अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -65

अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -65 - पंकज अवधिया

“ अरे रुकिये, रुक जाइये, ये पानी नही जहर है। अब रुक भी जाइये।“ रायगढ के मुडागाँव के आस-पास एक बोरवेल मे हाथ धोने के लिये जैसे ही मै बढा साथ चल रहे स्थानीय व्यक्ति ने चेतावनी दी। जब हम मुडागाँव पहुँचे तो भयावह वास्तविकता का आभास हुआ। यहाँ बडी संख्या मे लोग पानी के शिकार मिले। किसी की पीठ अकड गयी थी तो किसी ने खाना-पीना छोड दिया था। उन्नीस-बीस साल के युवक बच्चे की तरह दिखते थे। पानी ने उनका शारीरिक विकास रोक दिया था। उनके पैर मुड गये थे। वे लकडी के सहारे के बिना एक कदम भी नही चल सकते थे। पूरे समय शरीर मे असहनीय दर्द होता रहता था। सारा कसूर पानी का था। इसमे फ्लोराइड की अधिक मात्रा थी। लम्बे समय से लोग प्रभावित थे। प्रशासन ने शुद्ध पानी के टैकर खडे करवा दिये थे पर जब हम पहुँचे तो वे सम्पन्न लोगो के इलाके मे थे। गाँव से कुछ दूर दूसरे टोले मे लोग बीमार होने के बावजूद जहरीला पानी पी रहे थे। वे दूर से टैकर का पानी नही ला सकते थे। जहरीले पानी वाले बोरवेलो पर लाल रंग के कट-मट का निशान लगाने के अलावा लिख दिया गया था कि केवल निस्तारी के लिये पानी का प्रयोग करे। पर फिर भी लोग वहाँ से पीने का पानी भर रहे थे।

उनका कोई इलाज तो था नही। जब भी कुछ कमायी होती तो सबसे पहले दर्द नाशक इंजैक्शन लगवाने अस्पताल भागते। सारी जमा पूंजी इसी मे फुँक रही थी। प्रशासन के पास एक ही रटारटाया उपाय था कि गाँव खाली करा दिया जाये। पर गाँव वाले गाँव छोडने को तैयार नही थे। उन्हे कोई अच्छा विकल्प दिया नही गया था। मैने अपने साथियो से पता करके बहुत ही सस्ते “फ्लोराइड मटको” की जानकारी एकत्र की। ये भुवनेश्वर मे बनते थे और आर्डर मिलने पर इसे कही भी पहुँचाया जा सकता था। ये बहुत ही सरल सिद्धांत पर काम करते थे। इसमे फिल्टर लगे हुये थे जो पानी से फ्लोराइड को अलग कर देते थे। इसे बाद मे गाँव के कुम्हार भी बना सकते थे। प्रशासन को इस सरल उपाय के बारे मे एक स्थानीय संस्था के माध्यम से जानकारी दी गयी।

उस समय प्रभावितो से बात करने पर पता चला कि दर्द से मुक्ति के लिये वे ओझाओ की मदद ले रहे थे। मरता क्या नही करता। ओझा लम्बी झाड-फूँक की प्रक्रिया करते और कुछ दान-दक्षिणा ले लेते। यह सुनकर मुझे थोडा-सा गुस्सा आया। जब तकलीफ का कारण मालूम है तो फिर ओझाओ की शरण क्यो? अब भूतो या बुरी आत्माओ ने तो पानी को जहरीला किया नही है? और न ही झाड-फूँक के बाद पानी अपने आप साफ हो जाने वाला है। मेरे आवेश को देखकर साथ चल रहे व्यक्ति ने कहा कि आप चलकर एक बार देख ले फिर कोई राय कायम करे। हम ओझा के पास पहुँचे। देखने मे वह साधारण इंसान दिखा। वह बहुत से भूतो की खबर ले रहा था। फिर प्रभावित की बारी आयी। ओझा ने कुछ लेप लगाये, धुँआ किया और तेज स्वर पर बुदबुदाता रहा। फिर चीखने- चिल्लाने लगा। हमे तो सब कुछ नाटकीय लग रहा था। पर रोचक भी। यदि यह रंगमंच पर होता तो हम टिकट लेकर जरुर जाते। उसकी भाव-भंगिमाए देखने लायक थी। सारा कुछ आधे घंटे तक चला। प्रभावित ने अपने घर के पेड से अमरुद (जाम) लाये थे। ओझा ने इसे सहर्ष ‘फीस’ के रुप मे स्वीकार लिया। प्रभावित इस सब से खुश दिखा। उसने कहा कि जब तक झाड-फूँक चलती रही अच्छा लगा पर अब फिर दर्द शुरु हो रहा है। पर मै फिर आऊँगा। ओझा से गहरायी मे जाकर बात की तो उसने कहा कि मुझे भी मालूम है कि मेरे उपाय इसका कुछ भला नही कर सकते। पानी जहरीला है और उसी के कारण इसकी हालत ऐसी हुयी है। मै तो बस कुछ समय तक उछल-कूद मचाकर इनका ध्यान बँटा देता हूँ और इसी के चलते वे अपने दर्द को भूल जाते है। वे उम्मीद लेकर आते है। मै उन्हे निराश नही कर सकता। उनसे कुछ नही लूंगा तो वे समझेंगे की मन से उपचार नही किया जा रहा है। इसलिये जो भी देते है मै स्वीकार कर लेता हूँ। मेरे टोला का पानी जहरीला नही है इसलिये मै बच गया पर ये इतने सौभाग्यशाली नही रहे। मै स्तब्ध होकर ओझा की बाते सुनता रहा। हम तो सारे ओझाओ को एक तराजू मे तौलते है। या कहे ओझा का नाम सुनते ही हमारी भृकटियाँ तन जाती है। ओझा मे भी अच्छा इंसान हो सकता है। यह विश्वास इस घटना के बाद और गहरा हो गया।

