साल के फूल, बवासिर और कान्हा

साल के फूल, बवासिर और कान्हा

(मेरी कान्हा यात्रा-1)
- पंकज अवधिया


“21 लौंग और 21 साल के फूल व फल लीजिये और फिर उसमे पाँच तरह की पत्तियो को मिलाइये। एक मात्रा बवासिर (पाइल्स) से प्रभावित लोगो को दीजिये और उन्हे इस महारोग से सदा के लिये मुक्ति दिलवाइये।“ कान्हा नेशनल पार्क के गाइड ने मुझे यह जानकारी दी तो मैने तुरंत की इसे दर्ज कर लिया। कान्हा मे साल (शोरिया रोबस्टा) के जंगल है। अभी उनमे पुष्पन और फलन हो रहा है। साल के जंगल छत्तीसगढ मे भी है। पिछले सप्ताह मै इन जंगलो मे था। साथ मे पारम्परिक चिकित्सक भी थे। उन्होने फूलो के प्रयोग से किसी भी तरह के दस्त की चिकित्सा के बारे मे बताया था। वे शायद कान्हा के गाइड की तरह इसके बवासिर मे उपयोग के विषय मे नही जानते होंगे। मैने इन जानकारियो को सीजीबीडी नामक डेटाबेस मे दर्ज कर लिया। इस डेटाबेस मे साल पर आधारित आठ हजार से अधिक पारम्परिक औषधीय मिश्रणो के विषय मे जानकारी है। यह विडम्बना ही है कि इन मिश्रणो के बहुत कम जानकार अब जीवित है।

कान्हा नेशनल पार्क दशको से भारत ही नही दुनिया भर के लोगो को आकर्षित कर रहा है। यहाँ का मुख्य आकर्षण रायल बेंगाल टाइगर है। टाइगर के नाम पर ही ज्यादातर पर्य़टक आते है। शहरी भागदौड से दूर शांति के कुछ पल की तलाश मे भी लोग आते है। भरी गर्मी मे जब मैने यहाँ जाने का मन बनाया तो सबसे पहले ठहरने के स्थान की खोज-खबर ली। इंटरनेट मे जानकारियो का अम्बार है पर 400 रुपये एक दिन से लेकर 16,000 रुपये एक दिन तक के होटलो ने मुझे पशोपेश मे डाल दिया। मैने आन-लाइन बुकिंग करानी चाही तो मित्रो ने सलाह दी कि अभी ज्यादा पर्यटक नही है इसलिये वही जाकर मनपसन्द होटल चुन लेना। पार्क के अन्दर जाने के लिये मुक्की गेट और खटिया गेट है। मुझे खटिया गेट जाने की सलाह दी गयी। बताया गया कि रायपुर से मुक्की गेट जाने का रास्ता इतना खराब है कि 53 किमी के एक भाग को पार करने मे साढे तीन घंटे लग सकते है। रायपुर से कवर्धा, चिल्फी, बिछिया और अंजनिया होते हुये खटिया गेट पहुँचने की सलाह दी गयी। मैने टाटा इंडिका चुनी और 13 मई की सुबह कान्हा की ओर निकल पडा।

कान्हा नेशनल पार्क पर एक जैसी जानकारियाँ इंटरनेट पर मिलती है। सारा ध्यान टाइगर पर होता है। इस एकतरफा आकर्षण के चलते कन्हा के दूसरे पक्षो पर चर्चा नही ही की जाती है। मुझे टाइगर मे जरा भी रुचि नही है। यह पढने मे अटपटा लग सकता है पर यह सच है। फिर कान्हा जाने की क्या जरुरत? मित्रो का यह प्रश्न सही था। मै कान्हा वनस्पतियो के लिये जा रहा था।

