अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -112
अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -112
(क्या बीटी बैगन के अलावा कोई विकल्प नही है?) - पंकज अवधिया
“मैने तुलसी की बहुत सी पंक्तियाँ लगा दी है और अब गेन्दे की पंक्तियाँ लगाने जा रहा हूँ। पास के जंगल मे जाकर कुछ शाखाए ले आऊँगा कर्रा की और उन्हे खेत के चारो ओर लगा दूंगा। अब मेरा खेत सुरक्षित हो गया है। मजाल है जो एक भी कीडा नजर उठाके देखे इस खेत की ओर।“ मै कुछ दिनो पहले एक उत्साही किसान से उसके खेत पर ही बतिया रहा था। “ साहब, बाप-दादा के जमाने से हम लोग पुरानी खेती कर रहे है जिसे आप लोग आजकल जैविक खेती कहते है। हम सब्जियाँ उगाते है। हमारे आस-पास के किसान भी सब्जियाँ उगाते है पर उनमे से कोई भी जैविक खेती नही करता। सभी सरकारी लालच मे फँसे है इसलिये तरक्की नही कर पा रहे है। आप सुनना चाहे तो मै विस्तार से इनके बर्बाद होने की कहानी सुनाता हूँ।“ मैने हामी भरी तो उसने कहना जारी रखा।
“मेरे खेत मे खरपतवार होते है पर मै उन्ही खरपतवारो को उखाडता हूँ जो फसल को सबसे ज्यादा नुकसान करते है। बहुत से खरप्तवार फसलो के लिये लाभदायक भी होते है-मेरे दादा ऐसा कहते थे। जैसे वन तुलसी का ही उदाहरण ले। इसके खेत के आस-पास जमे रहने से बैगन मे कीडो का आक्रमण कम होता है। पडोस के किसान के पास कृषि विभाग वाले आये थे। उन्होने रसायन के प्रयोग का प्रदर्शन किया। रसायन डालते ही सारे खरपतवार मर गये। विभाग वाले जाते-जाते रसायन विक्रेता का पता दे गये। अब पडोसी हर साल इन रसायनो को खेत मे डालता है। इसके लिये बहुत पैसे खर्चने होते है। रसायन से उपयोगी वनस्पतियाँ भी मर जाती है। इन वनस्पतियो के न होने से कीडो का आक्रमण ज्यादा होता है। कीडो के लिये फिर कीटनाशक डालना होता है। उसके बच्चे वही खेलते रहते है और रसायन के सम्पर्क मे आते रहते है। रसायन से तैयार फसल का उपयोग घर के लिये भी किया जाता है। सारा घर तरह-तरह की बीमारी से ग्रस्त है। बडी बिटिया जिसे बैगन बहुत पसन्द है किसी जटिल बीमारी से जूझ रही है। मैने तो उसे लाख समझाया पर वह नही माना।
मै खरप्तावारो से घर की छत बना लेता हूँ। मेरे पशुओ को चारा मिल जाता है। इनके औषधीय उपयोग कर लेता हूँ। इन खरप्तवारो की साग भी हमारे घर मे सभी खाते है। इससे सब्जी-भाजी पर होने वाला खर्च बच जाता है। फिर मौसमी रोगो से भी सुरक्षा हो जाती है। मेरे लिये तो खरप्तवार किसी उपहार से कम नही है।
सालो पहले वानिकी विभाग से कुछ वैज्ञानिक आये। उन्होने बाप-दादा के जमाने से लगे पेडो को देखकर नाक-भौ सिकोडी और कहा कि इसकी जगह मुनाफा देने वाले पेड लगाओ। मैने कहा कि साहब, ये भी तो मुनाफा दे रहे है। नीम, मुनगा और अर्जुन जैसे पेडो से तो लाख फायदे है। सबसे बडी बात यह है कि ये पुराने है, पिता के समान। इनका साया जरुरी है। वे मुझे गँवार कहकर आगे बढ गये। पडोसी ने उनका स्वागत किया मुफ्त के पेडो के लिये। वैज्ञानिको ने कुछ पापुलर और यूकिलिप्टस के पौधे मुफ्त मे दिये और बाकी खरीदने को कहा। उन्होने यूकिलिप्टस की माँग के बारे मे बताया। पापुलर से माचिस की तीलियाँ बनती है, ऐसा कहा। उनका कहना था कि पेडो के बढने की देर है, खरीददार खेत से आकर ले जायेंगे। पडोसी फिर