अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -60
अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -60 - पंकज अवधिया
आज दुनिया भर मे जलवायु परिवर्तन (क्लाइमेट चेंज) की चर्चाए हो रही है। वैज्ञानिक रोज ऐसे उदाहरण प्रस्तुत करने की कोशिश कर रहे है जिससे आम लोगो को विश्वास हो जाये कि हाँ, सचमुच जलवायु परिवर्तन हो रहा है। जलवायु परिवर्तन (क्लाइमेट चेंज) हो रहा है, ये सभी महसूस करते है। यह अभी कुछ वर्षो से नही बल्कि बहुत पहले से हो रहा है क्योकि लम्बे समय से मनुष्य अपनी गतिविधियो से माँ प्रकृति को नुकसान पहुँचा रहा है। यह अलग बात है कि अचानक से शोर हुआ है जलवायु परिवर्तन (क्लाइमेट चेंज) पर और यदि यह कुछ समय का शोर है तो जल्दी ही यह थम जायेगा और नये नारो के साथ हमारे वैज्ञानिक सामने आ जायेंगे। यदि जलवायु परिवर्तन (क्लाइमेट चेंज) पर सचमुच काम करना है तो एक लम्बे समय के लिये योजना बनानी होगी और जमीनी स्तर पर काम करना होगा। जलवायु परिवर्तन (क्लाइमेट चेंज) से हमारे देश की पारम्परिक चिकित्सा भी अछूती नही है।
कैसे जलवायु परिवर्तन (क्लाइमेट चेंज) हमारी पारम्परिक चिकित्सा को प्रभावित कर रहा है इस पर मै अंग्रेजी मे एक लेखमाला लिख रहा हूँ। इस लेखमाला की प्रथम कडी मे मैने रेड वेलवेट माइट यानी बीरबहूटी नामक औषधीय मकौडे पर जलवायु परिवर्तन (क्लाइमेट चेंज) का क्या असर पड रहा है- इस विषय मे लिखा है। इस मकौडे का उपयोग सैकडो पारम्परिक नुस्खो मे बाहरी और आँतरिक तौर पर होता है। यदि इसके उपयोग मे दक्ष पारम्परिक चिकित्सको की माने तो साल दर साल इसकी उपलब्धता घटती जा रही है। यहाँ मै यह बताना चाहूँगा कि यह मकौडा साल मे केवल कुछ दिनो मे ही प्रथम मानसून वर्षा के बाद जमीन के ऊपर आता है। कछारी जमीन मे इसे सुबह-सुबह देखने पर ऐसा लगाता है जैसे लाल मखमल की चादर बिखरी हुयी है। बस इन्ही कुछ दिनो मे इसे एकत्र किया जाता है और साल भर दवा के रुप मे उपयोग किया जाता है। जलवायु परिवर्तन (क्लाइमेट चेंज) से न केवल इनकी संख्या मे कमी हुयी है बल्कि इनमे औषधीय गुण भी कम होने लगे है। यही कारण है कि अब पारम्परिक चिकित्सक इसके वानस्पतिक विकल्पो को आजमा रहे है। वे इसके साथ भी बहुत सी वनस्पतियाँ मिलाकर मिश्रण बनाते है ताकि आशानुरुप लाभ मिले। यदि दूसरे नजरिये से देखा जाये तो इस जलवायु परिवर्तन (क्लाइमेट चेंज) ने इस मकौडे को कुछ राहत दी है। पर सही लाभ के विषय मे तभी पता चलेगा जब इनपर विस्तार से शोध किया जायेगा। मेरी लेखमाला की दूसरी कडी पारम्परिक लघु धान्य फसल कोदो के औषधीय गुण पर जलवायु परिवर्तन (क्लाइमेट चेंज) से आ रहे परिवर्तन पर केन्द्रित है।
हाल ही मे आस्ट्रेलिया के कृषि वैज्ञानिको की एक रपट आयी है जिसमे कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन (क्लाइमेट चेंज) पर यदि अंकुश नही लगाया गया तो साइप्रस नामक वनस्पति पर सकारात्मक प्रभाव पडेगा। इसकी आबादी बढेगी और इसे नियंत्रित करना मुश्किल हो जायेगा। आस्ट्रेलिया सहित दुनिया के बहुत से देशो मे इस वनस्पति को खरपतवार अर्थात अवाँछित पौधे का दर्जा प्राप्त है। प्रतिवर्ष खेतो मे इसके नियंत्रण के लिये लाखो डालर खर्च किये जाते है फिर भी इसका समूल नाश नही हो पाता। यदि यह भविष्य मे बढेगा जैसा कि आस्ट्रेलियाई वैज्ञानिक कह रहे है तो खेती का खर्च और बढेगा। यह चिंता का विषय है। यह वनस्पति भारत मे भी खरपतवार के रुप मे जानी जाती है पर देश के बहुत से हिस्सो मे आज भी किसान अपने खेतो मे इसका स्वागत करते है। वे इसके औषधीय उपयोगो को जानते है। इस ज्ञान से वे अपने और अपने परिवार की स्वास्थ्य रक्षा करते है और चिकित्सा व्यय बचाते है। वे इसे अपनी झोपडियो मे आवरण के लिये उपयोग करते है। वे जानते है कि खेतो से निकल रहे रसायन युक्त पानी मे कम ही वनस्पतियाँ जीवित रहती है। यह वनस्पति न केवल जीवित रहती है बल्कि दूषित जल का शोधन भी करती है। