अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -102

अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -102 - पंकज अवधिया

“मेरे सिर के नये बालो का रंग काला है। यह घोर आश्चर्य का विषय है। मै समझ नही पा रहा हूँ यह कैसे हुआ? पारिवारिक मित्र और रिश्तेदार बडे बेसब्र हो रहे है, राज जानने के लिये। आपने ने जैसा जीवन जीने के लिये कहा था, मै वैसा ही जी रहा हूँ। जो खाने को कहा, वो खा रहा हूँ। पर मेरी समझ मे नही आ रहा है कि किस चीज से बाल काले हो रहे है?” इतना बेसब्र सन्देश हाल ही मे मुझे मिला। तीस वर्षीय युवक को मैने कुछ समय पूर्व ही मैने नियमित जीवन के गुर सीखाये थे। यह युवक दसो रोगो से ग्रस्त था। रोगो से ज्यादा वह इनकी चिकित्सा के लिये उपयोग की जा रही दवाईयो के सेवन से परेशान था। उसके बाल झड रहे थे। दांत भी तकलीफ पहुँचा रहे थे। खाना ठीक से पच नही रहा था। फिर नीन्द भी नही आती थी। दाँत की दवा लेता तो सिर की दवा लेने मे दिक्कत होती और सिर की दवा लेता तो दूसरी दवाओ मे दिक्कत होती थी। इंटरनेट पर मेरे लेखो को पढने के बाद दिव्य जडी-बूटी की खोज मे मुझ तक आ पहुँचा। उसे लगा कि मै एक नाम बताऊँगा और वह झट से वह वनस्पति ले आयेगा। एक खुराक लेते ही उसकी सारी तकलीफे दूर हो जायेंगी। पर मुझसे बात करने के बाद वह निराश दिखा।

मैने उससे कहा कि दिन भर क्या-क्या खाते हो? यह लिखकर दे दो, मै उसमे कुछ छोटी-छोटी चीजे डालकर उसे समृद्ध कर दूंगा। उसने ऐसा ही किया। मुझे डर था कि वह शायद ही मेरे सुझावो को पूरी लग्न से अपनाये। पर उसने मुझे निराश नही किया। कुछ ही समय बाद यह सन्देश मिला। नये बालो के काले निकलने की बात तो उसने प्रमुखता से लिखी पर दूसरे लाभो के विषय मे भी बताया। सफेद बालो का काला होना किसी चमत्कार से कम नही। पर सच माने तो मैने उसे इसके लिये कुछ विशेष नही दिया। मैने तो साधारण से उपाय जोडे जिससे पूरे शरीर पर प्रभाव पडे। जब शरीर ठीक रहेगा तो बहुत सारी समस्याए अपने आप सुलझ जायेंगी और नयी समस्याए नही आयेंगी। यह सीधी सी बात है। पर युवक और उसके मित्र मेरे द्वारा बतायी दिनचर्या से ही कुछ चमत्कारिक खोजने के चक्कर मे दिखायी पडे।

मैने अब तक हजारो लोगो को ऐसी दिनचर्याए सुझायी है। बहुतो को लाभ हुआ। कुछ ऐसे भी थे जिन्होने इसे नही अपनाया। हर व्यक्ति के लिये अलग सुझाव मै देता हूँ भले ही इसमे समय और मेहनत लगे। एक तरह की दिनचर्या सभी के लिये उपयोगी साबित नही होती है। रोग विशेष से लडने की बजाय शरीर को स्वस्थ्य बनाने की ओर ध्यान देने की तरह ही हमारी धरती से जुडा मामला है। कभी हम पढते है कि गौरैया खत्म हो रही है, कभी पढते है कि गिद्धो का अस्तित्व संकट मे है। हाल ही मे एक संस्था का सन्देश आया कि हम गिद्धो को बचाने के लिये मुहिम चला रहे है, आप सहयोग करे। मैने उन्हे जानकारी के लिये धन्यवाद दिया और उनसे अनुरोध किया कि समस्या विशेष या प्राणी विशेष की बजाय पूरी धरती के लिये समंवित प्रयास हो। जब धरती अपने मूल स्वरुप मे रहेगी तो समस्त जीव अपने-आप फलेंगे और फूलेंगे। दलो मे बँटकर काम करने की बजाय धरती माँ के लिये काम कर रहे सभी लोगो को एक मंच पर आना होगा।

पिछले सप्ताह मै जब वानस्पतिक सर्वेक्षण के लिये निकला तो स्कूली बच्चो को प्रेम से चार (चिरौंजी) के फलो का खाता देखकर खुश हो गया। बच्चे बडे चाव से इसे खा रहे थे। हमारी गाडी पहाडी पर चढने लगी तो बहुत से बच्चे चार के पेडो पर चढे मिले। ऐसा बचपन बहुत कम ही जी पाते है। चार के फल वैसे तो स्वाद के लिये खाये जाते है पर पारम्परिक चिकित्सक बताते है कि इनका सेवन शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढा देता है जिससे लम्बे समय तक किसी रोग का आक्रमण नही होता है। इन दिनो परीक्षा का मौसम है। एक ओर शहर के बच्चे स्मृति बढाने वाली दवाए गटक-गटक कर बेहाल है वही गाँव के बच्चे चार के फलो का आनन्द ले रहे है। परीक्षा के लिये जाते समय भी और वापस आते समय भी। वे कडी दोपहरी मे पैदल चल रहे है और चार खा रहे है। शहरी बच्चो की स्मृति कितनी बढ रही है, यह तो भगवान ही जाने पर यदि कुछ पल के लिये भी वे देहाती माहौल मे चले जाये तो धूप को शायद ही सहन कर पाये। जंगली क्षेत्रो के बच्चे अब भी जंगली फलो से जुडे है इसलिये रोगो से दूर है।

