अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -59

अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -59 - पंकज अवधिया

इस दुनिया मे शायद ही कोई ऐसा हो जो सदा जवान नही रहना चाहता है। बुढापे से मुक्ति सभी चाहते है। हमारे प्राचीन चिकित्सा ग्रंथ ऐसे बहुत सारे उपायो का वर्णन करते है जो हमारा कायाकल्प कर सकते है। पर इन उपायो को उसी स्वरुप मे अपनाना हर किसी के लिये सम्भव नही हो पाता। देश भर मे बहुत से विशेषज्ञ लगातार ऐसे उपायो की खोज मे है। वे निरंतर प्रयोग कर रहे है और परिणामो को अपने तक सीमित रख रहे है। अपने छात्र जीवन मे मै भी ऐसे ही एक प्रयोग का हिस्सा बना था। दस जवानो और दस बुजुर्गो का चयन एक जडी-बूटी विशेषज्ञ ने किया था। हमे उनके आश्रम एक महिने तक रहना था। वे जो कहे उसे मानना था। बुजुर्गो को जवान बनाया जाना था और हम जवानो को आजीवन जवानी कायम रखने के योग्य बनाया जाना था। सब कुछ एक महिने मे ही हो जाना था। वनस्पतियो मे सदा से रुचि थी इसलिये मैने इस प्रयोग मे शामिल होने मे जरा भी देर नही की।

नियत तिथि को हम आश्रम पहुँच गये। हफ्ते भर तो पेट और शरीर की सफाई होती रही। फिर हमे पास के एक जंगल मे ले जाया गया। करीब पचास किस्म के अलग-अलग पुराने पेडो को चुना गया। फिर देखते ही देखते उनकी कटाई आरम्भ हो गयी। जमीन से दो-तीन हाथ छोडकर उन्हे काट दिया गया। दूसरे दिन जब हम वहाँ पहुँचे तो ठूँठो को काटकर उसे खोखला बना दिया था। इसमे कुछ भी रखा जा सकता था। तीस से अधिक प्रकार के जगली फल लाये गये और फिर उन्हे खोखले स्थानो मे भर दिया गया। ऊपर से मिट्टी का लेप कर दिया गया और फिर उसके ऊपर जडी-बूटियो का। फिर कंडे (छेना) से इन्हे ढाँका गया। आग जला दी गयी और हम वापस लौट आये। सुबह तक आग बुझ गयी। फलो को एकत्र किया गया और फिर बचे हुये दिनो मे सिर्फ ये फल ही हमारे आहार रहे। साथ मे दूध दिया जाता रहा। हमे ब्रम्हचर्य का पालन करना था। हमे बताया गया था कि यदि त्वचा मे परिवर्तन हो या केश गिरे या नाखून गिरे तो तुरंत सूचना दी जाये। प्रयोगकर्ताओ को उम्मीद थी कि त्वचा, केश और नाखून गिर जायेंगे और उनकी जगह नये आयेंगे। हमे रात को एक विशेष प्रकार की झोपडी मे रहना होता था जहाँ जडी-बूटियो को जलाया जाता था। नंगे बदन रहना होता था। फूलो की सेज होती थी। रोज अलग किस्म के बिछावन का प्रयोग होता था। चौबीसो घंटे हम पर नजर रखी जाती थी। प्रयोग की अवधि समाप्त होते तक प्रयोगकर्ताओ के चेहरे से निराशा झलकने लगी थी। पर हम सब बडे प्रसन्न थे। हममे नयी स्फूर्ति का संचार हो गया था। ऐसा लगता था कि हम कोई भी काम कर सकते है। बुजुर्गो मे नया जोश देखते बनता था। वे कहते थे कि उन्हे पहले कोई रोग था इसका अहसास भी नही है उन्हे। पर प्रयोगकर्ता हमारे केशो, नखो और त्वचा पर ही नजर गडाये थे। प्रयोग के बाद हम वापस आ गये और रोजमर्रा के कामो मे जुट गये। जिन लोगो को प्रयोग के लिये चुना गया था उन सबने आपस मे सम्बन्ध बनाये रखे। बुजुर्गो मे से कुछ ही अब हमारे साथ है। वे जब तक जीये मजे से जीये। हम जवानो मे से अधिक्तर ने शादी की और अब सुखी जीवन जी रहे है। वे अपने आप को अपने साथियो की तुलना मे अधिक स्वस्थ्य महसूस कर रहे है जबकि प्रयोग हुये बरसो बीत चुके है। मै अविवाहित रहा इसलिये साथियो के अनुभव से ही प्रसन्न होता रहा। हम सदा जवान नही रहे जैसा कि प्रयोगकर्ताओ का उद्देश्य था।

