अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -106

अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -106 - पंकज अवधिया


“जामुन से मधुमेह मे लाभ नही होता। चौक गये ना! पर ये सच है। यकीन न हो तो साथ मे भेज गये शोध पत्र देख लो। अब तो भारतीयो को जामुन का गुणगान करना बन्द कर देना चाहिये। बहुत बना लिया दुनिया को।“ वनस्पतियो पर चर्चा के लिये बने एक गूगल ग्रुप मे किसी विदेशी का यह सन्देश आया। उसने निजी तौर पर मुझे भी यह सन्देश भेजा। उसे मालूम था कि उसने बर्रे के छत्ते मे हाथ डाला है। इस सन्देश पर जमकर प्रतिक्रिया होने वाली थी। फिर भी उसने यह किया था। रोज मिलने वाले ढेरो सन्देशो के ढेर मे यह सन्देश दब गया और मै जवाब नही दे पाया। दूसरे दिन फिर यही सन्देश आ गया। मैने संलग्न शोध-पत्रो को देखा तो उसने चूहो पर किये गये कुछ शोधो के विषय मे जानकारी थी। जामुन की पत्तियो के काढे के प्रयोग को विस्तार से बताया गया था। निष्क़र्ष यह निकाला गया था कि जामुन मधुमेह के लिये उपयोगी नही है। मैने इस सन्देश पर कोई त्वरित प्रतिक्रिया नही दी। अब बाहर से फोन आने लगे। एक पहचान वाले वैज्ञानिक के जरिये वही सन्देश आने लगे। मै अनदेखा करता रहा तो उनकी बेसब्री और बढती गयी। आखिर उस वैज्ञानिक ने फोन लगाया। उसने कहा कि कोई खुलेआम तुम्हारे प्रिय पौधे का विरोध कर रहा है और तुम चुप हो। अरे, प्रमाण के साथ तगडा जवाब दो। मैने उन्हे विनम्रता से जवाब दिया कि जामुन मधुमेह के लिये पीढीयो से सफलतापूर्वक प्रयोग हो रहा है। अब इसे बार-बार सिद्ध करने की जरुरत नही है। चाहे जितने शोध-पत्र छापने है, छाप ले, जामुन भारतीय संस्कृति मे रचा-बसा है। फिर मजाकिये लहजे मे मैने कह ही दिया कि हमारे यहाँ जामुन इन्सानो की डायबीटीज ठीक करता है। आप तो चूहो के डायबीटीज के बारे मे बात कर रहे है।

बात खत्म नही हुयी। विस्तार से प्रतिक्रिया का आग्रह होता रहा। मैने फोन रख दिया। इस तरह के हथकंडे वैज्ञानिक जगत मे सामान्य है। चतुर लोग जानते है कि किसी जानकार से कुछ उगलवाना है तो उन्हे गलत कह दो। इससे जानकारो के दिल पर चोट लगती है और फिर वे अपने को सही साबित करने के लिये ज्ञान की पूरी की पूरी गठरी खोल देते है। बेचारे जानकार समझाते रहते है और उकसाने वाले लोग माल समेटकर भाग जाते है। भारतीयो जानकारो मे मैने यह बात कुछ ज्यादा ही देखी है। विदेशो का मोह और उनके द्वारा वाह-वाही इतनी भली लगती है कि वे इसके लिये एडी-चोटी का जोर लगा देते है। जामुन वाली इस घटना मे भी असली उद्देश्य यही था। उनकी उम्मीद के अनुसार मै आवेश मे आता और जामुन के कुछ दुर्लभ प्रयोग उन्हे बता देता अपनी विद्वता झाडने के लिये और बस उनका काम बन जाता है। मेरा मौन उनके किये कराये पर पानी फेर देने वाला साबित हुआ।

