अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -104
अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -104 - पंकज अवधिया
कुछ महिनो पहले एक करीबी मित्र का फोन आया। उन्होने पूछा कि आजकल मधुमेह की रपट मे किस विषय पर लिख रहे हो? मैने कहा कि करेला और नीम पर। महिने-दो महिने बीते होंगे कि फिर उनका फोन आ गया। फिर वही प्रश्न पूछा गया। मैने कहा कि करेला और नीम पर। बेसब्र होकर उन्होने कुछ सप्ताह के इंतजार के बाद फिर फोन किया। और मेरे कहने से पहले ही कह दिया कि करेला और नीम से बात आगे बढी क्या? मैने विनम्रता से उत्तर दिया कि नही, करेला और नीम पर ही अटका हूँ। लगता है रपट की विशालता को देखते हुये पूरी जानकारी नही लिख पाऊँ। अब उनसे रहा नही गया। दनदनाते हुये घर आ पहुँचे। मैने उनका स्वागत किया और कहा कि अब दोपहर और शाम का भोजन करके ही जाइयेगा। फिर उन्हे रपट के कुछ अंश पढने को दिये। डीवीडी का ढेर भी उन्हे सौप दिया। वे समझ गये कि करेला और नीम पर सैकडो घंटे बहाये गये है। वे मन लगाकर पढते रहे और करेला और नीम से सम्बन्धित पारम्परिक चिकित्सकीय ज्ञान से अभिभूत हो गये। उन्होने सोचा भी नही था कि मधुमेह (डायबीटीज) के लिये जिन वनस्पतियो का प्रयोग पूरी दुनिया मे हो रहा है उन पर इतने विस्तार से लिखा जा सकता है।
शाम के भोजन के बाद उन्होने प्रश्न किया कि करेला और नीम का प्रयोग सभी रोगी करते है। फिर इन वनस्पतियो पर आधारित ढेरो दवाए बाजार मे है। इनमे से किसी का उल्लेख इस रपट मे नही है। तो क्या बाजार मे उपलब्ध दवाए और आम लोगो की जानकारी बेमानी है? मैने कहा कि इसमे कोई शक नही कि करेला और नीम मधुमेह के रोगियो को असीम राहत पहुँचा सकते है। वे मधुमेह को ठीक भी कर सकते है पर जिस ढंग से इनका उपयोग आम भारतीय कर रहे है उससे उतना लाभ नही मिल पा रहा है जिनकी उम्मीद की जाती है। मैने प्रश्न किया “ आप ही बताये मधुमेह के असंख्य नुस्खो मे से किसी भी एक से आपने रोगियो को रोगमुक्त होते देखा है। मृगतृष्णा की तरह रोगी एक दवा से दूसरी दवा की खोज मे भटकता रहता है। और अंत मे मधुमेह का कहर लिये इस दुनिया से चला जाता है। मधुमेह की चिकित्सा के लिये उपयोगी जितने नुस्खे आम भारतीयो के पास है उतने पूरी दुनिया मे किसी के पास नही है। फिर भी भारत मधुमेह की विश्व राजधानी बनता जा रहा है। इसका मतलब यह नही है कि ये नुस्खे कारगर नही है। कमी इस बात की है कि इन नुस्खो के सही प्रयोग की जानकारी नही है। नुस्खे भले ही सरल दिखे। प्राचीन ग्रंथो के आधुनिक संस्करण भले ही करेला और नीम के मिश्रण से मधुमेह मे लाभ होता है, बताकर चुप हो जाये पर इनका प्रयोग बहुत ही जटिल है। मुझे पूरा विश्वास है कि