आप कान्हा आये और खातिरदारी का मौका ही नही दिया

आप कान्हा आये और खातिरदारी का मौका ही नही दिया

(मेरी कान्हा यात्रा-10)
- पंकज अवधिया


“आपके लेखो ने तो हमारे विभाग मे हडकम्प मचा रखा है। अब और कितना लिखेंगे? आप कब आये और इतने दिन बिता कर चले गये हमे कानो कान खबर तक नही हुयी। आपने हमे खातिरदारी का मौका ही नही दिया। सूखे-सूखे चले गये। आपके लिखे को पढकर लगता है कि आप कान्हा मे पन्द्रह दिन तो अवश्य रुके होंगे। आपने न जाने कितनी सफारी की होगी पर रजिस्टर मे आप दिखे नही। क्या सब गोपनीय तरीके से किया? अगली बार आइयेगा तो सूचना देकर आइयेगा-----“ कान्हा यात्रा पर लिखी जा रही इस लेखमाला को पढकर जंगल विभाग के एक मित्र ने यह सन्देश भेजा। ब्लाग पर लिखे जा रहे इस हिन्दी लेखमाला को इस तरह से पढा जायेगा इसकी उम्मीद कम थी।

13 मई, 2009 को दोपहर तीन बजे पहुँचने के बाद मै दूसरे दिन अर्थात 14 मई को दो बजे वापस लौट पडा यानि मै चौबीस घंटो से भी कम समय तक कान्हा मे रुका। इस छोटी यात्रा मे मैने दो सफारी की। हजारो चित्र लिये। दो बार उसे भी देख लिया न चाहते हुये भी, जिसे देखने लोग मजमा लगाये रहते है यानि कि टाइगर। रात की नीन्द भी ली। दसो स्वास्थ्य समस्याओ से जूझ रहे लोगो को परामर्श दे दिया। सारे रिसोर्ट घूम आया और साथ ही किसानो से भी बात कर ली। इस लेखमाला मे अभी बहुत कुछ लिखना बाकी है। यदि उपयोगिता के नजरिये से देखा जाये तो एक दिन बहुत बडा होता है और अमूमन एक दिन की यात्रा से इतनी सारी जानकारियाँ एकत्र हो जाती है कि बहुत कुछ लिखा जा सकता है।

कान्हा का जो चित्र मैने अपने मन मे सजाया था यथार्थ मे मैने उसे उल्टा पाया। मैने कान्हा के बारे मे सूट-बूट लगाये शोधकर्ताओ और जंगल प्रबन्धन के लोगो को बडी-बडी बाते करते अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनो मे बहुत बार सुना था। कान्हा को बहुत से इनाम भी मिले है पर जिस स्थिति मे मैने पार्क को देखा वैसी स्थिति दिल को दुखा देने वाली थी। एक बात तो एकदम स्पष्ट हो गयी कि सूट-बूट वाले लोगो ने बन्द कमरो मे बैठकर भ्रमित करने वाली रपट बनायी होगी जैसा कि अक्सर वे करते है। कान्हा मुझे पर्यटको के दबाव मे ऐसा बीमार लगा कि कम से कम तीन साल तक इसे अपने हाल मे छोड देने का अनुमोदन करने का मन हुआ। पर मुझे मालूम है कि पर्यटको का जबरदस्त दबाव झेल रहे वन्य प्राणियो की किसी को चिंता नही है। वे तो जब तक बचे रहेंगे तब तक जिप्सियो मे सवार आँखे उन्हे घूरती रहेंगी। वे इस धरती से विदा भी कैमरे की क्लिक के साथ लेंगे पर कान्हा जैसे नेशनल पार्को की जमीनी हकीकत के बारे मे लिखकर मै योजनाकारो को झकझोरना चाहता हूँ। यह लेखमाला इसी दिशा मे एक छोटा सा प्रयास है।

कान्हा की यह यात्रा मैने अपने खर्च पर की थी। मुझे मालूम है कि सरकारी खातिरदारी की कितनी बडी कीमत चुकानी पडती है? पेंच टाइगर रिजर्व का मेरा अनुभव ऐसा ही रहा है। वहाँ से लौटकर भी कई सालो पहले मैने पार्क के अन्दर से बहने वाली पेंच नदी के तट पर गाजर घास के निर्बाध फैलाव के बारे मे दुनिया को बताया था। पता नही आज यह घास कितने बडे क्षेत्र को अपने आगोश मे ले चुकी होगी?

कान्हा मे ढेरो शोध कार्य हो रहे है। देशी-विदेशी शोधकर्ताओ का जमावडा लगा हुआ है। न जाने कितने पैसे पानी की तरह बहाये जा रहे है? इनमे से एक भी शोध-कार्य जमीनी हकीकत को बयान करे और उसकी सलाह पर पार्क प्रबन्धन त्वरित कार्यवाही करे तो इस नेशनल पार्क का कायापलट हो सकता है। (क्रमश:)
(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)

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