जब मैने पारम्परिक चिकित्सकीय ज्ञान का दस्तावेजीकरण करना आरम्भ किया तो शुरुआत मे मुझे बडी परेशानी हुयी। सभी को पकड-पकड कर यह मनवाना पडता था कि पारम्परिक चिकित्सक नीम-हकीम नही है। उनके पास सचमुच दिव्य ज्ञान है। वे सचमुच कैंसर के मरीजो को ठीक करने का प्रयास करते है। भले ही सिकल सेल एनीमिया को लाइलाज मान लिया गया है पर पारम्परिक चिकित्सक ऐसा नही मानते। लोग मेरी बातो को गम्भीरता से नही लेते थे। वे बोलते थे कि बिना नुस्खो को देखे हम कैसे मान ले? यह तो मुश्किल वाली बात थी क्योकि नुस्खे दिखाये नही जा सकते थे और बिना नुस्खे देखे वे मेरी बातो को अहमियत नही देते। मैने एक बार एक लेख लिखा कि कैसे पारम्परिक चिकित्सक एडस के मरीजो की चिकित्सा कर रहे है तो कुछ भारतीय वैज्ञानिक उठ खडे हुये। कहने लगे कि एडस तो अभी की बीमारी है फिर इसके विषय मे पारम्परिक ज्ञान कहाँ से आ गया? अब जब पारम्परिक ज्ञान ही नही था तो पारम्परिक चिकित्सक कैसे इलाज करेंगे? वे इस दावे के आधार पर मेरे दूसरे कार्यो को भी गलत बताने लगे। मैने उन्हे जवाब दिया कि एडस के रोगी को जब आधुनिक चिकित्सा पद्धति के चिकित्सक मरने के लिये छोड देते है तो मरता क्या न करता की तर्ज पर मरीज पारम्परिक चिकित्सको की शरण मे पहुँच जाते है। पारम्परिक चिकित्सक एडस का नाम तक नही जानते। वे तो बस मरीज के लक्षण के आधार पर अपने ज्ञान के अनुसार वनस्पतियो को आजमाते है। उन्हे लगता है कि मरीज की प्रतिरोधक क्षमता कम हो रही है तो वे कुछ विशेष वनस्पतियो का प्रयोग करते है। बहुत से मामलो मे रोगी लम्बे समय तक जीवित रह जाते है। इसी आधार पर मैने लेख लिखा था।

मेरे जवाब को सुनकर भारतीय वैज्ञानिक तर्क करते रहे। इस बीच उन्होने मिलकर एक शोध-पत्र प्रकाशित कर दिया जिसमे मेरे उत्तर के आधार पर यह दावा किया गया कि जडी-बूटियो से एडस का इलाज हो सकता है। शोध-पत्र मे न तो मेरा नाम था और नही पारम्परिक चिकित्सको का सन्दर्भ। इस घटना ने मेरी आँखे खोल दी। मैने निश्चय किया कि यदि मै इसी तरह समझाने के चक्कर मे लगा रहा तो जीवन इसी मे बीत जायेगा और जाने-अनजाने लोग मुझसे सब कुछ उगलवाते जायेंगे। मैने शांति से अपने काम पर ही ध्यान केन्द्रित किया। इतना लिखा कि दुनिया मे शायद ही कोई देश हो जहाँ के शोध दस्तावेजो मे छत्तीसगढ के पारम्परिक चिकित्सको के महत्वपूर्ण योगदान की चर्चा न की गयी हो। पिछले वर्ष पचास से अधिक विश्व सम्मेलनो मे आमंत्रित वक्ताओ मे पारम्परिक चिकित्सकीय ज्ञान के दस्तावेजीकरण के इस प्रयास के विषय मे श्रोताओ को बताया। इस वर्ष फरवरी के आरम्भ मे दक्षिण आफ्रीका के डा. टोनी पुटर ने दिल्ली मे आयोजित एक विश्व कृषि सम्मेलन मे जानकारी दी कि आपके अपने देश भारत मे अमुक व्यक्ति ने मधुमेह पर एक करोड से अधिक पन्ने लिखे है तब लोगो ने आश्चर्य से आँखे चौडी कर ली। इस व्याख्यान को सुनने के बाद श्रोताओ मे से बहुतो ने मुझसे सम्पर्क किया। सही ही कहा गया है, घर का जोगी जोगडा और आन गाँव का सिद्ध।

