अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -61
अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -61 - पंकज अवधिया
पिछले दिनो एक बडा ही विचित्र ईमेल सन्देश आया। यह सन्देश एक फिल्म निर्माता का था जो डाक्यूमेंट्री फिल्म बनाते है। उन्होने गूगल सर्च मे स्नेक और छत्तीसगढ शब्द खोजे तो मेरे बहुत से लेख उन्हे दिख गये। मुझे सर्प विशेषज्ञ मानकर उन्होने मुझसे अपनी फिल्म मे सहायता की मदद की। मुझे बताया गया कि बस आपको पारम्परिक सर्प विशेषज्ञ से मिलवाना है जिनके पास जहरीले साँप हो। साँपो की तस्वीरे उतारने के बाद फिर उन्हे लेकर जंगल मे भ्रमण करना है। मैने हामी भर दी। ऐसे बहुत से फिल्मकार पहले भी आते रहे है। मै सर्प विशेषज्ञ तो हूँ नही इसलिये कुछ नया सीखने की लालसा मे ऐसे फिल्मकारो के साथ चला जाता हूँ। जब नियत तिथि पर वे आये और हम एक पारम्परिक सर्प विशेषज्ञ के पास पहुँचे तो वहाँ फिल्मकार के असली रंग दिखने लगे।
पारम्परिक सर्प विशेषज्ञ के पास तीन कोबरा थे। उनकी तस्वीरे लेने के बाद हमसे पास के जंगल मे चलने को कहा गया। जैसे ही जंगल शुरु हुआ गाडी रुकवा दी गयी। अब सर्प विशेषज्ञ से कहा गया कि हर पेड के नीचे एक-एक करके साँपो को छोडा जाये और फिर कुछ देर मे वापस पिटारे मे डाल दिया जाये। सर्प विशेषज्ञ ने ऐसा ही किया। एक पेड के बाद दूसरा और दूसरे के बाद तीसरा, घंटो तक यह क्रम चलता रहा। साँप पिटारी से निकलते और फिर जैसे ही आस-पास की झाडियो मे जाते उन्हे वापस पकड लिया जाता। फिल्मकार बडे ध्यान से फिल्माँकन करते रहते। भूख-प्यास से हमारा बुरा हाल हो रहा था। सर्प विशेषज्ञ भी थकने लगे। साँपो का भी इस परेड से बुरा हाल था। सर्प विशेषज्ञ अपने से अधिक साँपो को लेकर चिंतित थे। वे बार-बार सर्प देवता से क्षमा माँग रहे थे। मुझे भी अपनी भूल पर पछतावा हो रहा था। अब तो साँप पिटारे से निकलने को ही तैयार नही होते थे। इन सब से फिल्मकार खुश हो रहे थे। एक पेड के नीचे साँप निढाल से हो गये। फिल्मकार ने उस पेड के बारे मे पूछा और फिर हम वापस चल पडे। रास्ते मे मैने इस विचित्र फिल्म के विषय मे पूछा तो उन्होने कुछ नही कहा। कुछ देर की खामोशी के बाद बोले कि मुझे ऐसे पेड की तलाश थी जिसके नीचे कोबरा जैसे सर्प निढाल हो जाते है। हमने अपना माथा ठोक लिया। जिसे पेड का असर समझा जा रहा था दरअसल वह साँप की थकान का परिणाम था। वह पेड सिरिस का था। इसमे तो साँप मजे से रहते है। उस फिल्मकार ने बताया कि एक विदेशी वैज्ञानिक के लिये यह फिल्म तैयार हो रही है। जिस पेड को लोग अभी तक नही खोज पाये मैने एक दिन मे खोज लिया-उसने घमंड से भरकर कहा। सर्प विशेषज्ञ को अब रहा नही गया। उसने असली बात कह दी। फिल्मकार अपनी बात पर अड गये। लम्बी बहस के बाद यह तय हुआ कि कल सुबह फिर से साँपो को सिरिस के पेड के नीचे रखा जाये।