प्राचीन ग्रंथो की रचना करने वाले लोगो के पास प्रयोग विधियो की विस्तार से जानकारी थी पर उन्होने केवल नुस्खो को लिखा और प्रयोग विधि अपने शिष्यो तक ही सीमित रखी। कालांतर मे जब भारतीय चिकित्सको ने इन नुस्खो को देखा तो अपने विवेक के अनुसार इनका प्रयोग करने लगे। दवा कम्पनियो ने भी इसका लाभ उठाया और दवाए बाजार मे प्रस्तुत कर दी। सही प्रयोग विधियो के अभाव मे सारा दिव्य ज्ञान उपलब्ध होते हुये भी व्यर्थ हो गया। इस बात पर कभी विचार नही किया गया। प्राचीन ग्रंथकारो से शिष्यो और शिष्यो से नयी पीढी के शिष्यो के पास यह ज्ञान जुबानी ज्ञान के रुप मे आया। इस मूल ज्ञान के दस्तावेजीकरण के प्रयास कभी नही किये गये।
जब मैने करेला और नीम पर ध्यान केन्द्रित किया और जुबानी ज्ञान को कलमबद्ध करना शुरु किया तो ज्ञान का विस्तार देखकर मै दंग रह गया। इस विस्तार से यह स्पष्ट होने लगा कि जिन ग्रन्थो को हम सब कुछ मान बैठे है वे तो ज्ञान के विशाल सागर मे एक बून्द से भी कम है। यदि देश मे बिखरे जुबानी ज्ञान को सही मायने मे लिखना आरम्भ किया जाये तो असंख्य ग्रंथ तैयार हो जायेंगे। ये ग्रंथ न केवल वर्तमान पीढी के लिये उपयोगी साबित होंगे बल्कि पीढीयो तक भारत को विश्व के शिखर पर रखेंगे।
पश्चिमी देश करेला और नीम के चमत्कारिक गुणो को जानते है। इन पर विस्तार से शोध हो रहे है। पर मुझे यकीन है कि इन वनस्पतियो के विषय मे भारत मे उपलब्ध जुबानी ज्ञान को नये शोधो के माध्यम से समझने मे इन देशो को सदियाँ लग जायेंगी। करेला और नीम पर मेरे कुछ शोध आलेख इंटरनेट के माध्यम से पढे जा सकते है। उनमे केवल सतही जानकारी है। इस सतही जानकारी को ही खजाना मानकर दुनिया भर के विषेषज्ञ मुझे धन्यवाद सन्देश भेजते रहते है। यह जानकारी कुछ पन्नो की है। पता नही, हजारो घंटो मे नियमित लेखन से तैयार दस्तावेज जब दुनिया के सामने आयेंगे तब उनकी क्या प्रतिक्रिया होगी?
करेला और नीम पर जानकारी के विस्तार को देखकर करीबी मित्र ने कहा कि अब इस रपट को जन साधारण के लिये उपलब्ध कराने के प्रयास शुरु कर देने चाहिये। लिखना तो जारी रहेगा पर इसके साथ ही ज्ञान का उपयोग होना भी जरुरी है। मित्र की सलाह सही है। पर इसमे ढेरो अडचने है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर “कोई” है जिसे भारतीय ज्ञान से समस्याए है। वह नही चाहता कि मेरा काम विश्व-मंच तक पहुँचे। मुझे इसका आभास तब ही हो गया था जब इकोपोर्ट मे मेरे योगदान को गूगल ने दिखाना बन्द कर दिया था। उस समय मेरा नाम खोजी इंजनो पर खोजने से पाँच लाख से ज्यादा परिणाम सामने आते थे। उस समय इकोपोर्ट पर कूट भाषा मे मधुमेह का रपट नही डाली गयी थी। जब इतने शोध परिणाम