अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -107

अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -107 - पंकज अवधिया

“आतंकवादी जैसे ही राजनेता के घर घुसे सुरक्षा कर्मी पीछे लग गये। आतंकवादी दीवार तो लाँघ गये पर वनस्पतियो की बाड के सामने आकर ठिठक गये। उनका सिर घूमने लगा और पलक झपकते ही वे बेसुध होकर गिर गये। पीछे आ रहे सुरक्षा कर्मी भी बाड तक पहुँचे पर उनके ऊपर कोई असर नही हुआ। उन्होने मजे से आतंकवादियो को पकडा और अपने काम मे लग गये।“

“मीलो तक बारुदी सुरंगे फैली थी। सेना आगे बढे भी तो कैसे? इन बारुदी सुरंगो को यदि खोजने और नष्ट करने मे सेना जुटे तो उसे कई दशक लग जायेंगे। उसके पास बहुत से वाहन तो है पर वह पूरी तरह से आश्वस्त नही है। सेना को मन-मसोसकर अपना अभियान रोकना पडता है। तभी किसी की सलाह आती है कि साहसी मनटोरा को बुला लिया जाये। आनन=फानन मे मनटोरा के गाँव हेलीकाप्टर भेजा जाता है। मनटोरा झट से आ जाती है। आखिर भारतीय रक्षको ने जो उसे याद किया था। अपने साथ वह पोटली मे भरकर कुछ बीज ले आती है। सेना के पास पहुँचते ही वह बीजो को एक घोल मे डुबोती है और बारुदी सुरंग वाले भागो मे बिखेर देती है। तीन दिनो के बाद उस भाग मे एक ही तरह के बीज से निकले दो तरह के पौधे दिखते है। एक तो स्वस्थ्य और दूसरे पीला पन लिये अस्वस्थ्य पौधे। मनटोरा कहती है कि अस्वस्थ पौधे जहाँ उगे है वहाँ बारुदी सुरंगे है। आप स्वस्थ्य पौधो के ऊपर से निकल जाये आपको कुछ नही होगा। पर यह आपको दस दिनो के भीतर करना होगा। दस दिनो के बाद अस्वस्थ पौधे अपना विस्तार करेंगे और इस प्रक्रिया मे उनकी जडे फैलेंगी। जडो के फैलने से बारुदी सुरंगे उडनी शुरु हो जायेंगी। तब सेना के लिये मुश्किल हो जायेगी।“

“ये क्या सर इतने विकास के बाद भी हमारी सेना सीधी लडाई कर रही है। बेवजह ही हमारे इतने सारे जवान मारे जा रहे है। अब किसी गाँव मे आतंकवादी छुपे है और घरो मे घातक हथियार होने की सम्भावना है तो इसके लिये घर-घर तलाशी की भला क्या जरुरत है। मुझे आप गाँव का एरियल व्यू दिखाइये। वनस्पतियाँ दिखाइये। घर के आँगन मे रखे तुलसी के पौधे दिखाइये, मै बताती हूँ किस घर मे आतंकवादी है और किस घर मे हथियार।“

ये साहसी मनटोरा नामक पात्र के इर्द-गिर्द रची जा रही विज्ञान कथा के कुछ अंश है। आशा है इन अंशो ने आपने मन मे जिज्ञासा को जनम दिया होगा। आज हैरी पाटर के युग मे मै ऐसे लेखन की बडी कमी महसूस करता हूँ। भाँति-भाँति के जंतुओ के बारे मे तो बहुत कुछ लिखा जाता है पर वनस्पतियो का वर्णन करने वाली विज्ञान कथाए बडी मुश्किल से मिलती है। आम लोग इस बारे मे पढना तो चाहते है पर उपलब्ध जानकारियाँ उन्हे नीरस लगती है। कुछ समय पहले ही मै एक आठ वर्षीय बालक से उसकी भविष्य़ योजनाए पूछ रहा था। उसने कहा कि वह सिंगर बनना चाहता है। उसके साथियो से भी पूछा तो इसी तरह के नये जवाब मिले। वैज्ञानिक बनने की बात किसी ने नही की। जब मैने उन्हे अपना परिचय दिया तो वे मेरे विषय मे ज्यादा रुचि लेते नही दिखे। कुछ प्रलोभन देकर मैने साहसी मनटोरा का अंग्रेजी संस्करण उन्हे पढने को कहा। उन्होने मन से पढना शुरु किया और आखिर तक पढते रहे। वह साहसी मनटोरा की जोखिम भरी कहानी थी जब पडोसी देश मे एक रहस्यमय बीमारी फैल रही होती। जाहिर है इसमे बहुत सी वनस्पतियो का वर्णन था। कहानी पढने के बाद बच्चो को मैने उन वनस्पतियो के चित्र दिखाये और उनके बारे मे विस्तार से बताया। वे ये मानने को तैयार नही थे कि उनके आस-पास ऐसी वनस्पतियाँ हो सकती है। वे आँखे फाडकर चित्र देखते रहे। दूसरे दिन हमने पास के खाली पडे मैदान का भ्रमण किया और ढेरो वनस्पतियो को देखा। अब बच्चे जिद करने लगे कि वे साहसी मनटोरा की शेष कहानियाँ भी पढना चाहते है। मैने टालने की कोशिश की तो वे पीछे पड गये।