उनकी बातो मे आ गया। यूकिलिप्टस बढे तो खूब बढे। पडोसी फूला नही समाता था। जब बोरवेल मे पानी का स्तर गिरा तो उसकी आँखे खुली। पूछ-परख की तो लोगो ने यूकिलिप्टस को दोषी बताया। पडोसी ने सोचा कि लोग उसके पेडो से चिढ रहे है, इसलिये यूकिलिप्टस को दोष दे रहे है। उसने शुल्क देकर मुझसे पानी ले लिया। इस बीच वैज्ञानिक आते रहे और तस्वीरे उतारते रहे। उन्होने इस “सफलता की कहानी” को विदेशो मे होने वाले विज्ञान सम्मेलनो मे बताया। उन्हे पुरुस्कार मिला। इस “सफलता की कहानी” को स्थानीय अखबारो ने भी छापा। पडोसी खुश था पर उसे पता नही था यह तो कहानी की शुरुआत है, अंत नही। यूकिलिप्टस और पापुलर के बडे होने पर आस-पास दूसरी फसले लेना मुश्किल हो गया। उनकी पत्तियाँ मिट्टी को अम्लीय कर रही थी। पत्तियो से जहरीले रसायन भी मिट्टी मे मिल रहे थे। चिडियो को उन पेडो मे घोसला बनाने मे दिक्कत होने लगी तो वे मेरे खेतो के आस-पास लगे देशी वृक्षो पर आ गयी। चिडियो ने शरण देने पर अहसान चुकाया। कीडो को सफाचट कर गयी।
साल दर साल बीते पर पडोसी के पेडो को खरीदने कोई नही आया। वैज्ञानिक भी आना बन्द कर चुके थे। थकहार कर वह शोध-संस्थान पहुँचा तो पता चला कि वैज्ञानिक पदोन्नति पाकर दूसरी जगहो पर चले गये थे। यह पदोन्नति उसी “सफलता की कहानी” के कारण मिली थी। अब उनकी तनख्वाह आधा लाख प्रति महिने से अधिक हो गयी थी। उनकी जगह दूसरे वैज्ञानिक आ गये थे। उन्होने किसान की बात सुनते ही कहा कि इन पेडो को काट डालो और जो भी भाव मिले बेच डालो। उसके बाद फिर मेरे पास आना। मै दो नयी विदेशी जातियाँ बताऊँगा। एक बार लगाओ और पैसे ही पैसे पाओ। किसान ने वहाँ से भागने मे भलाई समझी। वह स्थानीय अखबारो के पास पहुँचा ताकि सच बता सके। उसे भाव नही मिला। किसान के पास देने को जो कुछ नही था। मुफ्त के पेड बाँटकर वैज्ञानिको ने खबर छपवा ली थी। फिर स्थानीय अखबारो के लिये खबर बासी भी हो चुकी थी। उन्हे तो नयी “सफलता की कहानी” की तलाश थी। पडोसी किसान की स्थिति पागलो की तरह हो गयी।“ मै अपने किसान की समझदारी से खुश हुआ और बतौर उपहार गोबर और गोमूत्र पर आधारित बहुत से उपयोगी नुस्खे बताये। इनकी सहायता से वह सालो तक कीटो और रोगो से अपनी फसलो की बेहतर सुरक्षा कर सकता है। फिर मैने उससे विदाई ली।
पिछले कुछ लेखो मे हम बीटी बैंगन की बात कर रहे है। एक विशेष प्रकार के कीडो के लिये विकसित किये गये बीटी बैगन की जरुरत क्या सचमुच भारतीय किसानो को है? क्या उन कीडो का नियंत्रण इतना मुश्किल हो गया है कि हम करोडो भारतीयो की जान दाँव पर लगाकर बीटी बैगन को भारत मे लाने व्यग्र है? यदि वैज्ञानिको से यह सवाल पूछा जाये तो वे शायद कहे कि हाँ, हाँ यह जरुरी है। पर बैग़न की खेती कर रहे किसान ऐसा नही कहेंगे। यह मेरा सौभाग्य है कि मै बैगन की पारम्परिक खेती कर रहे हजारो भारतीय किसानो से मिला हूँ। उनके पास गजब का पारम्परिक ज्ञान है। वे बिना किसी रसायन के बैगन को कीटो से बचा रहे है। उनके ज्ञान का यदि दस्तावेजीकरण किया जाये तो कृषि शोध संस्थानो के भवन छोटे पड जायेगे इन्हे रखने के लिये। ये महज किताबी ज्ञान नही है। किताबी ज्ञान होता तो न जाने कब का अतीत की गहराईयो मे खो जाता। यह ज्ञान खेतो मे फसलो पर प्रयोग हो रहा है और पीढी