सामने आते थे तो भारतीय ज्ञान को पेटेंण्ट से बचाने के लिये जी-जान से जुटे सामाजिक कार्यकर्ताओ को अपने पक्ष मे दस्तावेज मिल जाया करते थे। शोधार्थियो को मदद हो जाती थी। भारतीय ज्ञान के विस्तार के बल पर विशेषज्ञ दुनिया भर मे इसे उदाहरण के रुप मे प्रस्तुत कर देते थे। पर कुछ ही समय बाद इकोपोर्ट ने गूगल और अन्य खोजी इंजनो के प्रवेश को रोक दिया। कारण बताया गया कि तकनीकी खराबी है सुधार ली जायेगी। जब मैने मधुमेह की रपट के साढे छह लाख पन्ने इकोपोर्ट मे डाले तो भी इकोपोर्ट ने इस दस्तावेज को खोजी इंजनो की सहायता से दुनिया के सामने नही आने दिया। चूँकि सारी रपट कूट भाषा मे थी इसलिये ये साढे छह लाख पन्ने उसके कोई काम के नही थे। इकोपोर्ट के टालमटोल रवैये से असंतुष्ट होकर मैने अपने निजी डेटाबेस मे रपट को शामिल कर लिया। जैसा कि आप जानते है कि अब यह रपट करोडो पन्ने की हो गयी है। इकोपोर्ट से विदाई “उसे” रास नही आयी। परिणामस्वरुप मुझे अलग-अलग तरीको से परेशान किया जाने लगा। इनमे से एक गूगल से मेरे योगदानो को गायब करने का प्रयास भी है। आज गूगल मे मेरा नाम खोजने पर मुश्किल से 18 हजार परिणाम मिलते है जबकि नेट पर मेरे लाखो पन्ने, पैतीस हजार से अधिक चित्र और दूसरी शोध सामग्रियाँ है। इन्हे जानबूझकर नही दिखाया जाता है। याहू एक लाख परिणाम दिखाता है पर फिर भी ये कम है। यह अंतरराष्ट्रीय दबाव और भिड के काम करने को प्रेरित करता है। कोई किसी को आखिर कब तक रोक सकता है। 1000 जीबी से अधिक के निज डेटाबेस को अब आन-लाइन करने की योजना है। जैसा कि आप जानते है कि मैने अभी तक इन सब कार्यो के लिये देश से एक पैसा भी नही लिया है। सब अपने बूते पर करता रहा पर अब 1000 जीबी के डेटाबेस को आन-लाइन करने मे मै अपने को आर्थिक रुप से अक्षम पाता हूँ। फिर भी प्रयास जारी है। इसे आन-लाइन करने पर फिर से अडचने खडी की जायेंगी पर तब की समस्या से तब निपटा जायेगा।
इस विस्तृत रपट को समझाने की तैयारी मै कर रहा हूँ। आने वाले दिनो मे जब भारतीय स्वास्थ्य विशेषज्ञ इस रपट मे दर्ज पारम्परिक ज्ञान को समझना चाहेंगे तो मुझे उन्हे सरल ढंग से इसे समझाना होगा। अभी तक तैयार रपट को समझाने मे यदि मै रोज आठ घंटे दूँ तो भी पाँच साल लग जायेंगे। मै तैयार हूँ पर क्या पूरे धैर्य से कोई इसे समझना चाहेगा? यह एक बडा प्रश्न है। रोज शाम को जिस हेल्थ क्लब मे मै टेबल टेनिस खेलता हूँ वहाँ बहुत से लोग इस रपट के बारे मे जानने आ जाते है। वे कहते है कि हमे आप कुछ लाइनो मे सारांश बता दे या सबसे अधिक प्रभावी नुस्खे बता दे। कही हमारे स्वास्थ्य विशेषज्ञ भी यही राह न पकड ले।