गाडी मे ड्रायवर के साथ सफर करने मे बडी बोरियत होती है पर कवर्धा के बाद से जंगलो के शुरु होते ही मन बाहर लग गया। एक जगह आग लगी हुयी थी। बहुत से छोटे-बडे पेड जल रहे थे। पास जाकर देखा तो यूकिलिप्टस का सरकारी प्लांटेशन था। सडक किनारे स्थित इस प्लांटेशन मे आग की ओर किसी का ध्यान नही था। आस-पास कोई दिख भी नही रहा था। आग बुझाने की गरज से पास पहुँचा तो देखा कि पेडो के नीचे उग रहे जैट्रोफा के पौधे भी जल रहे थे। आग बुझाना सम्भव नही था। आमतौर मे जैट्रोफा के पौधे आसानी से नही जलते है क्योकि उनके अन्दर लेटेक्स भरा होता है। आग से वे झुलस अवश्य रहे थे। जैट्रोफा और यूकिलिप्टस के साथ पलाश के पौधे भी उगे हुये थे। वे भी जल रहे थे। काफी देर रुकने के बाद हम उस स्थान से आगे बढे। हमने पास के थाने मे इसकी सूचना देनी चाही पर उन्होने इसमे रुचि नही दिखायी।

बायोडीजल के स्त्रोत के रुप मे जैट्रोफा का बहुत प्रचार-प्रसार किया गया पर जमीनी स्तर पर यह असफल रहा। सफर के दौरान बहुत से गाँवो के रुककर मैने जैट्रोफा के बारे मे लोगो के विचार पूछे। सभी ने नकारात्मक उत्तर दिये। सरकारी जमीन पर अभी भी इसे देखा जा सकता है। चिल्फी घाटी मे सडक के किनारे लगा जैट्रोफा अब जंगलो के भीतर फैल रहा है। घाटी मे चढते हुये बहुत सी जगहो पर मैने यह देखा। चिल्फी के बाद साल के जंगलो मे भीतर तक यह पहुँच गया है। लोगो ने बताया कि जैट्रोफा का यह निर्बाध फैलाव जंगल मे नित नयी समस्याए पैदा कर रहा है।

चिल्फी के नौ किमी पहले एक ढाबे पर चाय के लिये हम रुके। ढाबे मे एक बैगा आदिवासी से मुलाकात हो गयी। वह हमसे बात करने मे कतराता रहा। ढाबे वाले ने बताया कि यह सोन कुत्ता का शिकारी है और महिने मे कई कुत्ते पकडकर शहरियो को बेचता है। भारत मे सोन कुत्ता के शिकार पर प्रतिबन्ध है। यह जंगली कुत्ता जंगल मे बाघ से भी खतरनाक माना जाता है। यह समूह मे शिकार करता है। लोग बताते है कि जब ये किसी हिरन का पीछा करते है तो दौडते हिरन का माँस नोच-नोच कर खाते रहते है जब तक की वह गिर न जाये। बडे-बडे शिकारी सोन कुत्ता को देखकर राह बदल लेते है। सोन कुत्ता का शिकार कल्पना से परे है। मुझे बैगा की बात पर विश्वास नही हुआ। उसने कुछ प्रमाण दिखाये। आमतौर पर बैगा आदिवासी शिकार के तरीको की जानकारी गोपनीय रखते है। किसी को भी इसकी जानकारी नही दी जाती है। हम तो चाय पीने रुके थे इसलिये इतने कम समय मे कुछ जान पाना सम्भव नही था। उसका पता लेकर आगे बढने मे ही समझदारी थी।

जिस रास्ते मे हमारी गाडी दौड रही थी उस रास्ते मे बचपन मे अक्सर जाना होता था। ननिहाल जबलपुर मे है। राज्य परिवहन की बसे इसी मार्ग से जाती थी। अल सुबह रायपुर से रवाना होकर दिन भर का सफर करते हुये रात को जबलपुर पहुँचती थी। उस समय रास्ते मे घने जंगल हुआ करते थे। इतने सालो बाद इस बार जब फिर से उस रास्ते से गुजरना हुआ तो जंगलो की जगह खेत और मैदान दिखे। दिल बैठ गया।

