अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -105
अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -105 - पंकज अवधिया
“ये होम्योपैथिक दवाए तो तीन साल पुरानी है। मुझे इसी साल पैक की गयी दवाए दो।“ रायपुर की एक दवा दुकान पर एक सज्जन दुकान वाले से कह रहे थे। “अरे, आपको पता नही, होम्योपैथिक दवाए जितनी पुरानी होती है, उतनी अच्छी होती है। आप तो किस्मत वाले है जो आपको इतनी पुरानी दवा आसानी से मिल रही है।“ दुकान वाले के कुतर्को को सुनकर मै अवाक सा खडा था। सज्जन ने दवा लेने से मना कर दिया। जैसे ही वापस लौटे दुकान वाला अपने असली रंग मे आ गया। “अरे, नाराज क्यो होते आप पुरानी दवा के लिये बीस रुपये कम दे दीजियेगा। चलिये, तीस कम कर दूँगा।“ सज्जन समझ गये थे कि जरुर कुछ गडबड है। वे वापस चले गये। साथ ही मै भी।
रायपुर ही नही, देश मे बहुत से हिस्सो मे ऐसे किस्से आमतौर पर सुनने को मिल जाते है। मै बचपन से ही होम्योपैथी का प्रशंसक रहा हूँ। मुझे ज्ञानी-ध्यानी चिकित्सको के साथ काम करने का अवसर मिला है। पर हाल के वर्षो मे मैने होम्योपैथी की जो दुर्दशा देखी है उससे मेरी आँखो मे आँसू आ जाते है। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि आजकल मिलने वाली होम्योपैथिक और बायोकेमिक दवाओ मे एक साल के भीतर ही अजीब सी गन्ध आने लगती है। शिकायत करने पर सही जवाब नही मिलता है। मुझे याद आता है कि डा. बी.आर.गुहा सालो तक दवाओ को सुरक्षित रखते थे और उनका बखूबी इस्तमाल करते थे। वे आज होते तो दवाओ को एक साल के अन्दर खराब होता देखकर दुखी हो जाते। कुछ छात्रो ने मुझे एक चौकाने वाली बात बतायी। उन्होने दावा किया कि अप अमुक दुकान मे जाकर किसी भी कपोल-कल्पित नाम लिखकर और फिर दुकानवाले को देकर उस नाम की होम्योपैथिक दवा प्राप्त कर सकते है। “जिसका उल्लेख मटेरिया मेडिका मे न हो, वो भी।” छात्रो ने कहा “ बिल्कुल और इस तरह कुछ भी बेचा जा रहा है, मनमानी कीमत पर।“ जिस दुकान की बात वे कर रहे थे उससे रायपुर के अस्सी प्रतिशत होम्योपैथी प्रेमी दवाए लेते है।
कृषि के क्षेत्र मे जब मैने होम्योपैथी पर शोध आरम्भ किया तो मुझे आरम्भिक प्रयोगो से लगने लगा कि यदि विस्तार से शोध किये जाये तो एग्रोहोम्योपैथी को विज्ञान की एक नयी शाखा के रुप मे स्थापित किया जा सकता है। पिछले एक दशक से भी अधिक समय से मै निरंतर प्रयोग कर रहा हूँ। विज्ञान के अपने स्पष्ट नियम है। प्रयोग करने की विशेष विधियाँ है। एग्रोहोम्योपैथी के प्रयोग मे मुझे सफलता के साथ असफलता भी मिल रही है। पर हर असफलता कुछ सबक दे रही है। एग्रोहोम्योपैथी की विज्ञान की अन्य शाखाओ की तरह कुछ सीमाए भी है। दुनिया भर के होम्योपैथी प्रशंसक अक्सर पूछते है कि मै कब अपने प्रयोगो को सार्वजनिक करुंगा? मै उनसे बीस और साल माँगता हूँ। मै पूरी तरह से निश्चिंत होकर ही इसे दुनिया के सामने प्रस्तुत करना चाहता हूँ। जब यह दुनिया के सामने आये तो मै इसके सभी वैज्ञानिक पहलुओ के समझा पाऊँ। कोई कोर-कसर न रह जाये। आजकल एग्रोहोम्योपैथी के नाम पर दुनिया भर मे कुछ लोगो ने हल्ला मचा के रखा है। वे