दूसरे दिन हम वापस उसी स्थान पर पहुँचे। पिटारे मे डाले गये मेढको को खाने और विश्राम के बाद तीनो कोबरा फिर से सक्रिय हो गये। उनके गुस्से को काफी दूर से फुफकार के रुप मे सुना जा सकता था। पेड के नीचे तीनो को एक साथ छोडा गया। पलक झपकते ही एक ऊपर चढा और जब तक हम पकडते आँखो से ओझल हो गया। शेष दो बिना प्रभावित हुये सक्रिय रहे। फिल्मकार समझ गये कि असलियत क्या है। सर्प विशेषज्ञ ने कहा कि बहुत सारे ऐसे पेड है जंगल मे जिसे आप तलाश रहे है। अवधिया जी को हमने इनका असर दिखाया है। यह ज्ञान हमे गुरुओ से मिला है। इसलिये हम यूँ ही किसी को नही बता देते। मैने फिल्मकार से कहा कि यदि आपको सचमुच जानकारी चाहिये तो आप राष्ट्रीय जैव-विविधता बोर्ड के पास सम्पर्क कर उनसे अनुमति प्राप्त करे और फिर यह सुनिश्चित करे कि सर्प विशेषज्ञ के ज्ञान का यदि कभी व्यवसायिक उपयोग करेंगे तो नियमानुसार हर बार सर्प विशेषज्ञ को भी उसका अंश मिलेगा। नियम-कानून की बात सुनकर वे बोले, मै आप दोनो को एक-एक लाख रुपये दूंगा यदि आप वह पेड दिखा दे। इस बार जवाब सर्प विशेषज्ञ ने दिया। उन्होने कहा कि हम अपना ज्ञान बेचते नही। और जो इसे खरीदने का लालच देता है उससे तो बात ही नही करते। चलिये अब वापस चले। सर्प विशेषज्ञ के शब्दो मे कठोरता थी। अपनी दाल न गलते देखकर फिल्मकार ने वापसी मे ही भलाई समझी।
फिल्मकार को विदा करने के बाद सर्प विशेषज्ञ से लम्बी चर्चा हुयी। उन्होने बताया कि आजकल कोलिहा अर्थात लोमडियो का बहुत शिकार हो रहा है। उसकी खाल मुँह माँगे दाम पर खरीदी जा रही है। जंगल मे इनकी संख्या बहुत है और शाम होते ही ये गाँवो के पास दिख जाती है। व्यापारियो के एजेंट घूम रहे है और खाल खरीद रहे है। मैने अखबार मे कभी इस तरह के व्यापार के बारे मे नही सुना था। आखिर क्यो लोमडी के पीछे पडे है ये लोग? मै सोचता रहा। सरकारी विभागो मे पता किया तो उन्हे भी इस बात की खबर नही थी। बाघ या तेन्दुए की खाल की बात होती तो शायद वे सक्रिय होते। मैने सर्प विशेषज्ञ से ही पता लगाने को कहा। व्यापारियो से भी पूछताछ की। अब इंटरनेट मे यह सुविधा तो मिली ही है कि छदम खरीददार बनके व्यापारिक पूछताछ की जा सकती है। जल्दी ही राज खुल गया। देश के महानगरो मे एक विशेष तरह के जूतो का प्रचलन बढ रहा है। इन जूतो मे लोमडी की खाल का प्रयोग होता है। यह दावा किया जाता है कि इस जूते को पहनने से बवासिर (पाइल्स) आराम हो जाता है। मै यह जानकर भौचक्क रह गया। लोग भी क्या-क्या कर बैठते यह जाने बिना कि सचमुच ऐसे जूते उपयोगी है भी कि नही। कुछ व्यापारियो ने दावा किया कि प्राचीन ग्रंथो मे यह लिखा है। कौन-से ग्रंथ मे? यह जानकारी वे नही दे पाये। आजकल तो सभी ग्रंथ और उनमे लिखी बाते डिजिटल रुप मे हमारे पास है। चुटकियो मे पता लग सकता है जो जानना चाहे। जूते भी नही मिले क्योकि खुले बाजार मे ये बिक नही रहे है।
पारम्परिक चिकित्सको से चर्चा हुयी तो वे बडे नाराज हुये और बोले कि बवासिर जैसे साधारण रोगो के लिये किसी निरीह प्राणी की हत्या क्यो कर रहे है ये व्यापारी? लोमडी को मारना घोर अपराध है। मैने अपने लेखो के माध्यम से बवासिर के हजारो उपयोगी नुस्खो का दस्तावेजीकरण किया है। इन नुस्खो से असंख्य लोग लाभान्वित हो चुके है और होते रहेंगे। इन नुस्खो मे बबूल की कच्ची फलियो के सरलतम प्रयोग से लेकर सौ से अधिक प्रकार की वनस्पतियो से तैयार मिश्रण भी है। इनका प्रयोग खान-पान मे नियंत्रण माँगता है। अब आप मसालेदार और तला-भुंजा खाते रहे, एक जगह बैठे भी रहे तो भला कैसे केवल औषधी इस रोग से छुटकारा दिलवा पायेगी?