दोपहर दो बजे कान्हा क्षेत्र मे हमारी गाडी पहुँच गयी और कुकुरमुत्तो की तरह चारो ओर छोटे-बडे होटल और रिसोर्ट दिखायी देने लगे। हम बढते रहे और खटिया गेट तक आ पहुँचे। गेट के पास ही एक मोटल दिखा। नीचे उतरकर किराया पूछा और कमरे देखे तो बडा आश्चर्य हुआ कि एक व्यक्ति के लिये मात्र 750 रुपये पर अच्छा कमरा उपलब्ध था। तैयारी तो तीन-चार हजार रुपये वाले कमरे की थी पर इतने कम पर कमरा मिल जाने से सुखद आश्चर्य हुआ। मित्रो ने बताया था कि गर्मी मे एसी की जगह कूलर वाला कमरा लेना क्योकि पावर कट होने पर जनरेटर से कूलर एक बार चल जाता है पर एसी मे मुश्किल होती है। वैसे जब तक मै कान्हा मे रहा पावर कट जैसी कोई बात देखने मे नही आयी।

कान्हा मे सुबह और शाम दो सफारी होती है। सुबह पाँच से ग्यारह और शाम को चार से सात। पार्क के बाहर खुली जिप्सी गाडियाँ मिल जाती है। इसमे छह लोग बैठ सकते है। आप चाहे तो पूरी गाडी बुक करा सकते है। यदि आपकी संख्या कम है तो दूसरो को बिठाकर खर्च का भार कम कर सकते है। एक सफारी के लिये वन विभाग 680 रुपये लेता है जिसमे एक गाइड का शुल्क भी होता है। जिप्सी वाले सुबह की सफारी का 1500 और शाम की सफारी का 1000 रुपये लेते है। पार्क मे बडे ही कडे नियम है। गाडी का हार्न नही बजाया जा सकता। गति 20 किमी प्रति घंटे की होती है। पर्यटको को नीचे नही उतरने दिया जाता। पार्क से आप कुछ ले जा नही सकते है सिवाय छायाचित्रो और स्मृतियो के। सफारी मे टाइगर के अलावा बहुत से वन्य जीव आसानी से दिख जाते है। सफारी से लौटने के बाद पर्यटक होटलो मे लौट जाते है। सक्षम पर्य़टको के लिये स्थानीय लोगो द्वारा नृत्य का आयोजन किया जाता है। इसके लिये 2500 से 3500 रुपये लिये जाते है। नृत्य एक-डेढ घंटे का होता है। शाम सात बजे से खटिया गेट मे पास वाइल्ड लाइफ फिल्म शो का आयोजन भी किया जाता है। (क्रमश:)

(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)


© सर्वाधिकार सुरक्षित





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Codiaeum variegatum as Allelopathic ingredient to enrich herbs of Pankaj Oudhia’s Complex Herbal Formulations (Indigenous Traditional Medicines) used for Makhamal Toxicity (Phytotherapy for toxicity of Herbal Drugs),
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Coldenia procumbens as Allelopathic ingredient to enrich herbs of Pankaj Oudhia’s Complex Herbal Formulations (Indigenous Traditional Medicines) used for Morchi Toxicity (Phytotherapy for toxicity of Herbal Drugs),
Colebrookea oppositifolia as Allelopathic ingredient to enrich herbs of Pankaj Oudhia’s Complex Herbal Formulations (Indigenous Traditional Medicines) used for Mandusi Toxicity (Phytotherapy for toxicity of Herbal Drugs),

Comments

हम तो आपके साथ मुफ्त में घूम लिए धन्यवाद!!
Udan Tashtari said…
ज्ञानवर्धक..कान्हा कब होकर लौट गये भाई??
हमेशा की तरह ज्ञानवर्धक और रोचक विवरण है।
Gyan Darpan said…
ज्ञानवर्धक और रोचक विवरण
REALLY WONDERFUL AND INTERESTING.
VINOD KHURANA
CHAIRMAN
SUDESH - VATIKA
BATHINDA
PUNJAB
INDIA

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