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि जहाँ एक ओर इसे खरपतवार कहकर नष्ट करने की सलाह दी जाती है वही दूसरी ओर प्रतिवर्ष जडी-बूटियो के व्यापारी बडी मात्रा मे इस वनस्पति को किसानो से खरीदते है और फिर देश की दवा कम्पनियो को इसकी आपूर्ति की जाती है। व्यापारियो का कहना है कि इसकी माँग बढती जा रही है पर इस अनुपात मे वनस्पति नही मिलती है। लीजिये, यह तो उल्टी बात हो गयी। जब मैने बातो ही बातो मे व्यापारियो को आस्ट्रेलियाई रपट के बारे मे बताया तो वे बोल पडे कि जलवायु परिवर्तन (क्लाइमेट चेंज) से तो हमारी चाँदी हो जायेगी। यह वनस्पति जितनी बढेगी, फैलेगी उतना ही हमे लाभ होगा। मुझे यकीन है कि जलवायु परिवर्तन (क्लाइमेट चेंज) का हल्ला मचाने वाले अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिक व्यापारियो की यह बात सुनेगे तो सिर पीट लेगे।
इसी रपट की चर्चा जब मैने पारम्परिक चिकित्सको से की तो उनमे से कुछ तो व्यापारियो की तरह खुश हुये पर कुछ ने चिता जतायी कि धरती का तापक्रम बढने से यदि ये फैलेंगे तो जरुर इनके औषधीय गुणो पर भी विपरीत प्रभाव बढेगा। फिर इनका फैलाव दूसरी वनस्पतियो के लिये अभिशाप भी तो सिद्ध होगा। धरती मे वैसे ही जगह की कमी हो रही है। ऐसे सशक्त विचार तो मैने अंतरराष्ट्रीय मंचो पर भी नही सुने। आज इन बातो को इस लेखमाला के माध्यम से आप तक पहुँचाने का उद्देश्य यह है कि पंच सितारा होटलो मे जलवायु परिवर्तन (क्लाइमेट चेंज) की बात करने वाले धरती से जुडे किसानो और पारम्परिक चिकित्सको की भी बात सुने। उनके पास पीढीयो का अनुभव है और उन्हे साथ लेकर ही हम सही मायने मे इस धरती की रक्षा के लिये योजना बना सकेंगे। इन धरती पुत्रो को अनपढ और उनके ज्ञान व विश्वास को अन्ध-विश्वास कहना अब बन्द करना होगा।
राजधानी बनने के बाद से रायपुर मे अचानक ही हवाई जहाजो की आवाजाही बढ गयी है। हवाई जहाज काफी दूरी से नीचे आने का क्रम शुरु कर देते है। प्रदेश के सुदूर जंगली इलाको मे ये आम लोगो का ध्यान खीचने लगे है। पिछले हफ्ते मै घने जंगल मे एक पर्वत शिखर पर पारम्परिक चिकित्सको से बतिया रहा था। अचानक ही एक विमान के गुजरने से हमारी चर्चा मे बाधा आयी। एक बुजुर्ग पारम्परिक चिकित्सक ने कहा कि आसमान के जिस भाग मे ये हवाई जहाज उडते है वही से हमारे जंगलो और आम लोगो के लिये पानी आता है। चन्द लोगो की सुख सुविधा के लिये हम इस अमूल्य पानी को दूषित करने का जोखिम उठा रहे है। कोई इन जहाज वालो को यह बात समझाता क्यो नही? मै उनकी बात सुनकर भौचक्क रह गया। हम सभी ने न जाने कितनी बार हवाई जहाजो को आसमान मे उडते देखा है। उसमे बैठे भी है पर यह छोटी सी पर गम्भीर बात कभी हमारे मन मे नही आयी। यह मेरा सौभाग्य है जो मै इन धरती पुत्रो और आपके बीच संवाद सेतु बन पा रहा हूँ। (क्रमश:)
(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)