कृषि विज्ञान की शिक्षा के दौरान ही मुझमे इस चमत्कारिक प्रयोग के बारे मे विस्तार से जानने की इच्छा जाग गयी थी। इसी कारण मै जहाँ भी जाता इसकी चर्चा अवश्य करता। लोग विश्वास नही करते। कुछ अविद्वानो ने बताया कि आँवला का ऐसा प्रयोग ग्रंथो मे वर्णित है वह केवल पलाश के पेड के साथ वर्णित है। दसो किस्म के पेडो और जंगली फलो का उपयोग तो कही उल्लेखित नही है। प्रयोगकर्ताओ के पास गया तो उन्होने कुछ बताने से इंकार कर दिया। सालो तक घूमने के बाद कुछ बुजुर्ग पारम्परिक चिकित्सको से इस विषय मे जानकारी मिलनी शुरु हुयी। एक सिरा पकड मे आया तो धीरे-धीरे सब कुछ पता लग गया। पेडो के नाम भी और प्रयोग किये गये जंगली फल भी। यह प्रयोग असफल क्यो हुआ? पारम्परिक चिकित्सको का कहना था कि अलग-अलग पेडो की कोटरो से आग बुझने के बाद एकत्र किये गये जंगली फलो को अलग-अलग प्रयोग करने की बजाय उन्हे मिलाया जाना चाहिये था। यह बात शायद प्रयोग कर्ताओ को नही मालूम थी। जिन पारम्परिक चिकित्सको से मै मिला वे उम्र के अंतिम पडाव मे थे। उन्होने ऐसा प्रयोग किया नही था पर अपने पिता और दादा को करते देखा था। वे राज परिवारो के लिये ऐसा करते थे। इस प्रयोग के खतरे भी है। यह जानकर मै चौका। मेरे चेहरे मे मुँहासो के निशान देख कर वे बोले कि गलत प्रयोग रक्त की उष्णता को बढा देता है। जवानी मे इसका कम असर दिखता है पर बुढापे मे इससे बहुत नुकसान हो सकता है। उन्होने कहा कि पूरे प्रयोग के दौरान हमारे शरीर पर जडी-बूटियो का एक विशेष लेप लगाया जाना चाहिये था जिससे त्वचा सप्राण रहे। ये सब बाते मैने अपने साथियो को नही बतायी है। इसने मेरे उत्साह को ठंडा कर दिया पर इस बात का संतोष है कि कम से कम कुछ तो लाभ हुआ।

मैने इस प्रयोग को दोबारा करने की सोची। इस बार मेरा उद्देश्य कायाकल्प का न होकर शरीर की प्रतिरोधक क्षमता को बढाने का था। मूल प्रयोग मे बीस लोगो के लिये दसो पुराने पेडो को काटे जाने के मै खिलाफ था। हमने दूसरी विधि अपनाने की सोची। जंगल मे घूम-घूम कर अपने आप मर चुके पेडो की कोटरो की निशानदेही की और फिर उसका उपयोग किया। पारम्परिक चिकित्सको ने सुझाया कि यदि इन पेडो की लकडियो से हंडियाँ बना ली जाये तो इनका बार-बार उपयोग किया जा सकेगा। इससे पेड बचे रहेंगे। यदि यह प्रयोग सफल रहा तो जंगल मे आग लगाने की होड मच जायेगी। हो सकता है लोग पेडो को भी काटने लगे इस कार्य के लिये। इसलिये मुझे पारम्परिक चिकित्सको का उपाय अच्छा लगा। अपने प्रयोग मे मैने इसे भी आजमाया।