दर पीढी निखर रहा है। यह ज्ञान बैगन को कीटो से सदियो तक बचा सकता है। यह ज्ञान देश की असंख्य वनस्पतियो से सम्बन्धित है। ये वनस्पतियाँ और इनसे सम्बन्धित ज्ञान सभी की पहुँच मे है। उन वैज्ञानिको की पहुँच मे भी जिन पर आजादी के बाद इस देश ने खरबो रुपये जाया कर दिये है। देश के प्रत्येक भाग मे कृषि शोध संस्थान है पर शायद ही कोई संस्थान किसानो के ज्ञान से कुछ सीख ले रहा है। कितना अच्छा होता कि किसान और वैज्ञानिक मिलकर इस ज्ञान को संवर्धित करते। पर वैज्ञानिको ने निज स्वार्थ मे यह मौका खो दिया है। उन्हे बीटी बैगन को बढावा देना और फिर उसके एवज मे विदेशियो द्वारा सराहा जाना ज्यादा पसन्द आता है। यदि हमारे शोध सस्थान देश के किसानो के लिये काम नही कर सकते तो इन सस्थानो को बन्द करने मे अब देर किस बात की। सारा पैसा किसानो पर सीधे व्यय करिये। पलक झपकते ही स्थितियाँ बदल जायेंगी।
मुझे मालूम है कि आप पाठक किसानो की आत्महत्या से व्यथित है। आप उनके लिये कुछ करना भी चाहते है। पर आपको पता नही है कि आप क्या करे। मेरी माने तो आपके पास बहुत से विकल्प है। एक अच्छा विकल्प है कि आप पास के शोध संस्थानो मे एक आम नागरिक की हैसियत से जाये और आपकी गाढी कमायी का सही उपयोग हो रहा है कि नही, यह देखे। आप विशेषज्ञ की डिग्री और अकादमिक उपलधियो पर न जाये। आप तो किसान को साथ ले जाये और उनका सामना विशेषज्ञो से करवाये। सारा दूध का दूध और पानी का पानी हो जायेगा। आपका यह छोटा सा प्रयास शोध सस्थानो को सचेत कर देगा। इस देश मे बहुत से संस्थान निरंकुश हो रहे है। उनकी जवाबदेही तय नही है। किसान आत्महत्या करे तो करे उनकी तनख्वाह और पदोन्नति पर कुछ भी फर्क नही पडेगा। एक बार, बस एक बार, उन पर नकेल कस गयी तो बीटी बैगन जैसी फसले दरवाजे से ही लौटा दी जायेंगी। आप कोशिश तो करिये। (क्रमश:)
(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)
© सर्वाधिकार सुरक्षित
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(क्या बीटी बैगन के अलावा कोई विकल्प नही है?) - पंकज अवधिया
“मैने तुलसी की बहुत सी पंक्तियाँ लगा दी है और अब गेन्दे की पंक्तियाँ लगाने जा रहा हूँ। पास के जंगल मे जाकर कुछ शाखाए ले आऊँगा कर्रा की और उन्हे खेत के चारो ओर लगा दूंगा। अब मेरा खेत सुरक्षित हो गया है। मजाल है जो एक भी कीडा नजर उठाके देखे इस खेत की ओर।“ मै कुछ दिनो पहले एक उत्साही किसान से उसके खेत पर ही बतिया रहा था। “ साहब, बाप-दादा के जमाने से हम लोग पुरानी खेती कर रहे है जिसे आप लोग आजकल जैविक खेती कहते है। हम सब्जियाँ उगाते है। हमारे आस-पास के किसान भी सब्जियाँ उगाते है पर उनमे से कोई भी जैविक खेती नही करता। सभी सरकारी लालच मे फँसे है इसलिये तरक्की नही कर पा रहे है। आप सुनना चाहे तो मै विस्तार से इनके बर्बाद होने की कहानी सुनाता हूँ।“ मैने हामी भरी तो उसने कहना जारी रखा।