छत्तीसगढ के मैदानी भागो मे एक समय मे स्कूली बच्चे बबूल की गोन्द एकत्र किया करते थे। बबूल की गोन्द को “बम्बरी लासा” कहते है। इस गोन्द के बदले उन्हे स्थानीय दुकान से कुछ पैसे मिल जाया करते थे। यह काम शौकिया तौर पर होता था। पर हाल के कुछ वर्षो मे हालात एक दम से बदल गये है। अब बच्चे स्कूल जाते है और वही पर उन्हे भोजन भी मिल जाता है। मै बबूल की गोन्द के एकत्रण की घट रही रुचि से चिंतित नही हूँ। मेरी चिंता का विषय अलग है। गाँव के बुजुर्ग बताते है कि जब बच्चे बबूल की गोन्द एकत्र करते थे तो उस रास्ते मे मुंगेसा, जिल्लो, फुटु, कोल्ही-केकडी जैसी स्थानीय वनस्पतियो के स्वादिष्ट भागो का सेवन करते चलते थे। वे पीपल की पिकरी, गूलर या डूमर के फल, कैथ और बेल जैसे देशी फलो का सेवन कर लेते थे। इससे साल भर उनका स्वास्थ्य अच्छा बना रहता था। पर अब हालात उल्टे है। हाल ही मे एक ग्रामीण स्कूल मे जब मैने बच्चो से उनके खान-पान के बारे मे पूछा तो नूडल्स से लेकर आलू के चिप्स उनके नियमित खान-पान के अंग निकले। जंगली फलो का सेवन तो दूर की बात, ज्यादातर को उनके नाम भी नही मालूम थे। उनमे से कुछ ने नाक-मुँह भी सिकोडा और बताया कि उनके माता-पिता ने बाजार से खरीदकर लाये गये फलो को ही खाने की नसीहत दी है।

बच्चो के लिये सुझाव देते समय मै पालको को इन जंगली फलो को खान-पान मे शामिल करने का सुझाव देता हूँ। शहरी पालक एकदम से तैयार नही होते है। डूमर के फल का नाम सुनते ही उनके चेहरे के भाव बदल जाते है। जब उन्हे फिकस ग्लोमरेटा के फल खाने की सलाह दी जाती है तो वे झट से इंटरनेट पर इसे खोजते है और फिर जैसे ही इसके गुणो को बताने वाले विदेशी लेखो को पढते है, डूमर के फलो के लिये तैयार हो जाते है। ऐसी परेशानी एक ही बार आती है। जैसे ही वे इसे खान-पान मे शामिल करते है और इसके लाभ देखते है तो फिर उन्हे दोबारा समझाने की जरुरत नही पडती है। देशी फलो पर अविश्वास और बाजारु फलो पर अन्ध-विश्वास शहरी पालको और उनके बच्चो के लिये अभिशाप साबित हो रहा है। जब उन्हे बताया जाता है कि जंगली फल बिना कीट नाशक के उगते है और बाजारु फल कैसे जहरीले रसायनो से भरे होते है तो वे इस बात को जल्दी से समझते है। टीवी वाले बाबाओ के कहने से लौकी का रस पीने को आतुर लोगो को जब बताया जाता है कि इस बढी हुयी माँग को पूरा करने लिये सब्जी उत्पादक जहरीले रसायन के प्रयोग से रातो-रात उत्पादन बढा रहे है और आमलोगो की जान से खेल रहे है तो कम ही लोग कुछ पल के लिये सोचने के लिये मजबूर होते है। लौकी के रस के नाम पर आम भारतीय रोज जहर का प्याला पी रहा है। गाँवो मे बिना रसायनो से उगी लौकी अच्छे बाजार की बाट जोह रही है। लौकी घर मे भी उगायी जा सकती है। रसायनमुक्त लौकी आसानी से पहचानी जा सकती है पर लोगो को विचारने का समय ही कहाँ है?

अच्छे स्वास्थ्य से बडा धन और कोई नही है। यह सब जानते है पर सही मायने मे देखा जाये तो अच्छे स्वास्थ्य के लिये हम ज्यादा कुछ करते नही है। (क्रमश:)


(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)

© सर्वाधिकार सुरक्षित



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Comments

Gyan Darpan said…
कृपया ऐसी ही कुछ दिनचर्याए यहाँ भी लिखे ताकि इनका अनुसरण कर लोग लाभान्वित हो सके |
अवधिया जी संकट है, देसी फल गायब हो गए हैं। मैं ने चार खाया है छिलका भी और अंदर की चिरोंजी भी। पहले चार हाट में बिकने आता था। अब गायब है। तेंदू अब बाजार में नहीं आता। सीताफल अब मुश्किल से देखने को मिलते हैं।
ghughutibasuti said…
आपकी बात से सहमत हूँ। लौकी सही ढंग से उगाई गई है या अस्वाभाविक तरीके से। इसका भेद व सामान्य व्यक्ति को क्या खाना चाहिए (जो शहरों में उपलब्ध हो) बताएँ।
घुघूती बासूती

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