आग बुझने के बाद जंगली फलो को हमने एकत्र कर लिया और फिर उसे दूध के साथ चार दिनो तक खाया। न विशेष झोपडियो मे रहे और न ही बाकी सावधानियाँ बरती। सब कुछ पारम्परिक चिकित्सको के मार्ग-दर्शन मे हुआ। जंगली फलो को हमने अलग-अलग अनुपात मे मिलाया और फिर अलग-अलग श्रेणियो मे बाँटा। शरीर की प्रतिरोधक शक्ति बढाने का लिये, कामशक्ति बढाने के लिये, रोग विशेष के लिये आदि-आदि। फिर सबने इसका आवश्यकत्तानुसार सेवन किया। सभी को अच्छे परिणाम मिले। न पेड कटे और न ही किसी को नुकसान हुआ। मैने दुनिया भर के सन्दर्भ ग्रंथो को खंगाला तो पता चला कि हमारी इस विधि को कही और नही आजमाया गया है। हमने सभी ने यह प्रण लिया कि इस नये प्रयोग से हम जितने अधिक लोगो की मदद हो सके, करेंगे। इससे कभी धनार्जन नही करेंगे और लालची लोगो से इसे बचाकर रखेंगे। आधुनिक रोग जिनमे प्रतिरोधक शक्ति कम हो जाती है, के लिये इसे आजमायेंगे। जिनकी काम शक्ति क्षीण है उन्हे इससे लाभांवित करेंगे। अच्छी कामशक्ति वाले लोगो को अति के लिये इसे कभी नही देंगे। और जब भी नये प्रयोग करेंगे तो मिल के करेंगे। मुझे छोडकर शेष सभी पारम्परिक चिकित्सक है इसलिये वे इस ज्ञान का उपयोग कर रहे है। क्षीण प्रतिरोधक क्षमता वाले एड्स के रोगी इनके पास आकर लाभांवित हो रहे है। मेरे पास यह ज्ञान इसी रुप मे पडा हुआ है। आज इस लेख के माध्यम से आप इसकी कुछ झलक पा रहे है।

मुझे कुछ वर्षो पूर्व दिल्ली मे आयोजित एक विज्ञान सम्मेलन की याद आती है जिसमे एक युवा शोधकर्ता ने इस पर कुछ बाते कही थी। पर हमारे ही देश के वैज्ञानिको ने उसका माखौल उडाया था वही पर। पूरी दुनिया के सामने इसे शोधकर्ता का अन्ध-विश्वास कह दिया। इस सम्मेलन मे विदेशी भी थे। वे उस समय तो खामोश रहे पर फिर उसे विदेश बुला लिया गया। पिछले माह भेजे गये सन्देश मे उस शोधकर्ता ने बताया कि उसे सभी तरह की स्वतंत्रता मिली है और वह इस कार्य का विस्तार कर रहा है। उसे धन भी काफी मिल रहा है। लगता है उसने हमारी तरह कोई प्रण नही किया है। हम तो प्रण से बन्धे है और जानते है कि हमारे देश मे हम कभी भी सम्मानित नही किये जायेंगे लेकिन फिर भी यह पारम्परिक चिकित्सकीय ज्ञान पीढीयो तक आम भारतीयो के काम आता रहेगा। (क्रमश:)

(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)

© सर्वाधिकार सुरक्षित

Comments

किसी चीज का आसानी से विश्वास करना जितना अन्धविश्वास है उतना ही आसानी से अविश्वास कर लेना भी है .
ghughutibasuti said…
यदि आप उसे गोपनीय रखेंगे तो कैसे काम आएगा ?
घुघूती बासूती
हर ज्ञान के दो उपयोग हैं, पैसा कमाना या फिर जनता के लिए उस का सदुपयोग। पर आज पैसा ही अधिक कमाया जा रहा है।

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