लोमडी की खाल से बने जूतो के विषय मे आपके पास कोई जानकारी हो तो बताये। हम आप की जागरुकता ही इस निरीह प्राणी की रक्षा कर सकती है। यदि आप किसी को बवासिर के लिये इसका प्रयोग करते देखे तो इस लेख के विषय मे बताइये। मेरा पता दीजिये और बवासिर से मुफ्त मे छुटकारा पाइये। दूसरे प्राणियो की तरह माँ प्रकृति ने लोमडी की भी एक विशेष भूमिका निर्धारित की है। जंगल के सफाई कर्मचारी के रुप मे इसकी सेवा हमारी धरती के लिये जरुरी है। यदि हम इन जैसे प्राणियो को ऐसे ही खत्म करते गये थे वह दिन दूर नही जब हमे साक्षात मौत का सामना करना पडे। बवासिर तो छोटी-मोटी बात है।
कुछ समय पूर्व मैने अपने एक शोध लेख के माध्यम से भालुओ पर हो रहे अत्याचार के विषय मे पर्यावरणप्रेमियो का ध्यान आकर्षित किया था। इस लेखमाला के माध्यम से मै एक बार फिर इसकी चर्चा करना चाहूंगा। मुझे एक पारम्परिक चिकित्सक से उपहार के तौर पर एक तेल प्राप्त हुआ। मुझे बताया कि नर जननाँग मे इसका बाहरी प्रयोग कामोत्तेजक है। पारम्परिक चिकित्सक ने इसकी कीमत बहुत अधिक बतायी। यह कैसा तेल है? इसे कैसे बनाया गया? जब मुझे इसके बारे मे बताया गया तो मेरे होश उड गये। भालुओ मे समागम बहुत लम्बा चलता है। ऐसे समागमो की प्रतीक्षा की जाती है। और फिर चरम पर भालूओ को मारकर उनके जननाँग को अलग कर लिया जाता है। इससे तेल बनाया जाता है। यह घटना आपको चीन के बाजारो मे बिकने वाले बाघ के लिंग के सूप की याद दिलाती होगी जिसका प्रयोग भी कामोत्तेजना के लिये किया जाता है। दुनिया भर मे इस सूप मे खिलाफ आवाज उठी और इस पर प्रतिबन्ध लगाने की बात की गयी। पर भालुओ के लिंग के ऐसे उपयोग की जानकारी कही नही मिलती है। एक भालू से एक लिंग यानि अधिक तेल के लिये बडी संख्या मे भालुओ की मौत। मैने तुरंत इस पर लेख लिखा और शाम तक बाटेनिकल डाट काम के माध्यम से यह दुनिया भर मे दिखने लगा। इस पर व्यापक प्रतिक्रिया हुयी। इंटरनेट ने जबरदस्त औजार हमे उपलब्ध करवा दिया है कम समय मे दुनिया तक अपनी बात पहुँचाने का। मैने लेख मे लिखा कि जिन्होने इस तेल को आजमाया उनमे से एक को भी वह असर नही दिखा जिसका दावा किया गया था। यह महज पैसा कमाने के लिये लोगो को बेवकूफ बनाया जा रहा था। लेख लिखने से पहले मैने पारम्परिक चिकित्सक से इसके बारे मे कडे शब्दो मे पूछा तो उन्होने स्वीकारा कि इसे उन्होने नही बनाया है। ये व्यापारियो से उन तक पहुँचा है और अच्छे कमीशन के लालच मे वे आ गये। मैने उन्हे चेताया कि पारम्परिक चिकित्सक का नाम आप खराब न करे और इस तेल की बिक्री को हतोत्साहित करे। जल्दी नही पर देर से ही सही यह तेल बिकना बन्द हो गया। पर तब तक न जाने कितने भालू बेवजह ही अपनी जान गँवा बैठे।
मेरा इतना सब लिखना बहुत बार व्यर्थ लगता है पर भालू वाली घटना से ऐसा लगा कि भले ही देर से परिणाम मिले पर मुझे सतत लिखना चाहिये और इस पीढी के अलावा आगामी पीढी के लिये अपने विचार लेखो के रुप मे सहेजने चाहिये। आशा है आप भी इससे सहमत होंगे। (क्रमश:)
(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)
© सर्वाधिकार सुरक्षित
