तो बिजली थी नही फिर कैसे इतना प्रकाश आ रहा है! साथ चल रहे लोगो ने बताया कि किसी अघोरी बाबा का मठ है। जनरेटर से बिजली जल रही है। हमारे पास खाने के लिये कुछ पूरीयाँ थी और अचार भी। हमने सोचा कि इस मठ मे जाकर इन्हे खा लिया जाये और फिर नीचे उतरा जाये।

हम मठ तक पहुँचे तो एक छोटा-सा लडका बाहर आया। उसके चेहरे मे आश्चर्य का भाव था। हमने उसे आने का कारण बताया। उसने कठोर स्वर मे कहा कि चुपचाप आगे बढ जाओ। यहाँ कोई नही आ सकता। फिर वह दौडकर अन्दर चला गया। क्या करे, क्या न करे, इसी उधेडबुन मे कुछ पल बीते कि हमे काले कपडो मे आठ-दस लोग आते दिखे मठ के अन्दर से। पास आये तो हमारा कलेजा मुँह मे आ गया। उनके हाथो मे नंगी तलवारे थी। वे गालियाँ दे रहे थे। हमे देखकर वे कुछ ठिठके फिर मेरी ओर मुखातिब होकर बोले क्या बात है, किसने भेजा है। जी कडा करके मैने आने का प्रयोजन बताया तो उनका सरदार बोला, खामोखाँ हम आ गये। आइये, बैठिये, आराम से भोजन कीजिये। एक आदमी को हमारे पास छोड कर वे जैसे आये थे वैसे ही वापस लौट गये।

धीरे स्वर मे खाना खाते वक्त पारम्परिक चिकित्सक ने बताया कि इस पहाडी पर अवैध कब्जो की होड लगी है। मठ और मन्दिर के नाम पर पहाडी पर कब्जे के लिये खून बह रहा है। हमे दूसरी पार्टी का सदस्य समझा गया इसलिये तलवारे लेकर लोग आ गये। पूरे छत्तीसगढ मे कमोबेश ऐसी ही स्थिति है। बहुत से स्थानो मे एक भी डोंगर ऐसे नही है जिसमे व्यवसायिक धर्म स्थान न हो। ये धर्म स्थान माफिया बडे ही संगठित ढंग से काम कर रहे है।

सबसे पहले पहाडी पर किसी पुराने मन्दिर की खोज की जाती है। अक्सर पहाडियो मे क्षेत्र विशेष के देवी-देवता निवास करते है। लोग साल मे एक या दो बार मेले के दिन वहाँ जाते है फिर साल भर उस स्थान को वैसे ही छोड दिया जाता है। स्थानीय लोग जानते है कि वहाँ बार-बार जाना वहाँ के पर्यावरण के लिये अभिशाप बन सकता है। पर माफिया के लोग चाहते है कि लोग रोज आये ताकि उस स्थान से उन्हे आमदनी हो। पुराने मन्दिर के जीर्णोधार की बात कही जाती है। लोग तैयार हो जाते है तो माफिया के लोग वहाँ जीर्णोधार करके अपने पुजारियो को बिठा देते है। फिर कुछ ही दिनो मे पहाडी के चारो ओर की जमीन की खरीद शुरु हो जाती है। किसानो से कहा जाता है कि हम खेत तभी लेंगे जब इसमे एक भी पेड नही होगा। फिर पहाडी मे पेडो की अवैध कटाई शुरु हो जाती है। देखते ही देखते पहाडी नगी हो जाती है। फिर ऊपर तक जाने के लिये सडक बनवा दी जाती है। नयी सजावटी वनस्पतियाँ लगा दी जाती है। मन्दिर के साथ एक व्यवसायिक परिसर भी बन जाता है। मनुष्यो के साथ मक्खी, मच्छर और अवारा कुत्ते आ जाते है। उनके मवेशी दूध के लिये ऊपर ले जाये जाते है। वे जंगलो को चरना शुरु कर देते है। जंगली जानवर मवेशियो को खाने लगते है। इसी बीच जंगली जानवरो के अवैध शिकार की खबरे आने लगती है। इस तरह जीता-जागता जंगल मर जाता है और जंगली जानवरो का आखिरी ठिकाना भी खत्म हो जाता है। रही सही कसर मोटर गाडियो मे शोर मचाते हुये साल भर आने वाले भक्तगण पूरी कर देते है। बचे-खुचे जल स्त्रोतो मे वे नित्य कर्म करते है और प्लास्टिक की थैलियाँ, गुटखा पाउच, चिप्स पैकेट आदि बिखेर कर चले जाते है।

कुछ वर्षो पहले मैने एक छोटा सा अध्ययन किया था, यह जानने के लिये कि एक छोटी से पहाडी की मानव समाज के लिये क्या उपयोगिता हो सकती है। मुझे एक पहाडी मे ऐसी सैकडो वनस्पतियाँ इतनी संख्या मे मिली जो पीढीयो तक छत्तीसगढ जैसे राज्य को रोगो से मुक्त रख सकती है बिना किसी व्यय के। हमारा समाज अभी भी माँ प्रकृति को समझ नही पाया है। उनसे प्रेम मे ही स्वस्थ्य और सुखी जीवन का आधार है, यह जानकर भी उन्हे चोट पहुँचाता है और फिर देवालयो मे बैठकर कष्टो से मुक्ति के स्वप्न संजोता है। (क्रमश:)

(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)

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Comments

कैसे जंगल नष्ट हो रहे हैं आप ने बहुत ही सुंदर तरीके से बताया है। लगता है आबादी का बोझा धरती नहीं झेल पाएगी वहीं से प्रलय का प्रारंभ हो जाएगा। मेरे ख्याल से शुरूआत हो चुकी है, बस हम उसे देख समझ नहीं पा रहे हैं।
ghughutibasuti said…
बहुत ज्ञानवर्धक व हिलाने वाला लेख ! जब जब आपके लेख पढ़ती हूँ , मनुष्य की प्रकृति को नष्ट कर स्वयं को नष्ट करने की इस विचित्र इच्छा पर चकित होती हूँ ।
घुघूतीबासूती
Udan Tashtari said…
अच्छा लगा यह आलेख पढ़कर. हम ही तो नष्ट कर रहे हैं. शायद यह सब पढ़कर कुछ जागरुकता आये. आभार.
जंगलों के विनाश की कहानी आप की ज़ुबानी बड़ी अच्छी लगी. जागरूकता फैलने के लिए आभार.

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