अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -66

अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -66 - पंकज अवधिया

मेरा ड्रायवर जैसे ही एक तालाब मे नहाने के लिये बढा स्थानीय लोगो ने उसे रोक दिया और कहा कि इस तालाब मे मत नहाओ, नही तो पागल हो जाओगे। यह बात मुझे खटकी। मैने इस बारे मे विस्तार से जानना चाहा तो लोगो ने जानकारी होने से मना कर दिया। बस इतना ही कहा कि बुजुर्गो ने हमे चेताया है इसलिये हम इसका पालन करते है और निस्तारी के लिये इसका प्रयोग करते है। हम अपने जानवरो को भी इसमे नही जाने देते है। क्या कभी कोई सचमुच पागल हुआ है? इंसान न सही कोई जानवर ही? मैने पूछा पर लोगो के चेहरे मे आ रहे भावो से समझ गया कि पुरानी मान्यताओ के आधार पर ऐसा माना जा रहा है। एक बार तो मन हुआ कि पानी मे कूद पडूँ और इस मान्यता को झुठला दूँ पर दूसरे ही पल सोचा कि लोगो की भावनाओ को आहत करना ठीक नही है। ड्रायवर भी कुछ सहमा-सा दिखा। हम फिर से आने की बात कहकर आगे बढ गये। मैने अपने डेटाबेस मे एक और तालाब का नाम जोड लिया। पिछले एक दशक से भी अधिक समय से मै छत्तीसगढ के ऐसे तालाबो और पोखरो की सूची तैयार कर रहा हूँ जिनसे इस तरह की बाते जुडी हुयी है। छत्तीसगढ के इतिहासकारो ने भी ऐसे तालाबो के विषय मे लिखा है पर मुश्किल यह है कि इस जानकारी को अपडेट नही किया गया है। इतिहासकारो द्वारा प्रकाशित ग्रंथो के आधार पर उनके बताये स्थानो मे मै अक्सर जाता रहता हूँ पर ज्यादातर निराशा ही हाथ लगती है। मसलन दुर्ग जिले मे एक तालाब का जिक्र मिलता है जिसमे नहाने से लोग पागल हो जाते थे। इसे “बहया तालाब” अर्थात पागलो का तालाब कहा जाता था। कोई इसमे नहाता नही था। मैने जब उस स्थान पर जाकर तालाब की पूछ-परख की तो वह तालाब नही मिला। लोग मेरी बातो को सुनकर हँसने लगे। कुछ जानकारी नही मिली पर यह भी एक जानकारी थी। मैने इसे अपने डेटाबेस मे दर्ज कर लिया।

मेरे एक पत्रकार मित्र ने एक खबर प्रकाशित की थी कि राजधानी से सौ-सवा सौ किमी की दूरी पर एक तालाब है जिसमे नहाने से श्वेत कुष्ठ (ल्यूकोडर्मा) के रोगियो को लाभ होता है। गाँव के लोग जल का प्रयोग नियमित करते है पर शहर के लोग पीपो मे जल भरकर ले जाते है। मै खोजता-खोजता उस तालाब के पास पहुँच ही गया। पुरानी पीढी के लोगो ने इस बात की पुष्टि की। उन्होने कहा कि आँतरिक दवाओ के साथ इस जल का उपयोग उपचार मे मदद करता है। पर केवल इस जल के प्रयोग से रोगी को लाभ नही मिलता है। उन्होने यह भी कहा कि धीरे-धीरे इसका असर कम होता जा रहा है। उनके बचपन मे इसका असर अधिक था। आमतौर पर ऐसा माना जाता है कि जिन जल स्त्रोतो मे त्वचा रोग को ठीक करने की क्षमता होती है, उसमे गन्धक (सल्फर) की मात्रा होती है। यही मात्रा उपचार मे अहम भूमिका निभाता है। मुझसे भी जब लोग इसका वैज्ञानिक कारण पूछते थे तो मै यही रटारटाया जवाब दे देता था।