इसे सभी कीटो और रोगो के लिये रामबाण बता रहे है। यह सम्भव नही है। वे जानते ही नही है कि दुनिया मे कितने तरह के पौधे है और उनपर कब और कितने कीटो और रोगो का आक्रमण होता है। दुनिया भर के कृषि वैज्ञानिक और किसान कीटो व रोगो से जूझ रहे है। इतना आसान नही है उनसे लड पाना। लगातार कृषि रसायनो को मजबूत बनाना पड रहा है क्योकि कीटो मे प्रतिरोधक क्षमता बढती जा रही है। जैविक उपाय अपनाए जा रहे है पर अब भी सभी कीटो और रोगो के लिये कारगर जैविक आदान विकसित नही किये जा सके है। शायद ऐसा कभी हो भी न। ऐसी परिस्थितियो मे कोई यह दावा लेकर खडे हो जाये कि एग्रोहोम्योपैथी से सारे कीटो और रोगो का सफाया हो सकता है तो उसे हँसी का पात्र बनने से कोई नही रोक सकता है। आजकल इंटरनेट के माध्यम से ऐसे दावे किये जा रहे है। यह निज स्वार्थ से प्रेरित है। मेरा यह अनुभव रहा है कि विज्ञान की किसी भी शाखा को जितना बाहरी लोगो से नुकसान नही होता है उतना भीतरी लोगो से होता है। आप कुछ सालो तक अपने लाभ के लिये दुनिया को बेवकूफ बनाकर अपने उत्पाद बेच सकते है पर इससे विज्ञान की उस शाखा को जो स्थायी क्षति होती है वह अपूरणीय होती है।
एग्रोहोम्योपैथी के अपने प्रयोगो को मै कृषि अनुसन्धान संस्थाओ के साथ मिलकर आगे बढाना चाहता हूँ। जो प्रयोग मैने किये है वे यदि सही है तो दुनिया भर के अनुसन्धान केन्द्रो मे भी उनकी पुनरावृत्ति होनी चाहिये। मुझे विश्वास है कि अलग-अलग क्षेत्र के वैज्ञानिको के समंवित प्रयास आरम्भिक प्रयोगो की खामियो को दूर करेंगे और फिर एग्रोहोम्योपैथी को नये विज्ञान के रुप मे स्थापित करेंगे। भारत एग्रोहोम्योपैथी के क्षेत्र मे विश्व का नेतृत्व कर रहा है। अत: यह पहल भारत ही से आरम्भ होनी चाहिये।
आपने इस लेखमाला मे पहले पढा है कि कैसे भारतीय पारम्परिक चिकित्सक वनस्पतियो के सत्वो की सहायता से दूसरी वनस्पतियो को मनचाहे औषधीय गुणो से परिपूर्ण करते है। उनके इस ज्ञान को ट्रेडीशनल एलिलोपैथिक नालेज का नाम दिया है मैने। मैने इस विषय पर हजारो शोध दस्तावेज तैयार किये है। एग्रोहोम्योपैथी के आरम्भिक प्रयोगो की सफलता को देखते हुये मैने पारम्परिक चिकित्सको से वनस्पतियो के सत्वो के साथ होम्योपैथी दवाओ को मिलाने का अनुरोध किया। कुछ अफलताओ के बाद ये प्रयोग सफलता के रंग दिखाने लगे। होम्योपैथिक दवाओ का उपयोग केवल कीट और रोग नाशक की तरह होने की बजाय फसलो विशेषकर औषधीय और सगन्ध फसलो के औषधीय गुणो को बढाने के लिये भी किया जा सकता है। पारम्परिक चिकित्सको के साथ मिलकर किये जा रहे प्रयोग इसी कल्पना को साकार कर पायेंगे।
देश भर के होम्योपैथिक कालेज मे अपनी सेवाए दे रहे अपने मित्रो और प्रशंसको से मै आग्रह कर रहा हूँ कि जल्दी से जल्दी एग्रोहोम्योपैथी को एक पाठ के रुप मे कोर्स मे शामिल किया जाये। देश भर मे गहन शोध के लिये मुझे बडी संख्या मे उत्साही नवयुवको और नवयुवतियो की आवश्यकत्ता होगी जो होम्योपैथी को दिल से चाहते हो। मात्र डिग्री के लिये जुटे छात्र शायद ही विज्ञान की इस शाखा के विकास मे अपना योगदान दे पाये। बहुत से कृषि अनुसन्धान संस्थानो मे कार्यरत मित्रो ने इन प्रयोगो मे रुचि दिखायी है। मै उनसे स्पष्ट कह दे रहा हूँ कि शार्ट-कट नही चलेगा। इस बात का पूरा ध्यान रखना होगा कि हमारे किसी भी काम से इस नव-विकसित शाखा के सम्मान को चोट न पहुँचे।