पिछले दिनो एक बडा ही विचित्र ईमेल सन्देश आया। यह सन्देश एक फिल्म निर्माता का था जो डाक्यूमेंट्री फिल्म बनाते है। उन्होने गूगल सर्च मे स्नेक और छत्तीसगढ शब्द खोजे तो मेरे बहुत से लेख उन्हे दिख गये। मुझे सर्प विशेषज्ञ मानकर उन्होने मुझसे अपनी फिल्म मे सहायता की मदद की। मुझे बताया गया कि बस आपको पारम्परिक सर्प विशेषज्ञ से मिलवाना है जिनके पास जहरीले साँप हो। साँपो की तस्वीरे उतारने के बाद फिर उन्हे लेकर जंगल मे भ्रमण करना है। मैने हामी भर दी। ऐसे बहुत से फिल्मकार पहले भी आते रहे है। मै सर्प विशेषज्ञ तो हूँ नही इसलिये कुछ नया सीखने की लालसा मे ऐसे फिल्मकारो के साथ चला जाता हूँ। जब नियत तिथि पर वे आये और हम एक पारम्परिक सर्प विशेषज्ञ के पास पहुँचे तो वहाँ फिल्मकार के असली रंग दिखने लगे।
पारम्परिक सर्प विशेषज्ञ के पास तीन कोबरा थे। उनकी तस्वीरे लेने के बाद हमसे पास के जंगल मे चलने को कहा गया। जैसे ही जंगल शुरु हुआ गाडी रुकवा दी गयी। अब सर्प विशेषज्ञ से कहा गया कि हर पेड के नीचे एक-एक करके साँपो को छोडा जाये और फिर कुछ देर मे वापस पिटारे मे डाल दिया जाये। सर्प विशेषज्ञ ने ऐसा ही किया। एक पेड के बाद दूसरा और दूसरे के बाद तीसरा, घंटो तक यह क्रम चलता रहा। साँप पिटारी से निकलते और फिर जैसे ही आस-पास की झाडियो मे जाते उन्हे वापस पकड लिया जाता। फिल्मकार बडे ध्यान से फिल्माँकन करते रहते। भूख-प्यास से हमारा बुरा हाल हो रहा था। सर्प विशेषज्ञ भी थकने लगे। साँपो का भी इस परेड से बुरा हाल था। सर्प विशेषज्ञ अपने से अधिक साँपो को लेकर चिंतित थे। वे बार-बार सर्प देवता से क्षमा माँग रहे थे। मुझे भी अपनी भूल पर पछतावा हो रहा था। अब तो साँप पिटारे से निकलने को ही तैयार नही होते थे। इन सब से फिल्मकार खुश हो रहे थे। एक पेड के नीचे साँप निढाल से हो गये। फिल्मकार ने उस पेड के बारे मे पूछा और फिर हम वापस चल पडे। रास्ते मे मैने इस विचित्र फिल्म के विषय मे पूछा तो उन्होने कुछ नही कहा। कुछ देर की खामोशी के बाद बोले कि मुझे ऐसे पेड की तलाश थी जिसके नीचे कोबरा जैसे सर्प निढाल हो जाते है। हमने अपना माथा ठोक लिया। जिसे पेड का असर समझा जा रहा था दरअसल वह साँप की थकान का परिणाम था। वह पेड सिरिस का था। इसमे तो साँप मजे से रहते है। उस फिल्मकार ने बताया कि एक विदेशी वैज्ञानिक के लिये यह फिल्म तैयार हो रही है। जिस पेड को लोग अभी तक नही खोज पाये मैने एक दिन मे खोज लिया-उसने घमंड से भरकर कहा। सर्प विशेषज्ञ को अब रहा नही गया। उसने असली बात कह दी। फिल्मकार अपनी बात पर अड गये। लम्बी बहस के बाद यह तय हुआ कि कल सुबह फिर से साँपो को सिरिस के पेड के नीचे रखा जाये।