किसी कार्य के बारे मे ज्यादा लोगो को जानकारी होना भी मुश्किल का काम है। कुछ समय पूर्व मुझे व्याख्यान के लिये मुम्बई बुलाया गया। आयोजको को खबर थी कि मै मधुमेह पर रपट लिख रहा हूँ। प्रमुख आयोजक मुझे अपने घर ले गये शाम के खाने के बहाने। चर्चा आरम्भ हुयी तो उन्होने दस उपयोगी नुस्खो के विषय मे जानकारी माँगी। मैने कहा कि यह तो देश का पारम्परिक ज्ञान है। ऐसे कैसे किसी को नुस्खो के बारे मे बताया जा सकता है? चर्चा का रुख बदला लेकिन फिर नुस्खो मे आ अटका। पेट मे चूहे कूद रहे थे पर खाने का नाम ही नही लिया जा रहा था। संकोचवश कुछ बोला नही गया। शाम सात से रात के बारह बज गये। मैने कहा कि अब वापस चलना होगा क्योकि कल सुबह यात्रा करनी है। इस पर प्रमुख आयोजक ने कहा कि जब तक आप नुस्खे नही बताते न तो आपको खाना मिलेगा और न ही आप यहाँ से जा सकते है। मै चौक गया। घबरा भी गया। मैने जोर से चिल्लाना शुरु किया। शोर सुनकर उनके घरवाले आ गये। मैने उन्हे सारी बात बतायी तो वे बहुत नाराज हुये। उनके बडे भाई ने आदर से मुझे होटल छुडवाया। दूसरे दिन मै हवाई अड्डे के लिये निकल ही रहा था कि प्रमुख आयोजक फिर आ धमके और कहने लगे कि आपके पास नुस्खे है न, वो तो यहाँ के फुटपाथ मे और बसो मे दस-दस रुपयो मे बिकते है। वे चिल्लाते रहे और मै आगे बढ गया। फुटपाथ मे नुस्खे मिल रहे है तो यह सब ड्रामा करने की जरुरत ही क्या थी?

जामुन को पकने मे अभी देर है। फिर भी पारम्परिक चिकित्सक जामुन के पुराने पेडो के पास जाने की जिद मे है। सभी पारम्परिक चिकित्सको के पास जाना तो सम्भव नही है पर कुछ पारम्परिक चिकित्सको के साथ मै इसी सप्ताह जामुन से मिलने जाऊँगा। वनोपज एकत्र करने वाले जंगल की जमीन को साफ करने के लिये जंगल मे आग लगा देते है। इससे बहुत से उपयोगी पेड भी जल जाते है। पारम्परिक चिकित्सक जंगल जाकर इस बात की तसदीक कर लेना चाहते है कि सब कुछ ठीक है। फिर वे जामुन जिसे स्थानीय भाषा मे चिरई जाम कहा जाता है, को अलग-अलग सत्वो से सीचेंगे। इससे पेडो की सेहत सुधरेगी। पारम्परिक चिकित्सक कहते है कि जब ये पेड हमे औषधीय गुणो से परिपूर्ण फल दे रहे है तो हमारा भी यह दायित्व है कि हम उनकी सेवा करे। जंगली पेडो की ऐसी सेवा के बारे मे आपने शायद ही सुना होगा। मै तो अपने को परम सौभाग्यशाली मानता हूँ जो मै इस सेवा मे पारम्परिक चिकित्सको के साथ रहूँगा। (क्रमश:)


(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)

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