होम्योपैथी मे आम लोगो की घटती रुचि मुझे चिंतित करती है। मित्र लिखते है कि कालेजो मे सीटे खाली पडी है। नये स्नातक आधारभूत विधा को छोडकर एलोपैथी की तर्ज पर होम्योपैथी का प्रयोग कर रहे है। दवाओ को अनाप-शनाप तरीके से मिलाया जा रहा है। व्यवसायिक लाभ के नाम पर दवाओ की इतनी अधिक मात्रा रोगी को दी जा रही है कि उसकी अधिक्ता से बुरे प्रभाव दिख रहे है। यहाँ मुझे बार-बार “एकल दवा” का डा. गुहा का सिद्धांत याद आता है। किसी भी मर्ज को वे दवा की एक खुराक से ठीक करना जानते थे। ये अलग बात है कि आधुनिक मरीजो की संतुष्टि के लिये वे लम्बे समय तक दवा रहित मीठी गोलियाँ देते रहते थे।
मै वनस्पतियो पर होम्योपैथी के प्रयोग कर रहा हूँ। कुछ वर्षो पहले मेरे कम्प्यूटर विशेषज्ञ ने बताया कि उसे बेहद तकलीफ है। पूरे शरीर मे समय-समय पर फोडे हो जाते है और फिर अपने आप ठीक हो जाते है। फोडो मे दर्द होता है। जीना-हराम हो जाता है। उसने सभी दवाए की। झाड-फूँक करवायी। नीम का रस पीया और करेले का भी। पर फोडो के निकलने का क्रम समाप्त नही हुआ। उसने मुझसे कुछ जडी-बूटी माँगी। मुझे डा. गुहा की याद आयी। उनके द्वारा दी गयी शिक्षा के आधार पर इस विशेषज्ञ के लिये केवल एक ही दवा जँचती थी। होम्योपैथी चिकित्सक मित्रो से सलाह-मशविरा किया। वे बोले कि यह दवा असर करेगी पर एक खुराक से कुछ नही होने वाला। मेरा कहना था कि मैने आज तक किसी होम्योपैथी दवा की एक खुराक से अधिक नही लिया है और हमेशा फायदे मे रहा हूँ। “सिर्फ एक खुराक। अरे, तू तो हम लोगो का धन्धा चौपट करवायेगा।“ उनकी बात सही थी। उनकी रोजी-रोटी यही है। मै तो इस विधा के एक पैसे नही लेता किसी से। बहरहाल, विशेषज्ञ को दवा दी गयी। चिकित्सक मित्रो ने देखा। एक दिन बीता, फिर दो दिन, फिर तीन दिन और उसका फोन आ गया कि अभी वाला फोडा समय से पहले ठीक हो रहा है। फिर सप्ताह भर मे दवा के पूरे असर का फोन आ गया। आज सालो बीत जाने पर भी वह सामान्य जीवन जी रहा है। उसे मदद करने का दुष्परिणाम यह रहा कि पहले उसके रिश्तेदारो की भीड लग गयी और फिर दूसरे मरीजो की। मैने उनसे विनम्र अनुरोध किया कि मै चिकित्सक नही हूँ। मुझे वनस्पतियो तक ही सीमित रहने दे। विशेषज्ञ के ठीक होने मे मेरा कोई योगदान नही है। यह तो महात्मा हैनीमैन का अनुपम उपहार है। जिसने इसे गहराई से जान लिया, समझ लिया उसने सब कुछ पा लिया। बिना गहरा गोता लगाये सतह से इसे जानने का प्रयास कभी भी सही परिणाम नही दे सकता।
आज दुनिया के बहुत से देशो मे होम्योपैथी गहरे संकट मे है। देश के जाने-माने होम्योपैथ कानपुर के डा. प्रभात टंडन से मुझे यह बात पता चली। यदि दुनिया होम्योपैथी के महत्व को निज स्वार्थो के लिये नकार रही है तो वह अपने पैरो मे कुल्हाडी मार रही है। मेरा विश्वास है कि दुनिया एक दिन जरुर महात्मा हैनीमैन के इस उपहार को सिर-आँखो पर बिठायेगी पर तब तक होम्योपैथी को अन्दर से क्षति पहुँचा रहे आस्तिन के साँपो की पहचान कर उन्हे चेताना जरुरी है। (क्रमश:)