जब उस ओझा को पता चला कि मै जडी-बूटी का वैज्ञानिक हूँ तो उसने हाथ जोड लिये और बोला, साहब, आप क्यो नही इन लोगो को दर्द से मुक्ति का कुछ उपाय बताते। मैने उसे आश्वस्त किया कि मै अपना योगदान दिये बगैर नही जाऊँगा। आस-पास घूमने पर चिरपरिचित वनस्पतियाँ दिख गयी है। इनमे से फुडकर (आक) को मैने चुना। कुछ दूर चलने पर अंडी (कैस्टर) के कुछ पौधे मिल गये। फिर बेल और कोहा के पेड भी दिखे। उनसे मैने छाल एकत्र कर ली। इन सब को लेकर ओझा के पास पहुँचा और कहा कि आक की पत्ती को तवे पर थोडे से तेल के साथ गरम करके दर्द वाले स्थान की सिकाई करना। यदि यह कम असर वाला लगे तो अंडी की पत्तियो का प्रयोग करना। इसके बाद दोनो तरह की छालो को अलग-अलग अनुपात मे मिलाकर उपयोग करना। तीसरे उपाय के विषय मे ओझा को कुछ जानकारी थी। उसने कहा कि साहब, यहाँ वरुण के पेड भी है। मुझे एकाएक विश्वास नही हुआ। मैने कहा, फिर तो बेल की जगह वरुण की छाल का प्रयोग करना ताकि अधिक लाभ मिले। मै अपने ज्ञान से इतना ही कर पाया क्योकि फ्लोराइड विषाक्तता पर हमारे प्राचीन ग्रंथ कुछ ज्यादा नही कहते। आधुनिक ग्रंथ भी बचाव पर जोर देते दिखते है। वापस लौट कर मैने राज्य के जाने-माने होम्योपैथी विशेषज्ञो को वहाँ ले जाने की योजना बनायी ताकि वे इसे चैलेंज के रुप मे लेकर कुछ राहत दिलवा सके। दिल्ली के एक मित्र ने देश के दो जाने-माने आयुर्वेदिक और एलोपैथ चिकित्सको को अपने बूते पर रायपुर तक लाने की पेशकश कर दी। जब इतने सारे विशेषज्ञो को वहाँ ले जाने की योजना बनी तो सभी की सहमति नही बन पायी। फिर फीस इतनी थी कि मै पूरा खर्च वहन नही कर सकता था। मित्रो ने सलाह दी कि प्रभावितो को रायपुर ले आया जाये। इससे राजधानी के लोगो का ध्यान आकर्षित होगा और हो सकता है कुछ पैसो की व्यवस्था हो जाये। वहाँ की एक संस्था से यह अनुरोध किया तो वह तैयार हो गयी। फिर नयी परेशानी आ गयी। प्रभावितो के जोड इतने कडे हो गये थे कि शरीर मुड नही सकता था। ट्रेन मे वो आ नही सकते थे। एम्बुलेंस तलाशी गयी पर फिर भी बिना तकलीफ उन्हे लाना सम्भव नही था। इस तरह सारी योजना धरी की धरी रह गयी। अंतिम विकल्प के रुप मे कलम की ताकत को आजमाया तो वह काम आ गयी। मैने बहुत से लेख लिखे जिन्हे स्थानीय समाचारो ने प्रकाशित किया। वहाँ की संस्था ने बताया कि इससे प्रशासन की नीन्द खुली और देर से ही सही पर कुछ प्रयास हुये। प्रभावितो के लिये उपयुक्त औषधीय वनस्पतियो के मेरी तलाश अभी भी जारी है।

इसके बाद वानस्पतिक सर्वेक्षणो के सिलसिले मे राज्य के उस हिस्से मे भी जाना हुआ जहाँ आर्सेनिक (सीसा) की समस्या है भूमिगत जल मे। वहाँ भी कमोबेश ऐसे ही हालात है। वहाँ दरियादिल ओझा तो नही मिला पर अपनी समस्याओ के लिये अज्ञात बुरी शक्तियो को जिम्मेदार मानकर प्रभावित जी रहे है। उन्हे लगता है कि जब इनका बुरा प्रभाव कम हो जायेगा, सारी तकलीफे अपने आप खत्म हो जायेंगी। उनके दर्द भरे जीवन को देखकर मेरी हिम्मत नही हुयी कि मै उनके इस विश्वास को अन्ध-विश्वास ठहराऊँ। वे इस घोर कष्ट भरे जीवन मे भी आशा की ज्योत जगाये हुये है। काश! मेरा ज्ञान कुछ कर पाता। (क्रमश:)

(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)

© सर्वाधिकार सुरक्षित

Comments

ambrish kumar said…
रोचक जानकारी दी है छत्तीसगढ़ में हमे भी बैगा समुदाय का खासा अनुभव है खासकर बस्तर में मलेरिया का इलाज करने वालो का.
आप का लेख पढ़ते हुए सरकारी तंत्र के प्रति रोष पैदा हो रहा था।्पता नही सरकार क्यों सोई रहती है।आप ने अच्छी जानकारी दी।आभार।
हमेशा की तरह जानकारियों से युक्त.
अच्‍छी जानकारी के लिए धन्‍यवाद।
आप के योग दान को विस्मृत नहीं किया जा सकेगा।

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