दूसरे दिन हम वापस उसी स्थान पर पहुँचे। पिटारे मे डाले गये मेढको को खाने और विश्राम के बाद तीनो कोबरा फिर से सक्रिय हो गये। उनके गुस्से को काफी दूर से फुफकार के रुप मे सुना जा सकता था। पेड के नीचे तीनो को एक साथ छोडा गया। पलक झपकते ही एक ऊपर चढा और जब तक हम पकडते आँखो से ओझल हो गया। शेष दो बिना प्रभावित हुये सक्रिय रहे। फिल्मकार समझ गये कि असलियत क्या है। सर्प विशेषज्ञ ने कहा कि बहुत सारे ऐसे पेड है जंगल मे जिसे आप तलाश रहे है। अवधिया जी को हमने इनका असर दिखाया है। यह ज्ञान हमे गुरुओ से मिला है। इसलिये हम यूँ ही किसी को नही बता देते। मैने फिल्मकार से कहा कि यदि आपको सचमुच जानकारी चाहिये तो आप राष्ट्रीय जैव-विविधता बोर्ड के पास सम्पर्क कर उनसे अनुमति प्राप्त करे और फिर यह सुनिश्चित करे कि सर्प विशेषज्ञ के ज्ञान का यदि कभी व्यवसायिक उपयोग करेंगे तो नियमानुसार हर बार सर्प विशेषज्ञ को भी उसका अंश मिलेगा। नियम-कानून की बात सुनकर वे बोले, मै आप दोनो को एक-एक लाख रुपये दूंगा यदि आप वह पेड दिखा दे। इस बार जवाब सर्प विशेषज्ञ ने दिया। उन्होने कहा कि हम अपना ज्ञान बेचते नही। और जो इसे खरीदने का लालच देता है उससे तो बात ही नही करते। चलिये अब वापस चले। सर्प विशेषज्ञ के शब्दो मे कठोरता थी। अपनी दाल न गलते देखकर फिल्मकार ने वापसी मे ही भलाई समझी।
फिल्मकार को विदा करने के बाद सर्प विशेषज्ञ से लम्बी चर्चा हुयी। उन्होने बताया कि आजकल कोलिहा अर्थात लोमडियो का बहुत शिकार हो रहा है। उसकी खाल मुँह माँगे दाम पर खरीदी जा रही है। जंगल मे इनकी संख्या बहुत है और शाम होते ही ये गाँवो के पास दिख जाती है। व्यापारियो के एजेंट घूम रहे है और खाल खरीद रहे है। मैने अखबार मे कभी इस तरह के व्यापार के बारे मे नही सुना था। आखिर क्यो लोमडी के पीछे पडे है ये लोग? मै सोचता रहा। सरकारी विभागो मे पता किया तो उन्हे भी इस बात की खबर नही थी। बाघ या तेन्दुए की खाल की बात होती तो शायद वे सक्रिय होते। मैने सर्प विशेषज्ञ से ही पता लगाने को कहा। व्यापारियो से भी पूछताछ की। अब इंटरनेट मे यह सुविधा तो मिली ही है कि छदम खरीददार बनके व्यापारिक पूछताछ की जा सकती है। जल्दी ही राज खुल गया। देश के महानगरो मे एक विशेष तरह के जूतो का प्रचलन बढ रहा है। इन जूतो मे लोमडी की खाल का प्रयोग होता है। यह दावा किया जाता है कि इस जूते को पहनने से बवासिर (पाइल्स) आराम हो जाता है। मै यह जानकर भौचक्क रह गया। लोग भी क्या-क्या कर बैठते यह जाने बिना कि सचमुच ऐसे जूते उपयोगी है भी कि नही। कुछ व्यापारियो ने दावा किया कि प्राचीन ग्रंथो मे यह लिखा है। कौन-से ग्रंथ मे? यह जानकारी वे नही दे पाये। आजकल तो सभी ग्रंथ और उनमे लिखी बाते डिजिटल रुप मे हमारे पास है। चुटकियो मे पता लग सकता है जो जानना चाहे। जूते भी नही मिले क्योकि खुले बाजार मे ये बिक नही रहे है।
पारम्परिक चिकित्सको से चर्चा हुयी तो वे बडे नाराज हुये और बोले कि बवासिर जैसे साधारण रोगो के लिये किसी निरीह प्राणी की हत्या क्यो कर रहे है ये व्यापारी? लोमडी को मारना घोर अपराध है। मैने अपने लेखो के माध्यम से बवासिर के हजारो उपयोगी नुस्खो का दस्तावेजीकरण किया है। इन नुस्खो से असंख्य लोग लाभान्वित हो चुके है और होते रहेंगे। इन नुस्खो मे बबूल की कच्ची फलियो के सरलतम प्रयोग से लेकर सौ से अधिक प्रकार की वनस्पतियो से तैयार मिश्रण भी है। इनका प्रयोग खान-पान मे नियंत्रण माँगता है। अब आप मसालेदार और तला-भुंजा खाते रहे, एक जगह बैठे भी रहे तो भला कैसे केवल औषधी इस रोग से छुटकारा दिलवा पायेगी?