(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)
© सर्वाधिकार सुरक्षित
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“ये होम्योपैथिक दवाए तो तीन साल पुरानी है। मुझे इसी साल पैक की गयी दवाए दो।“ रायपुर की एक दवा दुकान पर एक सज्जन दुकान वाले से कह रहे थे। “अरे, आपको पता नही, होम्योपैथिक दवाए जितनी पुरानी होती है, उतनी अच्छी होती है। आप तो किस्मत वाले है जो आपको इतनी पुरानी दवा आसानी से मिल रही है।“ दुकान वाले के कुतर्को को सुनकर मै अवाक सा खडा था। सज्जन ने दवा लेने से मना कर दिया। जैसे ही वापस लौटे दुकान वाला अपने असली रंग मे आ गया। “अरे, नाराज क्यो होते आप पुरानी दवा के लिये बीस रुपये कम दे दीजियेगा। चलिये, तीस कम कर दूँगा।“ सज्जन समझ गये थे कि जरुर कुछ गडबड है। वे वापस चले गये। साथ ही मै भी।
रायपुर ही नही, देश मे बहुत से हिस्सो मे ऐसे किस्से आमतौर पर सुनने को मिल जाते है। मै बचपन से ही होम्योपैथी का प्रशंसक रहा हूँ। मुझे ज्ञानी-ध्यानी चिकित्सको के साथ काम करने का अवसर मिला है। पर हाल के वर्षो मे मैने होम्योपैथी की जो दुर्दशा देखी है उससे मेरी आँखो मे आँसू आ जाते है। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि आजकल मिलने वाली होम्योपैथिक और बायोकेमिक दवाओ मे एक साल के भीतर ही अजीब सी गन्ध आने लगती है। शिकायत करने पर सही जवाब नही मिलता है। मुझे याद आता है कि डा. बी.आर.गुहा सालो तक दवाओ को सुरक्षित रखते थे और उनका बखूबी इस्तमाल करते थे। वे आज होते तो दवाओ को एक साल के अन्दर खराब होता देखकर दुखी हो जाते। कुछ छात्रो ने मुझे एक चौकाने वाली बात बतायी। उन्होने दावा किया कि अप अमुक दुकान मे जाकर किसी भी कपोल-कल्पित नाम लिखकर और फिर दुकानवाले को देकर उस नाम की होम्योपैथिक दवा प्राप्त कर सकते है। “जिसका उल्लेख मटेरिया मेडिका मे न हो, वो भी।” छात्रो ने कहा “ बिल्कुल और इस तरह कुछ भी बेचा जा रहा है, मनमानी कीमत पर।“ जिस दुकान की बात वे कर रहे थे उससे रायपुर के अस्सी प्रतिशत होम्योपैथी प्रेमी दवाए लेते है।
कृषि के क्षेत्र मे जब मैने होम्योपैथी पर शोध आरम्भ किया तो मुझे आरम्भिक प्रयोगो से लगने लगा कि यदि विस्तार से शोध किये जाये तो एग्रोहोम्योपैथी को विज्ञान की एक नयी शाखा के रुप मे स्थापित किया जा सकता है। पिछले एक दशक से भी अधिक समय से मै निरंतर प्रयोग कर रहा हूँ। विज्ञान के अपने स्पष्ट नियम है। प्रयोग करने की विशेष विधियाँ है। एग्रोहोम्योपैथी के प्रयोग मे मुझे सफलता के साथ असफलता भी मिल रही है। पर हर असफलता कुछ सबक दे रही है। एग्रोहोम्योपैथी की विज्ञान की अन्य शाखाओ की तरह कुछ सीमाए भी है। दुनिया भर के होम्योपैथी प्रशंसक अक्सर पूछते है कि मै कब अपने प्रयोगो को सार्वजनिक करुंगा? मै उनसे बीस और साल माँगता हूँ। मै पूरी तरह से निश्चिंत होकर ही इसे दुनिया के सामने प्रस्तुत करना चाहता हूँ। जब यह दुनिया के सामने आये तो मै इसके सभी वैज्ञानिक पहलुओ के समझा पाऊँ। कोई