इस रपट मे पूरा समय लगने के कारण मै अन्ध-विश्वास के खिलाफ जंग मे सक्रिय रुप से भाग नही ले पा रहा हूँ। जैसा आपने पूर्व के लेखो मे पढा है कि दुनिया के बहुत से संगठन अन्ध-विश्वास के खिलाफ एक मंच पर आना चाहते है। वे इस लेखमाला से शुरुआत करना चाहते है। मैने पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण की कोई विधिवत शिक्षा नही ली है। मै तो कृषि वैज्ञानिक हूँ। बडी संख्या मे किसान इस अनुरोध के साथ राह देख रहे है कि मै कृषि के क्षेत्र मे अपना योगदान दूँ। पारम्परिक ज्ञान पर काम ठीक है पर इस घर फूँक तमाशे से तो जीवन चलने वाला नही। अन्ध-विश्वास के खिलाफ जंग के लिये जीवन समर्पित करना भी उतना ही जरुरी है जितना पारम्परिक ज्ञान पर काम करना। इसी उधेडबुन मे इस लेखमाला को जारी रखने मे जुटा हुआ हूँ। (क्रमश:)
(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)
© सर्वाधिकार सुरक्षित
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कुछ महिनो पहले एक करीबी मित्र का फोन आया। उन्होने पूछा कि आजकल मधुमेह की रपट मे किस विषय पर लिख रहे हो? मैने कहा कि करेला और नीम पर। महिने-दो महिने बीते होंगे कि फिर उनका फोन आ गया। फिर वही प्रश्न पूछा गया। मैने कहा कि करेला और नीम पर। बेसब्र होकर उन्होने कुछ सप्ताह के इंतजार के बाद फिर फोन किया। और मेरे कहने से पहले ही कह दिया कि करेला और नीम से बात आगे बढी क्या? मैने विनम्रता से उत्तर दिया कि नही, करेला और नीम पर ही अटका हूँ। लगता है रपट की विशालता को देखते हुये पूरी जानकारी नही लिख पाऊँ। अब उनसे रहा नही गया। दनदनाते हुये घर आ पहुँचे। मैने उनका स्वागत किया और कहा कि अब दोपहर और शाम का भोजन करके ही जाइयेगा। फिर उन्हे रपट के कुछ अंश पढने को दिये। डीवीडी का ढेर भी उन्हे सौप दिया। वे समझ गये कि करेला और नीम पर सैकडो घंटे बहाये गये है। वे मन लगाकर पढते रहे और करेला और नीम से सम्बन्धित पारम्परिक चिकित्सकीय ज्ञान से अभिभूत हो गये। उन्होने सोचा भी नही था कि मधुमेह (डायबीटीज) के लिये जिन वनस्पतियो का प्रयोग पूरी दुनिया मे हो रहा है उन पर इतने विस्तार से लिखा जा सकता है।
शाम के भोजन के बाद उन्होने प्रश्न किया कि करेला और नीम का प्रयोग सभी रोगी करते है। फिर इन वनस्पतियो पर आधारित ढेरो दवाए बाजार मे है। इनमे से किसी का उल्लेख इस रपट मे नही है। तो क्या बाजार मे उपलब्ध दवाए और आम लोगो की जानकारी बेमानी है? मैने कहा कि इसमे कोई शक नही कि करेला और नीम मधुमेह के रोगियो को असीम राहत पहुँचा सकते है। वे मधुमेह को ठीक भी कर सकते है पर जिस ढंग से इनका उपयोग आम भारतीय कर रहे है उससे उतना लाभ नही मिल पा रहा है जिनकी उम्मीद की जाती है। मैने प्रश्न किया “ आप ही बताये मधुमेह के