अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -62

अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -62 - पंकज अवधिया
‘लाख कोशिशे करके मै थक गया पर गाँव वालो को कण्डोम के इस्तमाल के लिये प्रेरित नही कर पाया। ये तो इनकी ‘किस्मत’ है जो अब तक ‘एडस’ से बचे हुये है।‘ गाडी की पिछली सीट पर बैठे एक युवक ने यह कहा। कुछ देर पहले ही उसने अपनी बिगडी बस से उतरकर हमारी गाडी मे लिफ्ट ली थी। वह किसी सरकारी संगठन मे स्वास्थ्य सलाहकार था। वह स्वयम ही गाँव का था पर पढाई के बाद उसे गाँव वाले गँवार और जाहिल लगते थे। इसीलिये तो लाख कोशिशो के बावजूद वे उसकी बात मानने को तैयार नही थे। मैने उससे कहा कि धीरज से अपनी बात कहो और गाँव वालो के तर्को का जवाब दो। हो सकता है ऐसे मे गाँववाले मान जाये। इस पर युवक कुछ उत्तेजित हो गया और बोला कि मैने सोशल सर्विस की डिग्री ली है। सोशल सर्विस माने समाज सेवा। समाज सेवा की डिग्री!!! मतलब बाजार ने यह भी शुरु कर दिया। पहले धन्ना सेठो के विजीटिंग कार्ड मे समाज सेवक का जिक्र दिखता था अब समाज सेवक का नया रुप मुझे दिखा। समाज सेवा की डिग्री वाला समाज सेवक।

उस दिन सुबह मै एक गाँव से गुजर रहा था तो अचानक ही कुछ बहुत पुराने पेड दिखे। मैने गाडी रुकवायी। पास जाकर देखा कि सेमल के पुराने पेड थे। मैने इतना पुराना सेमल कम ही देखा था इसलिये तस्वीरे लेने लगा। गाँव के एक बुजुर्ग पास आ गये। उन्होने कहा कि यह सौ से भी ज्यादा वर्ष पुराना है। हम गाँव वालो को इसकी महत्ता मालूम है। इसलिये हम इसे नही काटेंगे कभी भी। यह पेड सडक के एकदम किनारे था। गाँव की सडक थी। ऐसे समय मे जब शहर तेजी से भागकर गाँव के पास आ रहा है, मुझे बुजुर्ग के विश्वास पर कुछ सन्देह होता है। मैने ऐसे सैकडो वर्ष पुराने पेडो को अपनी आँखो के सामने कटते देखा है। कभी सडक चौडीकरण के नाम पर तो कभी शहरी विकास के दूसरे नामो पर। फिर भी मैने बुजुर्ग की बात नही काटी। मेरे साथ कुछ पारम्परिक चिकित्सक सफर कर रहे थे। उनमे से एक ने ऊपर की डाल पर लगे मधुमख्खी के एक बडे छत्ते की ओर मेरा ध्यान आकर्षित किया और धीरे से कहा कि “उस” काम के लिये यदि मदरस यानि शहद चाहिये तो एकत्र करवा लीजिये। मुझे “उस” काम के लिये शहद नही चाहिये थी इसलिये मैने उनकी बातो पर ध्यान नही दिया। उस पुराने पेड पर वांडा प्रजाति के दुर्लभ आर्किड लगे हुये थे। बुजुर्ग ने बताया कि यह पुराना पेड असंख्य छोटे-बडे जीवो को आश्रय देता है। पहले यह गाँव जंगल मे था। पर अब तो चारो ओर धान के खेत ही दिखते थे। यह सिरकट्टी आश्रम के मुख्य स्वामी जी का गाँव है। इसीलिये इतने पुराने पेड आज भी हमारे आस-पास बचे हुये है-मुझे बताया गया। छत्तीसगढ का सिरकट्टी आश्रम सभी जानते है। आप इस लेखमाला के पहले के लेखो मे इसका जिक्र पायेंगे। तस्वीरे लेने के बाद हम आगे बढे। काफी दूर चलने के बाद हमे एक बडा पहाड मिला। हमे बताया गया कि ऊपर एक कुंड है जहाँ से साल भर एक धारा के रुप मे जल निकलता रहता है। ऊपर एक गाँव भी है पर वहाँ पैदल ही जाना होगा। गाडी छोडी और चल पडे। गाँव पहुँचने पर एक बुजुर्ग पारम्परिक चिकित्सक मिले गये और उनसे चर्चा होने लगी। बात घूमते-घूमते उस शहद पर भी आयी। पारम्परिक चिकित्सक ने कहा कि हम लोग शहद की जगह नीम के तेल का प्रयोग अधिक करते है। इसके अलावा हम लोग डेढ सौ से अधिक ऐसे तेलो के बारे मे जानते है जो इस कार्य के लिये विशेष रुप से प्रभावी है। ये सभी तेल आस-पास उग रही जडी-बूटियो से बनाये जाते है। अभी हाल ही गाँव मे कुछ शहरी आये थे और उन्होने कण्डोम के इस्तमाल की सलाह दी थी पर जब ये तेल हमारे पास है और सदियो से हम इसका उपयोग कर रहे है तो फिर इस नये प्रबन्ध की क्या जरुरत?