कोर-कसर न रह जाये। आजकल एग्रोहोम्योपैथी के नाम पर दुनिया भर मे कुछ लोगो ने हल्ला मचा के रखा है। वे इसे सभी कीटो और रोगो के लिये रामबाण बता रहे है। यह सम्भव नही है। वे जानते ही नही है कि दुनिया मे कितने तरह के पौधे है और उनपर कब और कितने कीटो और रोगो का आक्रमण होता है। दुनिया भर के कृषि वैज्ञानिक और किसान कीटो व रोगो से जूझ रहे है। इतना आसान नही है उनसे लड पाना। लगातार कृषि रसायनो को मजबूत बनाना पड रहा है क्योकि कीटो मे प्रतिरोधक क्षमता बढती जा रही है। जैविक उपाय अपनाए जा रहे है पर अब भी सभी कीटो और रोगो के लिये कारगर जैविक आदान विकसित नही किये जा सके है। शायद ऐसा कभी हो भी न। ऐसी परिस्थितियो मे कोई यह दावा लेकर खडे हो जाये कि एग्रोहोम्योपैथी से सारे कीटो और रोगो का सफाया हो सकता है तो उसे हँसी का पात्र बनने से कोई नही रोक सकता है। आजकल इंटरनेट के माध्यम से ऐसे दावे किये जा रहे है। यह निज स्वार्थ से प्रेरित है। मेरा यह अनुभव रहा है कि विज्ञान की किसी भी शाखा को जितना बाहरी लोगो से नुकसान नही होता है उतना भीतरी लोगो से होता है। आप कुछ सालो तक अपने लाभ के लिये दुनिया को बेवकूफ बनाकर अपने उत्पाद बेच सकते है पर इससे विज्ञान की उस शाखा को जो स्थायी क्षति होती है वह अपूरणीय होती है।
एग्रोहोम्योपैथी के अपने प्रयोगो को मै कृषि अनुसन्धान संस्थाओ के साथ मिलकर आगे बढाना चाहता हूँ। जो प्रयोग मैने किये है वे यदि सही है तो दुनिया भर के अनुसन्धान केन्द्रो मे भी उनकी पुनरावृत्ति होनी चाहिये। मुझे विश्वास है कि अलग-अलग क्षेत्र के वैज्ञानिको के समंवित प्रयास आरम्भिक प्रयोगो की खामियो को दूर करेंगे और फिर एग्रोहोम्योपैथी को नये विज्ञान के रुप मे स्थापित करेंगे। भारत एग्रोहोम्योपैथी के क्षेत्र मे विश्व का नेतृत्व कर रहा है। अत: यह पहल भारत ही से आरम्भ होनी चाहिये।
आपने इस लेखमाला मे पहले पढा है कि कैसे भारतीय पारम्परिक चिकित्सक वनस्पतियो के सत्वो की सहायता से दूसरी वनस्पतियो को मनचाहे औषधीय गुणो से परिपूर्ण करते है। उनके इस ज्ञान को ट्रेडीशनल एलिलोपैथिक नालेज का नाम दिया है मैने। मैने इस विषय पर हजारो शोध दस्तावेज तैयार किये है। एग्रोहोम्योपैथी के आरम्भिक प्रयोगो की सफलता को देखते हुये मैने पारम्परिक चिकित्सको से वनस्पतियो के सत्वो के साथ होम्योपैथी दवाओ को मिलाने का अनुरोध किया। कुछ अफलताओ के बाद ये प्रयोग सफलता के रंग दिखाने लगे। होम्योपैथिक दवाओ का उपयोग केवल कीट और रोग नाशक की तरह होने की बजाय फसलो विशेषकर औषधीय और सगन्ध फसलो के औषधीय गुणो को बढाने के लिये भी किया जा सकता है। पारम्परिक चिकित्सको के साथ मिलकर किये जा रहे प्रयोग इसी कल्पना को साकार कर पायेंगे।
देश भर के होम्योपैथिक कालेज मे अपनी सेवाए दे रहे अपने मित्रो और प्रशंसको से मै आग्रह कर रहा हूँ कि जल्दी से जल्दी एग्रोहोम्योपैथी को एक पाठ के रुप मे कोर्स मे शामिल किया जाये। देश भर मे गहन शोध के लिये मुझे बडी संख्या मे उत्साही नवयुवको और नवयुवतियो की आवश्यकत्ता होगी जो होम्योपैथी को दिल से चाहते हो। मात्र डिग्री के लिये जुटे छात्र शायद ही विज्ञान की इस शाखा के विकास मे अपना योगदान दे पाये। बहुत से कृषि अनुसन्धान संस्थानो मे कार्यरत मित्रो ने इन प्रयोगो मे रुचि दिखायी है। मै उनसे स्पष्ट कह दे रहा हूँ कि शार्ट-कट नही चलेगा। इस बात का पूरा ध्यान रखना होगा कि हमारे किसी भी काम से इस नव-विकसित शाखा के सम्मान को चोट न पहुँचे।