असंख्य नुस्खो मे से किसी भी एक से आपने रोगियो को रोगमुक्त होते देखा है। मृगतृष्णा की तरह रोगी एक दवा से दूसरी दवा की खोज मे भटकता रहता है। और अंत मे मधुमेह का कहर लिये इस दुनिया से चला जाता है। मधुमेह की चिकित्सा के लिये उपयोगी जितने नुस्खे आम भारतीयो के पास है उतने पूरी दुनिया मे किसी के पास नही है। फिर भी भारत मधुमेह की विश्व राजधानी बनता जा रहा है। इसका मतलब यह नही है कि ये नुस्खे कारगर नही है। कमी इस बात की है कि इन नुस्खो के सही प्रयोग की जानकारी नही है। नुस्खे भले ही सरल दिखे। प्राचीन ग्रंथो के आधुनिक संस्करण भले ही करेला और नीम के मिश्रण से मधुमेह मे लाभ होता है, बताकर चुप हो जाये पर इनका प्रयोग बहुत ही जटिल है। मुझे पूरा विश्वास है कि प्राचीन ग्रंथो की रचना करने वाले लोगो के पास प्रयोग विधियो की विस्तार से जानकारी थी पर उन्होने केवल नुस्खो को लिखा और प्रयोग विधि अपने शिष्यो तक ही सीमित रखी। कालांतर मे जब भारतीय चिकित्सको ने इन नुस्खो को देखा तो अपने विवेक के अनुसार इनका प्रयोग करने लगे। दवा कम्पनियो ने भी इसका लाभ उठाया और दवाए बाजार मे प्रस्तुत कर दी। सही प्रयोग विधियो के अभाव मे सारा दिव्य ज्ञान उपलब्ध होते हुये भी व्यर्थ हो गया। इस बात पर कभी विचार नही किया गया। प्राचीन ग्रंथकारो से शिष्यो और शिष्यो से नयी पीढी के शिष्यो के पास यह ज्ञान जुबानी ज्ञान के रुप मे आया। इस मूल ज्ञान के दस्तावेजीकरण के प्रयास कभी नही किये गये।
जब मैने करेला और नीम पर ध्यान केन्द्रित किया और जुबानी ज्ञान को कलमबद्ध करना शुरु किया तो ज्ञान का विस्तार देखकर मै दंग रह गया। इस विस्तार से यह स्पष्ट होने लगा कि जिन ग्रन्थो को हम सब कुछ मान बैठे है वे तो ज्ञान के विशाल सागर मे एक बून्द से भी कम है। यदि देश मे बिखरे जुबानी ज्ञान को सही मायने मे लिखना आरम्भ किया जाये तो असंख्य ग्रंथ तैयार हो जायेंगे। ये ग्रंथ न केवल वर्तमान पीढी के लिये उपयोगी साबित होंगे बल्कि पीढीयो तक भारत को विश्व के शिखर पर रखेंगे।
पश्चिमी देश करेला और नीम के चमत्कारिक गुणो को जानते है। इन पर विस्तार से शोध हो रहे है। पर मुझे यकीन है कि इन वनस्पतियो के विषय मे भारत मे उपलब्ध जुबानी ज्ञान को नये शोधो के माध्यम से समझने मे इन देशो को सदियाँ लग जायेंगी। करेला और नीम पर मेरे कुछ शोध आलेख इंटरनेट के माध्यम से पढे जा सकते है। उनमे केवल सतही जानकारी है। इस सतही जानकारी को ही खजाना मानकर दुनिया भर के विषेषज्ञ मुझे धन्यवाद सन्देश भेजते रहते है। यह जानकारी कुछ पन्नो की है। पता नही, हजारो घंटो मे नियमित लेखन से तैयार दस्तावेज जब दुनिया के सामने आयेंगे तब उनकी क्या प्रतिक्रिया होगी?