छात्र जीवन मे जब मैने इन्द्रावती नदी के किनारे लम्बी यात्रा की तो साथ चल रहे पारम्परिक चिकित्सक ने निर्मली के पुराने पेड दिखाये और बताया कि माँ प्रकृति ने अनोखी व्यवस्था कर रखी है। इसके फल गिरते है और पानी को साफ करते जाते है। इस तरह सदियो से नदी साफ है। कुछ वर्षो पहले मै फिर उसी भाग मे गया तो मुझे निर्मली के पेड नही दिखे। विकास के नाम पर इन्हे काट दिया गया था। बहुत से पेड जलाऊ लकडी के रुप मे उपयोग कर लिये गये। बचे हुये पेड फल तो पैदा कर रहे थे पर उन्हे एकत्र कर लिया जा रहा था क्योकि औषधी के रुप मे उसकी माँग बढती जा रही है। अब नदी साफ कैसे हो? जो लोग इस नदी को दशको से देख रहे है वे इसकी स्वच्छता मे आये अंतर को साफ देख पा रहे है। आज बस्तर मे इस नदी के पास एक बडा भारी स्टील प्लांट लगने वाला है। नदी का दूषित होना तय है। ऐसे मे निर्मली की कमी बहुत खल रही है। अब तो बचे हुये भाग मे निर्मली के व्यापक रोपण की जरुरत है ताकि भावी पीढी को थोडा साफ ही सही पर पीने लायक पानी तो मिल सके। औद्योगिक इकाईयाँ लगाने वाले तो खानापूर्ति के लिये यूकिलिप्टस जैसे विदेशी पेडो को रोप देंगे। नदी साफ रहे या नही, इससे उन्हे क्या?

मधुमेह के पारम्परिक ज्ञान के विषय मे पारम्परिक चिकित्सको से चर्चा करते समय मुझे रोग की अन्तिम व्यवस्था मे प्रयोग की जाने वाली वनस्पतियो के साथ नदियो के जल के लाभकारी गुणो की जानकारी मिली। मूल पारम्परिक ज्ञान मे सुबह की औषधी लेने के बाद रोगी को पैरी नदी का ताजा जल देने की बात बतायी गयी। दोपहर मे महानदी और शाम को इन्द्रावती नदी का। ये नदियाँ उस स्थान से दूर थी जहाँ के पारम्परिक चिकित्सक इस विषय मे बता रहे थे। उन्होने छत्तीसगढ की 50 से अधिक छोटी-बडी नदियो और तालाबो के जल के औषधीय गुणो को बताया और सलाह दी कि अच्छे वैद्य को इन स्त्रोतो से लाये गये जल को वर्ष भर प्रयोग के लिये सुरक्षित रखना चाहिये। क्या पता कब जरुरत आन पडे। अपने देश मे गंगा जल ही आम तौर पर लोग घरो मे रखते है। जल एक समान दिखे पर इसकी तासीर अलग-अलग होती है। उन्होने बताया कि पैरी नदी मैनपुर के पास से निकलती है तब वहाँ उसके औषधीय गुण अलग होते है। जब वह बारुका के पास आती है तो एकदम अलग हो जाते है और जब राजिम मे महानदी के साथ मिलती है तो फिर बदल जाते है। मैने उन्हे इन्द्रावती और निर्मली के सम्बन्ध मे सुनी गयी बाते बतायी तो वे बोले कि केवल एक वनस्पति का योगदान नही होता। बहुत सी वनस्पतियाँ और मिट्टीयाँ ये भूमिका निभाती है। फिर भी माँ प्रकृति की व्यवस्था को इतनी आसानी से नही समझा जा सकता। प्राकृतिक व्यवस्था को उजाडकर उसके बदले कुछ पेडो को रोपकर भले ही आधुनिक मानव सोच ले कि उसने उस जगह को फिर आबाद कर दिया पर वास्तव मे ऐसा नही होता। माँ प्रकृति की व्यवस्था को जब फिर से स्थापित नही किया जा सकता तो सही कदम यही है कि उसे छेडा ही न जाये।