छत्तीसगढ मे पीढीयो से लोग ऐसे तेलो के विषय मे जानते है जिन्हे यदि जननाँगो मे लगाकर मैथुन किया जाये तो गर्भ ठहरने की सम्भावना नही रहती है। ‘सम्भावना नही रहती है’ की जगह मुझे ‘गर्भ नही ठहरता है’ इस वाक्य का प्रयोग करना चाहिये। भले ही कण्डोम के प्रयोग मे गल्ती की कुछ सम्भावना हो पर इन तेलो के प्रभाव से शुक्राणुओ पूरी तरह से मर जाते है और किसी भी तरह से खतरा नही होता। राज्य के पारम्परिक चिकित्सकीय ज्ञान के दस्तावेजीकरण के दौरान मैने नीम के तेल के प्रयोग के बारे मे विस्तार से लिखा। बहुत से वैज्ञानिको ने इसे बिना बहस के खारिज कर दिया। पर मै तो जानता था कि आम लोग इसका इस्तमाल कर रहे है। मै शांत रहा। फिर किसी ने इस प्रयोग को अपनी प्रयोगशाला मे दोहराया और एक शोध-पत्र प्रकाशित किया। इस शोध-पत्र की बडी प्रशंसा की गयी। पर जैसा कि अक्सर होता आया है इसमे कही भी यह उल्लेख नही किया गया कि यह छत्तीसगढ का पारम्परिक ज्ञान है। इसे विदेशी पत्रिका मे प्रकाशित करवाया गया अंग्रेजी मे। आम भारतीय जो इस सरल प्रयोग से अनजान थे, वे अनजान ही बने रहे। नियमानुसार पारम्परिक चिकित्सको के विषय मे इस शोध-पत्र मे उल्लेख करना चाहिये था। इससे शोधकर्ता का कद घट नही जाता। इस शोध परिणाम को हिन्दी मे प्रकाशित करना था या फिर इसे सरल भाषा मे आम लोगो को बताना था। पर ऐसा करने से शोधकर्ता को वो नाम और सम्मान नही मिलता जो विदेशी पत्रिका मे पत्र छपवाने पर मिला। दूसरे को दोष क्यो दे, यह हमारी ही मानसिकता है कि विदेश का ठप्पा ही हमारे ज्ञान को प्रमाणिक घोषित करता है।