करेला और नीम पर जानकारी के विस्तार को देखकर करीबी मित्र ने कहा कि अब इस रपट को जन साधारण के लिये उपलब्ध कराने के प्रयास शुरु कर देने चाहिये। लिखना तो जारी रहेगा पर इसके साथ ही ज्ञान का उपयोग होना भी जरुरी है। मित्र की सलाह सही है। पर इसमे ढेरो अडचने है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर “कोई” है जिसे भारतीय ज्ञान से समस्याए है। वह नही चाहता कि मेरा काम विश्व-मंच तक पहुँचे। मुझे इसका आभास तब ही हो गया था जब इकोपोर्ट मे मेरे योगदान को गूगल ने दिखाना बन्द कर दिया था। उस समय मेरा नाम खोजी इंजनो पर खोजने से पाँच लाख से ज्यादा परिणाम सामने आते थे। उस समय इकोपोर्ट पर कूट भाषा मे मधुमेह का रपट नही डाली गयी थी। जब इतने शोध परिणाम सामने आते थे तो भारतीय ज्ञान को पेटेंण्ट से बचाने के लिये जी-जान से जुटे सामाजिक कार्यकर्ताओ को अपने पक्ष मे दस्तावेज मिल जाया करते थे। शोधार्थियो को मदद हो जाती थी। भारतीय ज्ञान के विस्तार के बल पर विशेषज्ञ दुनिया भर मे इसे उदाहरण के रुप मे प्रस्तुत कर देते थे। पर कुछ ही समय बाद इकोपोर्ट ने गूगल और अन्य खोजी इंजनो के प्रवेश को रोक दिया। कारण बताया गया कि तकनीकी खराबी है सुधार ली जायेगी। जब मैने मधुमेह की रपट के साढे छह लाख पन्ने इकोपोर्ट मे डाले तो भी इकोपोर्ट ने इस दस्तावेज को खोजी इंजनो की सहायता से दुनिया के सामने नही आने दिया। चूँकि सारी रपट कूट भाषा मे थी इसलिये ये साढे छह लाख पन्ने उसके कोई काम के नही थे। इकोपोर्ट के टालमटोल रवैये से असंतुष्ट होकर मैने अपने निजी डेटाबेस मे रपट को शामिल कर लिया। जैसा कि आप जानते है कि अब यह रपट करोडो पन्ने की हो गयी है। इकोपोर्ट से विदाई “उसे” रास नही आयी। परिणामस्वरुप मुझे अलग-अलग तरीको से परेशान किया जाने लगा। इनमे से एक गूगल से मेरे योगदानो को गायब करने का प्रयास भी है। आज गूगल मे मेरा नाम खोजने पर मुश्किल से 18 हजार परिणाम मिलते है जबकि नेट पर मेरे लाखो पन्ने, पैतीस हजार से अधिक चित्र और दूसरी शोध सामग्रियाँ है। इन्हे जानबूझकर नही दिखाया जाता है। याहू एक लाख परिणाम दिखाता है पर फिर भी ये कम है। यह अंतरराष्ट्रीय दबाव और भिड के काम करने को प्रेरित करता है। कोई किसी को आखिर कब तक रोक सकता है। 1000 जीबी से अधिक के निज डेटाबेस को अब आन-लाइन करने की योजना है। जैसा कि आप जानते है कि मैने अभी तक इन सब कार्यो के लिये देश से एक पैसा भी नही लिया है। सब अपने बूते पर करता रहा पर अब 1000 जीबी के डेटाबेस को आन-लाइन करने मे मै अपने को आर्थिक रुप से अक्षम पाता हूँ। फिर भी प्रयास जारी है। इसे आन-लाइन करने पर फिर से अडचने खडी की जायेंगी पर तब की समस्या से तब निपटा जायेगा।
इस विस्तृत रपट को समझाने की तैयारी मै कर रहा हूँ। आने वाले दिनो मे जब भारतीय स्वास्थ्य विशेषज्ञ इस रपट मे दर्ज पारम्परिक ज्ञान को समझना चाहेंगे तो मुझे उन्हे सरल ढंग से इसे समझाना होगा। अभी तक तैयार रपट को समझाने मे यदि मै रोज आठ घंटे दूँ तो भी पाँच साल लग जायेंगे। मै तैयार हूँ पर क्या पूरे धैर्य से कोई इसे समझना चाहेगा? यह एक बडा प्रश्न है। रोज शाम को जिस हेल्थ क्लब मे मै टेबल टेनिस खेलता हूँ वहाँ बहुत से लोग इस रपट के बारे मे जानने आ जाते है। वे कहते है कि हमे आप कुछ लाइनो मे सारांश बता दे या सबसे अधिक प्रभावी नुस्खे बता दे। कही हमारे स्वास्थ्य विशेषज्ञ भी यही राह न पकड ले।