“मेरे खेत मे खरपतवार होते है पर मै उन्ही खरपतवारो को उखाडता हूँ जो फसल को सबसे ज्यादा नुकसान करते है। बहुत से खरप्तवार फसलो के लिये लाभदायक भी होते है-मेरे दादा ऐसा कहते थे। जैसे वन तुलसी का ही उदाहरण ले। इसके खेत के आस-पास जमे रहने से बैगन मे कीडो का आक्रमण कम होता है। पडोस के किसान के पास कृषि विभाग वाले आये थे। उन्होने रसायन के प्रयोग का प्रदर्शन किया। रसायन डालते ही सारे खरपतवार मर गये। विभाग वाले जाते-जाते रसायन विक्रेता का पता दे गये। अब पडोसी हर साल इन रसायनो को खेत मे डालता है। इसके लिये बहुत पैसे खर्चने होते है। रसायन से उपयोगी वनस्पतियाँ भी मर जाती है। इन वनस्पतियो के न होने से कीडो का आक्रमण ज्यादा होता है। कीडो के लिये फिर कीटनाशक डालना होता है। उसके बच्चे वही खेलते रहते है और रसायन के सम्पर्क मे आते रहते है। रसायन से तैयार फसल का उपयोग घर के लिये भी किया जाता है। सारा घर तरह-तरह की बीमारी से ग्रस्त है। बडी बिटिया जिसे बैगन बहुत पसन्द है किसी जटिल बीमारी से जूझ रही है। मैने तो उसे लाख समझाया पर वह नही माना।
मै खरप्तावारो से घर की छत बना लेता हूँ। मेरे पशुओ को चारा मिल जाता है। इनके औषधीय उपयोग कर लेता हूँ। इन खरप्तवारो की साग भी हमारे घर मे सभी खाते है। इससे सब्जी-भाजी पर होने वाला खर्च बच जाता है। फिर मौसमी रोगो से भी सुरक्षा हो जाती है। मेरे लिये तो खरप्तवार किसी उपहार से कम नही है।
सालो पहले वानिकी विभाग से कुछ वैज्ञानिक आये। उन्होने बाप-दादा के जमाने से लगे पेडो को देखकर नाक-भौ सिकोडी और कहा कि इसकी जगह मुनाफा देने वाले पेड लगाओ। मैने कहा कि साहब, ये भी तो मुनाफा दे रहे है। नीम, मुनगा और अर्जुन जैसे पेडो से तो लाख फायदे है। सबसे बडी बात यह है कि ये पुराने है, पिता के समान। इनका साया जरुरी है। वे मुझे गँवार कहकर आगे बढ गये। पडोसी ने उनका स्वागत किया मुफ्त के पेडो के लिये। वैज्ञानिको ने कुछ पापुलर और यूकिलिप्टस के पौधे मुफ्त मे दिये और बाकी खरीदने को कहा। उन्होने यूकिलिप्टस की माँग के बारे मे बताया। पापुलर से माचिस की तीलियाँ बनती है, ऐसा कहा। उनका कहना था कि पेडो के बढने की देर है, खरीददार खेत से आकर ले जायेंगे। पडोसी फिर उनकी बातो मे आ गया। यूकिलिप्टस बढे तो खूब बढे। पडोसी फूला नही समाता था। जब बोरवेल मे पानी का स्तर गिरा तो उसकी आँखे खुली। पूछ-परख की तो लोगो ने यूकिलिप्टस को दोषी बताया। पडोसी ने सोचा कि लोग उसके पेडो से चिढ रहे है, इसलिये यूकिलिप्टस को दोष दे रहे है। उसने शुल्क देकर मुझसे पानी ले लिया। इस बीच वैज्ञानिक आते रहे और तस्वीरे उतारते रहे। उन्होने इस “सफलता की कहानी” को विदेशो मे होने वाले विज्ञान सम्मेलनो मे बताया। उन्हे पुरुस्कार मिला। इस “सफलता की कहानी” को स्थानीय अखबारो ने भी छापा। पडोसी खुश था पर उसे पता नही था यह तो कहानी की शुरुआत है, अंत नही। यूकिलिप्टस और पापुलर के बडे होने पर आस-पास दूसरी फसले लेना मुश्किल हो गया। उनकी पत्तियाँ मिट्टी को अम्लीय कर रही थी। पत्तियो से जहरीले रसायन भी मिट्टी मे मिल रहे थे। चिडियो को उन पेडो मे घोसला बनाने मे दिक्कत होने लगी तो वे मेरे खेतो के आस-पास लगे देशी वृक्षो पर आ गयी। चिडियो ने शरण देने पर अहसान चुकाया। कीडो को सफाचट कर गयी।