ग्रामीण भारत ने इस तरह के तेलो का उपयोग अब कम हो रहा है। इन तेलो के साथ कुछ मूलभूत समस्याए है। जैसे नीम का तेल ले। इसमे इतनी अधिक दुर्गन्ध आती है कि नयी पीढी के लोग इससे दूर भागते है। गाँव के बुजुर्ग कहते है कि हमे तो कोई बास नही आती है। उनका कहना सही है। वे बचपन से नीम के तेल का प्रयोग रोजमर्रा के जीवन मे कर रहे है। इसलिये उन्हे इसकी आदत हो गयी है। गन्ध की समस्या ज्यादातर तेलो के साथ है। इनमे जो वनस्पतियाँ डाली जाती है यह गन्ध उन्ही की होती है। पारम्परिक चिकित्सक बताते है कि शहद के साथ विभिन्न जडी-बूटियो को मिलाकर भी इसी तरह उपयोग किया जा सकता है। इस कार्य के लिये उपयोग होने वाले सभी चीजे अच्छी स्नेहक (लुब्रीकेंट) है। यह इसका सकारात्मक पहलू है। गुप्त रोगो की चिकित्सा मे माहिर पारम्परिक चिकित्सक कहते है कि इन तेलो का प्रयोग यौन रोगो से रक्षा करता है। अर्थात कण्डोम के जो लाभ है वे इनके प्रयोग से भी मिल जाते है। फिर क्यो वे शहरियो की बातो मे आये और कण्डोम का इस्तमाल करे? उनका तर्क सही है।

जब मै इस विषय मे गहराई से सोचता हूँ तो मुझे देश के युवा वैज्ञानिको की याद आती है जो कुछ नया करने के लिये मुझसे सम्पर्क करते रहते है। वे नये प्रयोग से इन तेलो से गन्ध को समाप्त कर सकते है। उन्हे ध्यान रखना होगा कि प्रभाव बिल्कुल न प्रभावित हो। इन तेलो को नयी पीढी मे लोकप्रिय करने के लिये मै कुछ नये प्रयोग करना चाहता हूँ। मुझे लगता है कि इसमे कुछ ऐसी वनस्पतियाँ मिला दी जाये जो जननाँगो (नर और मादा दोनो) के लिये हितकर हो और मैथुन की प्रक्रिया मे सकारात्मक प्रभाव डाले तो लोग इसे सहजता से आजमा लेंगे। फिर क्यो न एक प्रकोष्ठ बनाकर इस दिशा के काम शुरु किया जाये। पारम्परिक चिकित्सक इसके साथ जुडे और बेरोजगार घूम रहे शिक्षित मिलकर शोध करे और फिर ग्रामीण बेरोजगार इन तेलो का निर्माण करे। राज्य के साथ मिलकर इन्हे बेचे और लाभ को सभी को बाँटे। यह सब दिखता सरल है पर आप भी जानते है कि कई तरह की बाधाए है। सबसे पहली तो हमारे पारम्परिक चिकित्सको की सुनेगा कौन। फिर कण्डोम का एक अंतरराष्ट्रीय बाजार है। भारत मे लोगो को डराना और फिर भयादोहन करके इसे खपाना बाजार का एक हिस्सा है। तेल जितने भी उपयोगी हो पर बाजार मे उसे स्थापित होने मे न जाने कितने वर्ष लग जाये। एक बार तेल हाथ मे आने पर उसमे एक-दो नयी चीजे मिलाकर कही विदेशी कम्पनियाँ नया उत्पाद न ले आये। और फिर विज्ञापन मे कहे कि भारत का नीम कैसर पैदा कर सकता है, इसलिये विदेश मे फिलटर्ड गंगा जल से सींचे नीम के पेड से रोबोट द्वारा साफ मशीनी हाथो से निकाला गया तेल उपयोग करे। ------ पर मैने उम्मीद नही छोडी है।