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आज दुनिया भर मे जलवायु परिवर्तन (क्लाइमेट चेंज) की चर्चाए हो रही है। वैज्ञानिक रोज ऐसे उदाहरण प्रस्तुत करने की कोशिश कर रहे है जिससे आम लोगो को विश्वास हो जाये कि हाँ, सचमुच जलवायु परिवर्तन हो रहा है। जलवायु परिवर्तन (क्लाइमेट चेंज) हो रहा है, ये सभी महसूस करते है। यह अभी कुछ वर्षो से नही बल्कि बहुत पहले से हो रहा है क्योकि लम्बे समय से मनुष्य अपनी गतिविधियो से माँ प्रकृति को नुकसान पहुँचा रहा है। यह अलग बात है कि अचानक से शोर हुआ है जलवायु परिवर्तन (क्लाइमेट चेंज) पर और यदि यह कुछ समय का शोर है तो जल्दी ही यह थम जायेगा और नये नारो के साथ हमारे वैज्ञानिक सामने आ जायेंगे। यदि जलवायु परिवर्तन (क्लाइमेट चेंज) पर सचमुच काम करना है तो एक लम्बे समय के लिये योजना बनानी होगी और जमीनी स्तर पर काम करना होगा। जलवायु परिवर्तन (क्लाइमेट चेंज) से हमारे देश की पारम्परिक चिकित्सा भी अछूती नही है।
कैसे जलवायु परिवर्तन (क्लाइमेट चेंज) हमारी पारम्परिक चिकित्सा को प्रभावित कर रहा है इस पर मै अंग्रेजी मे एक लेखमाला लिख रहा हूँ। इस लेखमाला की प्रथम कडी मे मैने रेड वेलवेट माइट यानी बीरबहूटी नामक औषधीय मकौडे पर जलवायु परिवर्तन (क्लाइमेट चेंज) का क्या असर पड रहा है- इस विषय मे लिखा है। इस मकौडे का उपयोग सैकडो पारम्परिक नुस्खो मे बाहरी और आँतरिक तौर पर होता है। यदि इसके उपयोग मे दक्ष पारम्परिक चिकित्सको की माने तो साल दर साल इसकी उपलब्धता घटती जा रही है। यहाँ मै यह बताना चाहूँगा कि यह मकौडा साल मे केवल कुछ दिनो मे ही प्रथम मानसून वर्षा के बाद जमीन के ऊपर आता है। कछारी जमीन मे इसे सुबह-सुबह देखने पर ऐसा लगाता है जैसे लाल मखमल की चादर बिखरी हुयी है। बस इन्ही कुछ दिनो मे इसे एकत्र किया जाता है और साल भर दवा के रुप मे उपयोग किया जाता है। जलवायु परिवर्तन (क्लाइमेट चेंज) से न केवल इनकी संख्या मे कमी हुयी है बल्कि इनमे औषधीय गुण भी कम होने लगे है। यही कारण है कि अब पारम्परिक चिकित्सक इसके वानस्पतिक विकल्पो को आजमा रहे है। वे इसके साथ भी बहुत सी वनस्पतियाँ मिलाकर मिश्रण बनाते है ताकि आशानुरुप लाभ मिले। यदि दूसरे नजरिये से देखा जाये तो इस जलवायु परिवर्तन (क्लाइमेट चेंज) ने इस मकौडे को कुछ राहत दी है। पर सही लाभ के विषय मे तभी पता चलेगा जब इनपर विस्तार से शोध किया जायेगा। मेरी लेखमाला की दूसरी कडी पारम्परिक लघु धान्य फसल कोदो के औषधीय गुण पर जलवायु परिवर्तन (क्लाइमेट चेंज) से आ रहे परिवर्तन पर केन्द्रित है।
हाल ही मे आस्ट्रेलिया के कृषि वैज्ञानिको की एक रपट आयी है जिसमे कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन (क्लाइमेट चेंज) पर यदि अंकुश नही लगाया गया तो साइप्रस नामक वनस्पति पर सकारात्मक प्रभाव पडेगा। इसकी आबादी बढेगी और इसे नियंत्रित करना मुश्किल हो जायेगा। आस्ट्रेलिया सहित दुनिया के बहुत से देशो मे इस वनस्पति को खरपतवार अर्थात अवाँछित पौधे का दर्जा प्राप्त है। प्रतिवर्ष खेतो मे इसके नियंत्रण के लिये लाखो डालर खर्च किये जाते है फिर भी इसका समूल नाश नही हो पाता। यदि यह भविष्य मे बढेगा जैसा कि आस्ट्रेलियाई वैज्ञानिक कह रहे है तो खेती का खर्च और बढेगा। यह चिंता का विषय है। यह वनस्पति भारत मे भी खरपतवार के रुप मे जानी जाती है पर देश के बहुत से हिस्सो मे आज भी किसान अपने खेतो मे इसका स्वागत करते है। वे इसके औषधीय उपयोगो को जानते है। इस ज्ञान से वे अपने और अपने परिवार की स्वास्थ्य रक्षा करते है और चिकित्सा व्यय बचाते है। वे इसे अपनी झोपडियो मे आवरण के लिये उपयोग करते है। वे जानते है कि खेतो से निकल रहे रसायन युक्त पानी मे कम ही वनस्पतियाँ जीवित रहती है। यह वनस्पति न केवल जीवित रहती है बल्कि दूषित जल का शोधन भी करती है। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि जहाँ एक ओर इसे खरपतवार कहकर नष्ट करने की सलाह दी जाती है वही दूसरी ओर प्रतिवर्ष जडी-बूटियो के व्यापारी बडी मात्रा मे इस वनस्पति को किसानो से खरीदते है और फिर देश की दवा कम्पनियो को इसकी आपूर्ति की जाती है। व्यापारियो का कहना है कि इसकी माँग बढती जा रही है पर इस अनुपात मे वनस्पति नही मिलती है। लीजिये, यह तो उल्टी बात हो गयी। जब मैने बातो ही बातो मे व्यापारियो को आस्ट्रेलियाई रपट के बारे मे बताया तो वे बोल पडे कि जलवायु परिवर्तन (क्लाइमेट चेंज) से तो हमारी चाँदी हो जायेगी। यह वनस्पति जितनी बढेगी, फैलेगी उतना ही हमे लाभ होगा। मुझे यकीन है कि जलवायु परिवर्तन (क्लाइमेट चेंज) का हल्ला मचाने वाले अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिक व्यापारियो की यह बात सुनेगे तो सिर पीट लेगे।
इसी रपट की चर्चा जब मैने पारम्परिक चिकित्सको से की तो उनमे से कुछ तो व्यापारियो की तरह खुश हुये पर कुछ ने चिता जतायी कि धरती का तापक्रम बढने से यदि ये फैलेंगे तो जरुर इनके औषधीय गुणो पर भी विपरीत प्रभाव बढेगा। फिर इनका फैलाव दूसरी वनस्पतियो के लिये अभिशाप भी तो सिद्ध होगा। धरती मे वैसे ही जगह की कमी हो रही है। ऐसे सशक्त विचार तो मैने अंतरराष्ट्रीय मंचो पर भी नही सुने। आज इन बातो को इस लेखमाला के माध्यम से आप तक पहुँचाने का उद्देश्य यह है कि पंच सितारा होटलो मे जलवायु परिवर्तन (क्लाइमेट चेंज) की बात करने वाले धरती से जुडे किसानो और पारम्परिक चिकित्सको की भी बात सुने। उनके पास पीढीयो का अनुभव है और उन्हे साथ लेकर ही हम सही मायने मे इस धरती की रक्षा के लिये योजना बना सकेंगे। इन धरती पुत्रो को अनपढ और उनके ज्ञान व विश्वास को अन्ध-विश्वास कहना अब बन्द करना होगा।
राजधानी बनने के बाद से रायपुर मे अचानक ही हवाई जहाजो की आवाजाही बढ गयी है। हवाई जहाज काफी दूरी से नीचे आने का क्रम शुरु कर देते है। प्रदेश के सुदूर जंगली इलाको मे ये आम लोगो का ध्यान खीचने लगे है। पिछले हफ्ते मै घने जंगल मे एक पर्वत शिखर पर पारम्परिक चिकित्सको से बतिया रहा था। अचानक ही एक विमान के गुजरने से हमारी चर्चा मे बाधा आयी। एक बुजुर्ग पारम्परिक चिकित्सक ने कहा कि आसमान के जिस भाग मे ये हवाई जहाज उडते है वही से हमारे जंगलो और आम लोगो के लिये पानी आता है। चन्द लोगो की सुख सुविधा के लिये हम इस अमूल्य पानी को दूषित करने का जोखिम उठा रहे है। कोई इन जहाज वालो को यह बात समझाता क्यो नही? मै उनकी बात सुनकर भौचक्क रह गया। हम सभी ने न जाने कितनी बार हवाई जहाजो को आसमान मे उडते देखा है। उसमे बैठे भी है पर यह छोटी सी पर गम्भीर बात कभी हमारे मन मे नही आयी। यह मेरा सौभाग्य है जो मै इन धरती पुत्रो और आपके बीच संवाद सेतु बन पा रहा हूँ। (क्रमश:)
(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)
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Comments
जलवायु परिवर्तन पर आलेख ज्ञानवर्धक रहा !!!
कृपया हो सके तो अपने इन आलेखों को जरा उम्दा व खुले शीर्षकों के रूप में प्रस्तुत करें , तो इनकी धमक ज्यादा दूर तक सुने पड़ेगी!!!
प्राइमरी का मास्टर का पीछा करें