पहली जरुरत: “जल धरोहरो” को बचाने और बढाने की

पहली जरुरत: “जल धरोहरो” को बचाने और बढाने की - पंकज अवधिया

छत्तीसगढ अपने तालाबो के लिये पूरी दुनिया मे जाना जाता है। मुझे याद आता है कि कुछ वर्ष पहले राजधानी रायपुर के समीप स्थित आरंग नगर के पास रसनी के दो तालाबो से मैने बडी मात्रा मे जल एकत्र किया था और वहाँ से सैकडो किलोमीटर दूर पारम्परिक चिकित्सको के पास बतौर उपहार पहुँचाया था। रसनी के तालाब सडक के बायी और दायी ओर है। इन तालाबो के विषय मे बताया जाता है कि ये कभी नही सूखते। मैने हमेशा इनमे पानी देखा है। यहाँ के लोग भले ही इसे साधारण तालाब माने पर दूर-दूर के पारम्परिक चिकित्सक इसके जल को रोग विशेष मे उपयोगी मानते रहे है। वे रोगियो को न केवल इसमे स्नान करने को कहते है बल्कि जल के प्रयोग से दवाए भी बनाते है। और तो और, इस जल से नाना प्रकार की वनस्पतियो को सीचा जाता है ताकि वे औषधीय गुणो से परिपूर्ण हो जाये। पारम्परिक चिकित्सको के लिये ये गंगा जल से कम नही है। इन तालाबो के आस-पास उग रही वनस्पतियाँ विशेष औषधीय गुणो से परिपूर्ण मानी जाती है। मैने यहाँ मन्दिर के पास स्थित बेल और पुराने पीपल के बारे मे बहुत लिखा है। उडीसा के पारम्परिक चिकित्सक जब इस मार्ग से गुजरते है तो इन तालाबो का जल पीने और पीपल की छाँव मे सुस्ताने का मौका नही छोडते। इन तालाबो की इतनी अधिक महिमा होने के बावजूद कभी प्रशासन की ओर से इनके लिये कुछ नही किया गया। कुछ समय पहले इन तालाबो के पास से एक बार फिर गुजरा तो मै रो पडा।

फोर लेन सडक का निर्माण होने के कारण तालाबो को पाटा जा रहा है। तालाब अब अपनी अंतिम साँसे गिन रहे है। मै यह सब देखकर हतप्रभ रह गया। पास ही पीपल के पेड की लाश पडी हुयी थी। किसी शक्तिशाली आधुनिक मशीन ने उसे बेरहमी और बेशरमी से उखाड दिया गया था। मै गिरे हुये पेड तक पहुँचा तो उसमे जान नही थी। यह वही पीपल था जिसने असंख्य मनुष्यो की जान बचायी थी। आज जब मनुष्य़ की बारी आयी तो उसने इसे नेस्तनाबूत करने मे जरा भी देर नही लगायी। मै अनगिनत बार इस पीपल के साये मे बैठा चुका हूँ। इस बार मेरी हिम्मत उससे नजरे मिलाने की नही हुयी। सडक बनाने वालो ने तो ग्राम देवता को नही बख्शा था तो भला इन पेडो की क्या बिसात? बेल का महान पेड भी मुझे नही दिखा। पल भर मे ही माँ प्रकृति की इस अनुपम भेट को बरबाद कर दिया गया। मै तस्वीरे लेने लगा तो कुछ गाँव वाले एकत्र हो गये। उन्होने मुझे पत्रकार समझा और शिकायत भरे लहजे मे कहा कि हमे मुआवजा नही मिला है। यह केन्द्र सरकार की सडक है। मैने रुन्धे गले से पूछा कि इस पीपल को बचाने कोई सामने नही आया? तो वे बोले, हमारी एक भी नही सुनी गयी।

रसनी के तालाब की तरह छत्तीसगढ मे हजारो ऐसे तालाब है जो अपने औषधीय जल के लिये पीढीयो से जनमानस मे लोकप्रिय रहे है। यह मेरा सौभाग्य है कि मै इनमे से बहुत से तालाबो तक पहुँचा हूँ। पारम्परिक चिकित्सक कहते है कि तालाबो के आस-पास प्राकृतिक रुप से उग रही वनस्पतियाँ जल को औषधीय गुणो से परिपूर्ण करती है। विकास के साथ-साथ इन वनस्पतियो का नाश होता रहा और अब तालाब अपने औषधीय गुणो को खोते जा रहे है। गरियाबन्द के पास एक ऐसा तालाब दिखा जहाँ पानी मोखला नाम वनस्पति की सघन आबादी से होकर आता था। ह्र्दय रोगो के लिये इस तालाब के जल को अमृत का दर्जा प्राप्त है। रायपुर के कंकाली तालाब की महत्ता तो हम सब जानते ही है। त्वचा रोगो के लिये इसका पानी वरदान माना जाता है। पर आज साफ-सफाई न होने के कारण यह तालाब अपना यह गुण खोता जा रहा है। इतिहासकार प्रो.गुप्ता अपने शोध दस्तावेजो मे दुर्ग जिले के ऐसे तालाब का जिक्र करते है जिसमे नहाने से आदमी पागल हो जाता है। इसे “बहया तालाब” के रुप मे जाना जाता है। जब मै खोजते-खोजते उस तालाब तक पहुँचा तो पता चला कि वह पट चुका है। बडी मुश्किल से गाँव के एक बुजुर्ग ने बताया कि उस तालाब के आस-पास धतूरे के असंख्य पौधे उगे हुये थे। सम्भवत: इस वनस्पति के सम्पर्क से आता हुआ वर्षा का जल जब तालाब तक पहुँचता रहा होगा तो इसे विषाक्त बना देता रहा होगा।