गाडी मे बैठे समाज सेवा की डिग्री वाले युवक ने बताया कि पूरे राज्य मे हर गाँव मे कार्यकर्ता नियुक्त किये जा रहे है। ये गाँव वालो को बता रहे है कि आपका ज्ञान बेकार है। उसे भूल जाओ। दातून की जगह ब्रश करो। आयोडीन का नमक खाओ। चोट लगे तो हल्दी नही डेटाल लगाओ, आदि-आदि। मै सब कुछ सुनता रहा। उसने आगे कहा कि हमे दुनिया भर से पुरुस्कारो से नवाजा जा रहा है। अब इस माडल को देश भर मे लागू किया जायेगा। उसकी बात समाप्त होने के बाद मैने उसे अपने कार्यो के बारे मे बताना आरम्भ किया। वह कुछ झेपा। उसने बहुत से प्रश्न किये। एक प्रश्न था कि दिल्ली के वैज्ञानिको ने तीन करोड पन्नो का डेटाबेस बनाने मे करोडो फूँक दिये। आपकी एक करोड पन्नो की मधुमेह की रपट और लगभग इतने ही विस्तार से लिखी गयी दूसरे रपटो के लिये तो आपको भी जम कर पैसे मिले होंगे। मैने उससे कहा कि मैने अब तक किसी से एक पैसा भी नही लिया है। और जो किया है वह तुम्हारे सामने है। उसे विश्वास नही हुआ। मैने कह ही दिया कि इस देश मे ऊपर बैठे मुठ्ठी भर लोग ही जैव-विविधता और पारम्परिक ज्ञान के नाम पर मौज कर रहे है और जमीनी स्तर पर आर्थिक मदद की बाट जोह रहे हजारो उत्साही एकलव्य की तरह अपने बूते पर काम कर रहे वैज्ञानिको का गला घोट रहे है। बिना आर्थिक मदद लिये मै यह काम इसलिये जारी रखे हुये हूँ कि कम से कम इससे नयी पीढी को कुछ सीखने मिल जाये और वे गाँवो मे बसने वाले असली भारत के लिये कुछ सोच सके।

मैने उसे तेलो के बारे जानकारी दी और कहा कि गाँव वालो की “किस्मत” उन्हे नही बचा रही है एडस से बल्कि यह उनका पारम्परिक ज्ञान है। अब तक वह युवक अपनी खाल उतार चुका था। उसने अपनी माँ के लिये मधुमेह की जडी-बूटी पूछी और पत्नी के लिये सफेद दाग (ल्यूकोडर्मा) के लिये कुछ उपाय। मैने गाडी रुकवायी और उसे औषधीय धान और कोदो दिया। उससे कहा कि अभी तो इसे उपयोग करो फिर अगली बार किसी पारम्परिक चिकित्सक के पास चलेंगे परिवारजनो को लेकर। उसने पूछा, अरे, ये आप कहाँ से लाये? मैने कहा, उसी सुदूर गाँव से जहाँ से तुम लौट रहे हो। तुम सीखाने गये थे इसलिये खाली हाथ लौटे हो, मै सीखने गया था इसलिये मेरी झोली भरी हुयी है। (क्रमश:)

(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)

© सर्वाधिकार सुरक्षित




Updated Information and Links on March 10, 2012

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Comments

बड़ी सुंदर जानकारी. सरकटटी आश्रम की बात आपने कही है. यह है कहाँ और यह नाम क्यों पड़ा.
admin said…
उपयोगी एवं सा
र्थक आलेख, बधाई।
हमेशा की तरह बहुत उपयोगी जानकारी दीहै। सच में बहुत दुख होता है जब हम अपने ही देश के बहूमुल्य ज्ञान को मिटता हुआ देखते हैं।
आप से हमेशा कुछ नया ज्ञान मिलता है। मैं ने अपने एक वरिष्ठ साथी से सुना था कि बस्तर में आदिवासी कुछ जड़ी बूटियों का प्रयोग करते थे। जिन से दाढ़ी, मूंछ और शरीर के कुछ अन्य स्थानों पर बालों का उगना हमेशा के लिए बंद हो जाता था और त्वचा पर कोई विपरीत प्रभाव भी नहीं पड़ता था। क्या ऐसा संभव है, या आप की जानकारी में है?

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