होम्योपैथी मे आम लोगो की घटती रुचि मुझे चिंतित करती है। मित्र लिखते है कि कालेजो मे सीटे खाली पडी है। नये स्नातक आधारभूत विधा को छोडकर एलोपैथी की तर्ज पर होम्योपैथी का प्रयोग कर रहे है। दवाओ को अनाप-शनाप तरीके से मिलाया जा रहा है। व्यवसायिक लाभ के नाम पर दवाओ की इतनी अधिक मात्रा रोगी को दी जा रही है कि उसकी अधिक्ता से बुरे प्रभाव दिख रहे है। यहाँ मुझे बार-बार “एकल दवा” का डा. गुहा का सिद्धांत याद आता है। किसी भी मर्ज को वे दवा की एक खुराक से ठीक करना जानते थे। ये अलग बात है कि आधुनिक मरीजो की संतुष्टि के लिये वे लम्बे समय तक दवा रहित मीठी गोलियाँ देते रहते थे।
मै वनस्पतियो पर होम्योपैथी के प्रयोग कर रहा हूँ। कुछ वर्षो पहले मेरे कम्प्यूटर विशेषज्ञ ने बताया कि उसे बेहद तकलीफ है। पूरे शरीर मे समय-समय पर फोडे हो जाते है और फिर अपने आप ठीक हो जाते है। फोडो मे दर्द होता है। जीना-हराम हो जाता है। उसने सभी दवाए की। झाड-फूँक करवायी। नीम का रस पीया और करेले का भी। पर फोडो के निकलने का क्रम समाप्त नही हुआ। उसने मुझसे कुछ जडी-बूटी माँगी। मुझे डा. गुहा की याद आयी। उनके द्वारा दी गयी शिक्षा के आधार पर इस विशेषज्ञ के लिये केवल एक ही दवा जँचती थी। होम्योपैथी चिकित्सक मित्रो से सलाह-मशविरा किया। वे बोले कि यह दवा असर करेगी पर एक खुराक से कुछ नही होने वाला। मेरा कहना था कि मैने आज तक किसी होम्योपैथी दवा की एक खुराक से अधिक नही लिया है और हमेशा फायदे मे रहा हूँ। “सिर्फ एक खुराक। अरे, तू तो हम लोगो का धन्धा चौपट करवायेगा।“ उनकी बात सही थी। उनकी रोजी-रोटी यही है। मै तो इस विधा के एक पैसे नही लेता किसी से। बहरहाल, विशेषज्ञ को दवा दी गयी। चिकित्सक मित्रो ने देखा। एक दिन बीता, फिर दो दिन, फिर तीन दिन और उसका फोन आ गया कि अभी वाला फोडा समय से पहले ठीक हो रहा है। फिर सप्ताह भर मे दवा के पूरे असर का फोन आ गया। आज सालो बीत जाने पर भी वह सामान्य जीवन जी रहा है। उसे मदद करने का दुष्परिणाम यह रहा कि पहले उसके रिश्तेदारो की भीड लग गयी और फिर दूसरे मरीजो की। मैने उनसे विनम्र अनुरोध किया कि मै चिकित्सक नही हूँ। मुझे वनस्पतियो तक ही सीमित रहने दे। विशेषज्ञ के ठीक होने मे मेरा कोई योगदान नही है। यह तो महात्मा हैनीमैन का अनुपम उपहार है। जिसने इसे गहराई से जान लिया, समझ लिया उसने सब कुछ पा लिया। बिना गहरा गोता लगाये सतह से इसे जानने का प्रयास कभी भी सही परिणाम नही दे सकता।
आज दुनिया के बहुत से देशो मे होम्योपैथी गहरे संकट मे है। देश के जाने-माने होम्योपैथ कानपुर के डा. प्रभात टंडन से मुझे यह बात पता चली। यदि दुनिया होम्योपैथी के महत्व को निज स्वार्थो के लिये नकार रही है तो वह अपने पैरो मे कुल्हाडी मार रही है। मेरा विश्वास है कि दुनिया एक दिन जरुर महात्मा हैनीमैन के इस उपहार को सिर-आँखो पर बिठायेगी पर तब तक होम्योपैथी को अन्दर से क्षति पहुँचा रहे आस्तिन के साँपो की पहचान कर उन्हे चेताना जरुरी है। (क्रमश:)