इस रपट मे पूरा समय लगने के कारण मै अन्ध-विश्वास के खिलाफ जंग मे सक्रिय रुप से भाग नही ले पा रहा हूँ। जैसा आपने पूर्व के लेखो मे पढा है कि दुनिया के बहुत से संगठन अन्ध-विश्वास के खिलाफ एक मंच पर आना चाहते है। वे इस लेखमाला से शुरुआत करना चाहते है। मैने पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण की कोई विधिवत शिक्षा नही ली है। मै तो कृषि वैज्ञानिक हूँ। बडी संख्या मे किसान इस अनुरोध के साथ राह देख रहे है कि मै कृषि के क्षेत्र मे अपना योगदान दूँ। पारम्परिक ज्ञान पर काम ठीक है पर इस घर फूँक तमाशे से तो जीवन चलने वाला नही। अन्ध-विश्वास के खिलाफ जंग के लिये जीवन समर्पित करना भी उतना ही जरुरी है जितना पारम्परिक ज्ञान पर काम करना। इसी उधेडबुन मे इस लेखमाला को जारी रखने मे जुटा हुआ हूँ। (क्रमश:)
(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)
© सर्वाधिकार सुरक्षित
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Cyperus articulatus as Allelopathic ingredient to enrich
herbs of Pankaj Oudhia’s Complex Herbal Formulations (Indigenous Traditional
Medicines) used for Vajradanti Toxicity (Phytotherapy for toxicity of Herbal
Drugs),
Cyperus compressus as Allelopathic ingredient to enrich
herbs of Pankaj Oudhia’s Complex Herbal Formulations (Indigenous Traditional
Medicines) used for Vilayati Akro Toxicity (Phytotherapy for toxicity of
Herbal Drugs),
Cyperus corymbosus as Allelopathic ingredient to enrich
herbs of Pankaj Oudhia’s Complex Herbal Formulations (Indigenous Traditional
Medicines) used for Safed Mushali Toxicity (Phytotherapy for toxicity of
Herbal Drugs),
Cyclea peltata as Allelopathic ingredient to enrich herbs of
Pankaj Oudhia’s Complex Herbal Formulations (Indigenous Traditional Medicines)
used for Under-pancho Toxicity (Phytotherapy for toxicity of Herbal Drugs),
Cymbalaria muralis as Allelopathic ingredient to enrich
herbs of Pankaj Oudhia’s Complex Herbal Formulations (Indigenous Traditional
Medicines) used for Undio-bhurat Toxicity (Phytotherapy for toxicity of
Herbal Drugs),
Cymbidium aloifolium as Allelopathic ingredient to enrich
herbs of Pankaj Oudhia’s Complex Herbal Formulations (Indigenous Traditional
Medicines) used for Undo-kanta Toxicity (Phytotherapy for toxicity of Herbal
Drugs),
Cymbopogon caesius as Allelopathic ingredient to enrich
herbs of Pankaj Oudhia’s Complex Herbal Formulations (Indigenous Traditional
Medicines) used for Untaghado Toxicity (Phytotherapy for toxicity of Herbal
Drugs),
Cynodon dactylon as Allelopathic ingredient to enrich herbs
of Pankaj Oudhia’s Complex Herbal Formulations (Indigenous Traditional
Medicines) used for Unt-kantalo Toxicity (Phytotherapy for toxicity of
Herbal Drugs),
Cynoglossum zeylanicum as Allelopathic ingredient to enrich
herbs of Pankaj Oudhia’s Complex Herbal Formulations (Indigenous Traditional
Medicines) used for Untt-kantalo Toxicity (Phytotherapy for toxicity of
Herbal Drugs),
Cyperus alopecuroides as Allelopathic ingredient to enrich
herbs of Pankaj Oudhia’s Complex Herbal Formulations (Indigenous Traditional
Medicines) used for Urajio Toxicity (Phytotherapy for toxicity of Herbal
Drugs),
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