साल दर साल बीते पर पडोसी के पेडो को खरीदने कोई नही आया। वैज्ञानिक भी आना बन्द कर चुके थे। थकहार कर वह शोध-संस्थान पहुँचा तो पता चला कि वैज्ञानिक पदोन्नति पाकर दूसरी जगहो पर चले गये थे। यह पदोन्नति उसी “सफलता की कहानी” के कारण मिली थी। अब उनकी तनख्वाह आधा लाख प्रति महिने से अधिक हो गयी थी। उनकी जगह दूसरे वैज्ञानिक आ गये थे। उन्होने किसान की बात सुनते ही कहा कि इन पेडो को काट डालो और जो भी भाव मिले बेच डालो। उसके बाद फिर मेरे पास आना। मै दो नयी विदेशी जातियाँ बताऊँगा। एक बार लगाओ और पैसे ही पैसे पाओ। किसान ने वहाँ से भागने मे भलाई समझी। वह स्थानीय अखबारो के पास पहुँचा ताकि सच बता सके। उसे भाव नही मिला। किसान के पास देने को जो कुछ नही था। मुफ्त के पेड बाँटकर वैज्ञानिको ने खबर छपवा ली थी। फिर स्थानीय अखबारो के लिये खबर बासी भी हो चुकी थी। उन्हे तो नयी “सफलता की कहानी” की तलाश थी। पडोसी किसान की स्थिति पागलो की तरह हो गयी।“ मै अपने किसान की समझदारी से खुश हुआ और बतौर उपहार गोबर और गोमूत्र पर आधारित बहुत से उपयोगी नुस्खे बताये। इनकी सहायता से वह सालो तक कीटो और रोगो से अपनी फसलो की बेहतर सुरक्षा कर सकता है। फिर मैने उससे विदाई ली।
पिछले कुछ लेखो मे हम बीटी बैंगन की बात कर रहे है। एक विशेष प्रकार के कीडो के लिये विकसित किये गये बीटी बैगन की जरुरत क्या सचमुच भारतीय किसानो को है? क्या उन कीडो का नियंत्रण इतना मुश्किल हो गया है कि हम करोडो भारतीयो की जान दाँव पर लगाकर बीटी बैगन को भारत मे लाने व्यग्र है? यदि वैज्ञानिको से यह सवाल पूछा जाये तो वे शायद कहे कि हाँ, हाँ यह जरुरी है। पर बैग़न की खेती कर रहे किसान ऐसा नही कहेंगे। यह मेरा सौभाग्य है कि मै बैगन की पारम्परिक खेती कर रहे हजारो भारतीय किसानो से मिला हूँ। उनके पास गजब का पारम्परिक ज्ञान है। वे बिना किसी रसायन के बैगन को कीटो से बचा रहे है। उनके ज्ञान का यदि दस्तावेजीकरण किया जाये तो कृषि शोध संस्थानो के भवन छोटे पड जायेगे इन्हे रखने के लिये। ये महज किताबी ज्ञान नही है। किताबी ज्ञान होता तो न जाने कब का अतीत की गहराईयो मे खो जाता। यह ज्ञान खेतो मे फसलो पर प्रयोग हो रहा है और पीढी दर पीढी निखर रहा है। यह ज्ञान बैगन को कीटो से सदियो तक बचा सकता है। यह ज्ञान देश की असंख्य वनस्पतियो से सम्बन्धित है। ये वनस्पतियाँ और इनसे सम्बन्धित ज्ञान सभी की पहुँच मे है। उन वैज्ञानिको की पहुँच मे भी जिन पर आजादी के बाद इस देश ने खरबो रुपये जाया कर दिये है। देश के प्रत्येक भाग मे कृषि शोध संस्थान है पर शायद ही कोई संस्थान किसानो के ज्ञान से कुछ सीख ले रहा है। कितना अच्छा होता कि किसान और वैज्ञानिक मिलकर इस ज्ञान को संवर्धित करते। पर वैज्ञानिको ने निज स्वार्थ मे यह मौका खो दिया है। उन्हे बीटी बैगन को बढावा देना और फिर उसके एवज मे विदेशियो द्वारा सराहा जाना ज्यादा पसन्द आता है। यदि हमारे शोध सस्थान देश के किसानो के लिये काम नही कर सकते तो इन सस्थानो को बन्द करने मे अब देर किस बात की। सारा पैसा किसानो पर सीधे व्यय करिये। पलक झपकते ही स्थितियाँ बदल जायेंगी।
मुझे मालूम है कि आप पाठक किसानो की आत्महत्या से व्यथित है। आप उनके लिये कुछ करना भी चाहते है। पर आपको पता नही है कि आप क्या करे। मेरी माने तो आपके पास बहुत से विकल्प है। एक अच्छा विकल्प है कि आप पास के शोध संस्थानो मे एक आम नागरिक की हैसियत से जाये और आपकी गाढी कमायी का सही उपयोग हो रहा है कि नही, यह देखे। आप विशेषज्ञ की डिग्री और अकादमिक उपलधियो पर न जाये। आप तो किसान को साथ ले जाये और उनका सामना विशेषज्ञो से करवाये। सारा दूध का दूध और पानी का पानी हो जायेगा। आपका यह छोटा सा प्रयास शोध सस्थानो को सचेत कर देगा। इस देश मे बहुत से संस्थान निरंकुश हो रहे है। उनकी जवाबदेही तय नही है। किसान आत्महत्या करे तो करे उनकी तनख्वाह और पदोन्नति पर कुछ भी फर्क नही पडेगा। एक बार, बस एक बार, उन पर नकेल कस गयी तो बीटी बैगन जैसी फसले दरवाजे से ही लौटा दी जायेंगी। आप कोशिश तो करिये। (क्रमश:)