(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)
© सर्वाधिकार सुरक्षित
Related Topics in Pankaj Oudhia’s Medicinal Plant Database at http://www.pankajoudhia.com
Cyathula prostrata as Allelopathic ingredient to enrich
herbs of Pankaj Oudhia’s Complex Herbal Formulations (Indigenous Traditional
Medicines) used for Turo Toxicity (Phytotherapy for toxicity of Herbal
Drugs),
Cycas circinalis as Allelopathic ingredient to enrich herbs
of Pankaj Oudhia’s Complex Herbal Formulations (Indigenous Traditional
Medicines) used for Ubio gantio Toxicity (Phytotherapy for toxicity of
Herbal Drugs),
Cyclea arnotii as Allelopathic ingredient to enrich herbs of
Pankaj Oudhia’s Complex Herbal Formulations (Indigenous Traditional Medicines)
used for Ubiotil-kant Toxicity (Phytotherapy for toxicity of Herbal Drugs),
Cyclea peltata as Allelopathic ingredient to enrich herbs of
Pankaj Oudhia’s Complex Herbal Formulations (Indigenous Traditional Medicines)
used for Under-pancho Toxicity (Phytotherapy for toxicity of Herbal Drugs),
Cymbalaria muralis as Allelopathic ingredient to enrich
herbs of Pankaj Oudhia’s Complex Herbal Formulations (Indigenous Traditional
Medicines) used for Undio-bhurat Toxicity (Phytotherapy for toxicity of
Herbal Drugs),
Cymbidium aloifolium as Allelopathic ingredient to enrich
herbs of Pankaj Oudhia’s Complex Herbal Formulations (Indigenous Traditional
Medicines) used for Undo-kanta Toxicity (Phytotherapy for toxicity of Herbal
Drugs),
Cymbopogon caesius as Allelopathic ingredient to enrich
herbs of Pankaj Oudhia’s Complex Herbal Formulations (Indigenous Traditional
Medicines) used for Untaghado Toxicity (Phytotherapy for toxicity of Herbal
Drugs),
Cynodon dactylon as Allelopathic ingredient to enrich herbs
of Pankaj Oudhia’s Complex Herbal Formulations (Indigenous Traditional
Medicines) used for Unt-kantalo Toxicity (Phytotherapy for toxicity of
Herbal Drugs),
Cynoglossum zeylanicum as Allelopathic ingredient to enrich
herbs of Pankaj Oudhia’s Complex Herbal Formulations (Indigenous Traditional
Medicines) used for Untt-kantalo Toxicity (Phytotherapy for toxicity of
Herbal Drugs),
Cyperus alopecuroides as Allelopathic ingredient to enrich
herbs of Pankaj Oudhia’s Complex Herbal Formulations (Indigenous Traditional
Medicines) used for Urajio Toxicity (Phytotherapy for toxicity of Herbal
Drugs),
Comments
मेरे लिए ये नई जानकारी रही. ईश्वर आपको सफलता दे.
हर त्तरफ यही हाल है।