लोमडी की खाल से बने जूतो के विषय मे आपके पास कोई जानकारी हो तो बताये। हम आप की जागरुकता ही इस निरीह प्राणी की रक्षा कर सकती है। यदि आप किसी को बवासिर के लिये इसका प्रयोग करते देखे तो इस लेख के विषय मे बताइये। मेरा पता दीजिये और बवासिर से मुफ्त मे छुटकारा पाइये। दूसरे प्राणियो की तरह माँ प्रकृति ने लोमडी की भी एक विशेष भूमिका निर्धारित की है। जंगल के सफाई कर्मचारी के रुप मे इसकी सेवा हमारी धरती के लिये जरुरी है। यदि हम इन जैसे प्राणियो को ऐसे ही खत्म करते गये थे वह दिन दूर नही जब हमे साक्षात मौत का सामना करना पडे। बवासिर तो छोटी-मोटी बात है।
कुछ समय पूर्व मैने अपने एक शोध लेख के माध्यम से भालुओ पर हो रहे अत्याचार के विषय मे पर्यावरणप्रेमियो का ध्यान आकर्षित किया था। इस लेखमाला के माध्यम से मै एक बार फिर इसकी चर्चा करना चाहूंगा। मुझे एक पारम्परिक चिकित्सक से उपहार के तौर पर एक तेल प्राप्त हुआ। मुझे बताया कि नर जननाँग मे इसका बाहरी प्रयोग कामोत्तेजक है। पारम्परिक चिकित्सक ने इसकी कीमत बहुत अधिक बतायी। यह कैसा तेल है? इसे कैसे बनाया गया? जब मुझे इसके बारे मे बताया गया तो मेरे होश उड गये। भालुओ मे समागम बहुत लम्बा चलता है। ऐसे समागमो की प्रतीक्षा की जाती है। और फिर चरम पर भालूओ को मारकर उनके जननाँग को अलग कर लिया जाता है। इससे तेल बनाया जाता है। यह घटना आपको चीन के बाजारो मे बिकने वाले बाघ के लिंग के सूप की याद दिलाती होगी जिसका प्रयोग भी कामोत्तेजना के लिये किया जाता है। दुनिया भर मे इस सूप मे खिलाफ आवाज उठी और इस पर प्रतिबन्ध लगाने की बात की गयी। पर भालुओ के लिंग के ऐसे उपयोग की जानकारी कही नही मिलती है। एक भालू से एक लिंग यानि अधिक तेल के लिये बडी संख्या मे भालुओ की मौत। मैने तुरंत इस पर लेख लिखा और शाम तक बाटेनिकल डाट काम के माध्यम से यह दुनिया भर मे दिखने लगा। इस पर व्यापक प्रतिक्रिया हुयी। इंटरनेट ने जबरदस्त औजार हमे उपलब्ध करवा दिया है कम समय मे दुनिया तक अपनी बात पहुँचाने का। मैने लेख मे लिखा कि जिन्होने इस तेल को आजमाया उनमे से एक को भी वह असर नही दिखा जिसका दावा किया गया था। यह महज पैसा कमाने के लिये लोगो को बेवकूफ बनाया जा रहा था। लेख लिखने से पहले मैने पारम्परिक चिकित्सक से इसके बारे मे कडे शब्दो मे पूछा तो उन्होने स्वीकारा कि इसे उन्होने नही बनाया है। ये व्यापारियो से उन तक पहुँचा है और अच्छे कमीशन के लालच मे वे आ गये। मैने उन्हे चेताया कि पारम्परिक चिकित्सक का नाम आप खराब न करे और इस तेल की बिक्री को हतोत्साहित करे। जल्दी नही पर देर से ही सही यह तेल बिकना बन्द हो गया। पर तब तक न जाने कितने भालू बेवजह ही अपनी जान गँवा बैठे।
मेरा इतना सब लिखना बहुत बार व्यर्थ लगता है पर भालू वाली घटना से ऐसा लगा कि भले ही देर से परिणाम मिले पर मुझे सतत लिखना चाहिये और इस पीढी के अलावा आगामी पीढी के लिये अपने विचार लेखो के रुप मे सहेजने चाहिये। आशा है आप भी इससे सहमत होंगे। (क्रमश:)
(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)
© सर्वाधिकार सुरक्षित
Comments