ऊपर मैने मूल पारम्परिक ज्ञान मे नदियो के जल के प्रयोग की बात कही है। व्यवहारिक जीवन मे इसका उपयोग नही होता है। आमतौर मे कुए के जल के प्रयोग की सलाह दे दी जाती है। अब सभी रोगियो के बस की बात तो है नही कि वे अलग-अलग नदियो का जल एकत्र करे। कोई सम्पन्न रोगी यह कर भी ले तो जल की घटती गुणवत्ता से पारम्परिक चिकित्सक चिंतित है। लोग बढ रहे है, जंगल कम हो रहे है और बची-खुची कसर औद्यौगिक इकाईयाँ निकाल रही है। मूल पारम्परिक ज्ञान व्यवहार मे नही है। मेरे डेटाबेस मे है पर जब नदियाँ ही नही बचेंगी तो यह ज्ञान आगामी पीढी के लिये भला क्या काम आयेगा?

पागल कर देने वाले तालाबो के विषय मे पारम्परिक चिकित्सको का अपना मत है। वे कहते है कि ऐसे तालाबो के आस-पास उपस्थित पेड जल को प्रभावित करते रहे होंगे। उन्होने बेल का उदाहरण दिया। बेल के सभी फल और सभी पेड एक जैसे नही होते है। कुछ फलो को खाने से दिमागी तौर पर नुकसान हो सकता है। ऐसे फलो को स्थानीय भाषा मे ‘मताये बेल’ कहते है। जब ऐसे पेड किसी तालाब के आस-पास बडी मात्रा मे होते है और उनकी शाखाए, पत्तियाँ, फल आदि तालाब मे साल भर गिरते रहते है तो जल की गुणवत्ता प्रभावित होती है। ऐसे दो सौ से अधिक प्रकार के पेडो के बारे मे जानकारी है उनके पास। आमतौर पर पीपल, डूमर और बरगद को ही तालाबो के पास लगाया जाता है। ये जल को शुद्ध करते है। बहुत से जंगली पेड ऐसे फल पैदा करते है जो मछलियो के लिये अभिशाप बन जाते है। बुजुर्ग कभी भी ऐसे पेडो को तालाबो के आस-पास उगने नही देते है। आजकल वे भी बेबस है क्योकि सरकार तालाबो के किनारे रतनजोत लगा रही है जो जहरीला पौधा है। इसके फल मछलियो और मनुष्यो के लिये अभिशाप है।

पारम्परिक चिकित्सको ने कहा कि जब भी ऐसे तालबो के पास जाओ जिनसे पागल होने की बात जुडी हो, आस-पास घूमकर वनस्पतियो की जानकारी एकत्र करो। जवाब अपने आप मिल जायेगा। बहुत से मामलो मे यह सीख काम आयी पर कुछ मामलो मे कारण समझ नही आया। कल ही मै अपना डेटाबेस देख रहा था। अभी तक राज्य के सैकडो तालाबो और दूसरे जलस्त्रोतो के विषय मे जानकारी एकत्र हो चुकी है जो 40 से अधिक मानव रोगो और 15 से अधिक पौध रोगो की चिकित्सा मे उपयोगी माने जाते है। बहुत से ऐसे तालाबो की जानकारी है जहाँ रजस्वला महिलाओ का नहाना प्रतिबन्धित है। बहुत से तालाबो के विषय मे यह जानकारी उपलब्ध है कि किस मौसम मे दवा के लिये जल का एकत्रण किया जाना चाहिये और किस मौसम मे नही। इस ज्ञान का कोई अंत नही दिखता है।(क्रमश:)

(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)

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Comments

किसी भी ज्ञान का कोई अंत नहीं। पर जो कुछ आप कर रहे हैं वह भी एक अनोखा परिणाम लेकर आएगा।
आप अपनी यात्रा में सफल रहें. हाँ इंद्रवती नदी के पानी के बारे में हमें थोड़ी आशंका है. उसका पानी तो हमेशा ही मटमैला हुआ करता था जबकि पैरी एकदम निर्मल.

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