(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)
© सर्वाधिकार सुरक्षित
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Conyza bonariensis as Allelopathic ingredient to enrich
herbs of Pankaj Oudhia’s Complex Herbal Formulations (Indigenous Traditional
Medicines) used for Khejario khad Toxicity (Phytotherapy for toxicity of
Herbal Drugs),
Conyza stricta as Allelopathic ingredient to enrich herbs of
Pankaj Oudhia’s Complex Herbal Formulations (Indigenous Traditional Medicines)
used for Khimp Toxicity (Phytotherapy for toxicity of Herbal Drugs),
Corallocarpus epigaea as Allelopathic ingredient to enrich
herbs of Pankaj Oudhia’s Complex Herbal Formulations (Indigenous Traditional
Medicines) used for Khimpro Toxicity (Phytotherapy for toxicity of Herbal
Drugs),
Corallocarpus epigaeus as Allelopathic ingredient to enrich
herbs of Pankaj Oudhia’s Complex Herbal Formulations (Indigenous Traditional
Medicines) used for Khiramar Toxicity (Phytotherapy for toxicity of Herbal
Drugs),
Corbichonia decumbens as Allelopathic ingredient to enrich
herbs of Pankaj Oudhia’s Complex Herbal Formulations (Indigenous Traditional
Medicines) used for Lamp Toxicity (Phytotherapy for toxicity of Herbal
Drugs),
Corchorus aestuans as Allelopathic ingredient to enrich
herbs of Pankaj Oudhia’s Complex Herbal Formulations (Indigenous Traditional
Medicines) used for Lampro Toxicity (Phytotherapy for toxicity of Herbal
Drugs),
Corchorus capsularis as Allelopathic ingredient to enrich
herbs of Pankaj Oudhia’s Complex Herbal Formulations (Indigenous Traditional
Medicines) used for Lana Toxicity (Phytotherapy for toxicity of Herbal
Drugs),
Corchorus fascicularis as Allelopathic ingredient to enrich
herbs of Pankaj Oudhia’s Complex Herbal Formulations (Indigenous Traditional
Medicines) used for Lani Toxicity (Phytotherapy for toxicity of Herbal
Drugs),
Corchorus olitorius as Allelopathic ingredient to enrich
herbs of Pankaj Oudhia’s Complex Herbal Formulations (Indigenous Traditional
Medicines) used for Latari Toxicity (Phytotherapy for toxicity of Herbal
Drugs),
Corchorus trilocularis as Allelopathic ingredient to enrich
herbs of Pankaj Oudhia’s Complex Herbal Formulations (Indigenous Traditional
Medicines) used for Lolaru Toxicity (Phytotherapy for toxicity of Herbal
Drugs),
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