साहसी मनटोरा जैसी विज्ञान कथाए लिखना कठिन नही है पर सबसे बडी मुश्किल यह है कि इस विधा को प्रोत्साहित करने वाले बहुत कम लोग है इस देश मे। लेखक विज्ञान कथाओ की रचना तो कर ले पर उन्हे प्रकाशित कौन करेगा, उन्हे बेचेगा कौन? आज यदि हमारे बच्चे भारतीय विज्ञान कथाओ से दूर है और दूसरे देशो की कम स्तर की कथाए पढ रहे है तो इसके लिये सबसे बडे दोषी हम लेखक है जिन्होने ऐसी कथाओ की रचना नही की। यही अपराध-बोध मुझे समय निकालकर “साहसी मनटोरा” लिखने के लिये प्रेरित करता रहा है।

वैसे सही नजरिये से देखा जाये तो हम लोगो ने विज्ञान लेखक बनने की उम्र पार कर ली है। विज्ञान कथाओ मे गजब की कल्पना शक्ति चाहिये और जितनी कल्पना शक्ति बच्चो के पास होती है उतनी किसी के पास नही होती। भले ही हमारी आज की व्यव्स्था इस कल्पना शक्ति का गला घोटने की फिराक मे रहती है। बडे होते तक बच्चा समाज के दूसरे लोगो की तरह सोचने लगता है। बहुत कम ही अपनी मूल कल्पना शक्ति को सहेज पाते है। अकेले विज्ञान कथा लिखने का बजाय मै किसी बच्चे के साथ मिलकर जुगलबन्दी मे विज्ञान कथाए लिखना चाहूँगा। मुख्य लेखक का दर्जा निश्चित ही बच्चे को ही मिलेगा। मुख्य लेखक के रुप मे यह बच्चा बाद मे अपनी जिम्मेदारी को समझते हुये नयी पीढी को मुख्य लेखक के रुप मे प्रोत्साहित करता रहेगा।

बचपन मे पराग और नन्दन के माध्यम से बहुत सी विज्ञान कथाए पढने का अवसर मिला पर अब समझ आता है कि उनमे से ज्यादातर पाश्चात्य विज्ञान कथाओ से प्रेरित थी। यही कारण है कि उन्हे पढने और समझने मे दिक्कत होती थी। उनके लेखक यह मान बैठते थे कि पाठको को आधारभूत जानकारियाँ है जबकि हर बार ऐसा नही होता है। मुझे लगता है कि भारतीय ज्ञान-विज्ञान को समझाती हुयी विज्ञान कथाए लिखनी चाहिये। ऐसी विज्ञान कथाए जो जीवन भर बच्चो का मार्ग-दर्शन करे। उन्हे संकट मे काम आये। इसी बहाने वह अपने परिवेश को समझ सके। आस-पास के जीवो और वनस्पतियो से रु-बरु हो सके। यदि लेखक भारतीय ज्ञान-विज्ञान की सहायता से दुनिया भर की समस्याओ को सुलझाने के लिये पाठको को प्रेरित कर सके तो यह सोने मे सुहागा वाली बात होगी। “साहसी मनटोरा” मे मुख्य पात्र मनटोरा न केवल आस्ट्रेलिया के जगलो मे लगी आग को बुझाने मे स्थानीय ज्ञान का उपयोग करती है बल्कि इटली मे आये भूकम्प के कारण मलबे मे फँसे नागरिको के लिये उपाय सुझाती है।

मेरे एक सैनिक मित्र “साहसी मनटोरा” के कुछ अंशो को पढकर प्रतिक्रिया देते है कि यह तो बडो के लिये भी काम की चीज है। इसमे की गयी कल्पनाए भारतीय सैन्य विशेषज्ञो को प्रेरित कर सकती है अनसुलझी समस्याओ के समाधान के लिये। इस तरह की प्रतिक्रियाए प्रेरणा पुंज बनती है। भारत मे डा. अरविन्द मिश्र जैसे चुने हुये समर्पित लोग ही भारतीय विज्ञान काथाओ के प्रोत्साहन की अलख जगाये है। वे निश्चित ही प्रशंसा के पात्र है। मुझे लगता है हर लेखक को विज्ञान कथा लिखने का पुण्य काम करना चाहिये ताकि भारतीय ज्ञान-विज्ञान की महक पीढीयो तक यूँ ही बनी रहे। (क्रमश:)


(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)

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