आज छत्तीसगढ के महानगरो मे भले ही “पहली वर्षा” होते ही हम प्रदूषित पानी के डर से उसमे नहाने से बचते हो पर “पहली वर्षा” के बारे जो पारम्परिक ज्ञान हमारे प्रदेश मे आम लोगो के पास है उसकी बानगी पूरी दुनिया मे नही मिलती। गर्मियो मे होने वाली घमौरियो से मुक्ति के लिये “पहली वर्षा” मे नहाया जाता है। आश्चर्यजनक रुप से इससे घमौरियाँ मिट जाती है। “पहली वर्षा” के विषय मे असली ज्ञान का खजाना प्रदेश के पारम्परिक चिकित्सको के पास है। वे इस जल को साल भर सहेज के रखते है। अलग-अलग वनस्पतियो से एकत्र किया गया “पहली वर्षा” का जल पारम्परिक चिकित्सा का अहम भाग है। चार (चिरौंजी) के पौध भागो से एकत्र किया गया “पहली वर्षा” का जल बाल के रोगो के लिये वरदान माना जाता है। जामुन से एकत्र किया गया जल माइग्रेन, महुआ से एकत्र किया गया जल रक्त सम्बन्धी जटिल रोगो, कुसुम से पेट सम्बन्धी रोगो, कुम्ही और निर्मली से कैंसर, सोनपाठा से श्वाँस सम्बन्धी रोग, कोलियार से स्त्री रोग और नीम से एकत्र किया गया “पहली वर्षा” का जल सिकल सेल एनीमिया मे प्रयोग किया जाता है। शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बढाने के लिये आँवला, बरगद, पीपल और सागौन से एकत्र किया गया जल प्रयोग किया जाता है। अभी तक 400 प्रकार की वनस्पतियो से एकत्र किये गये जल के बारे मे पारम्परिक ज्ञान का दस्तावेजीकरण हो चुका है।

कुछ वर्षो पहले मै रायगढ के एक बुजुर्ग पारम्परिक चिकित्सक से मिला। वे दुखी लग रहे थे। कारण पूछने पर उन्होने बताया, ”इस बार “पहली वर्षा” के तुरंत बाद मै वरुण की कटोरी मे जल एकत्र करने निकला तो साफ जल मिला ही नही। सभी पेड काली धूल से ढके हुये थे जिससे माँ प्रकृति प्रदत्त यह अमृत विष हो चुका था।“ उन्हे इस बात की चिंता खाये जा रही थी कि अब साल भर वे कैसे आम लोगो को रोगो से राहत पहुँचा पायेंगे?

काली धूल के अभिशाप से अब तो राजधानी भी अछूती नही है। वैज्ञानिक साहित्य बताते है कि काली धूल मे ऐसे रसायन है जो किसी भी रुप मे शरीर मे पहुँचकर कैंसर की उत्पत्ति कर सकते है। राजधानी तो आज काली धूल से पटी है। मानसूनी वर्षा से यह धूल भूजल तक पहुँच रही है। भूगर्भ वैज्ञानिक बताते है कि छत्तीसगढ मे क्रेस्ट संरचना है जिसके कारण भूमिगत जल आसानी से प्रदूषित हो रहा है। किसी को इसकी परवाह नही है। भूमिगत जल प्रदूषित होने का मतलब है आगामी पीढीयो को जहर का उपहार देना। हमारे बुजुर्गो ने हमे साफ पानी दिया और हम उसे बचाना तो दूर उसमे काली धूल जैसे जहर घोल रहे है।

छत्तीसगढ के जंगलो मे ऐसी वनस्पतियो की कमी नही है जिसमे जल को शुद्ध करने की क्षमता है। दुनिया भर मे “वाटर क्लीयरिंग नट” प्रदूषित जल को साफ करने मे अपनी अहम भूमिका निभा रहा है। दुनिया को यह ज्ञान सबसे पहले छत्तीसगढ से ही मिला। एक समय पैरी और इन्द्रावती के किनारे इसके पेड बहुतायत से थे। बुजुर्ग कहते थे कि इसके फल इन नदियो के पानी मे गिरकर इन केवल इन्हे साफ रखते थे बल्कि औषधीय गुणो से भी परिपूर्ण करते थे। दिया तले अन्धेरा की तर्ज पर हमारे प्रदेश मे इसके महत्व को नही समझा गया। जलाने की लकडी के लिये पेडो को एक-एक करके नष्ट कर दिया गया। गूलर जिसे हम डूमर के नाम से भी जानते है, की जल को निर्मल बनाये रखने की अदभुत क्षमता के बारे हमारे योजनाकर कम ही जानते है। पुराने तालाबो मे पीपल और बरगद और इसके भाई-बन्द पाकर और गस्ती को आज भी देखा जा सकता है। ये पेड तालाबो के आस-पास बेमतलब नही थे। तालाबो के पानी को साल दर साल पीढीयो तक साफ रखने का उपाय भी हमारे बुजुर्ग जानते है। बेल, महुआ जैसे पेडो को निश्चित क्रम मे लगाकर यह किया जा सकता है। छत्तीसगढ के तालाबो की पुरानी रौनक लौटाने के लिये इन पेडो को फिर से स्थापित करना जरुरी है। आज ज्यादातर तालाब पेड विहीन है। कुछ मे पेड है तो विदेशी सजावटी पेड जिन्हे सुन्दरता के नाम पर लगाया गया है। इन पेडो के रसायनो से मछलियो या तालाब के जल पर पड रहे अच्छे-बुरे प्रभावो की चिंता नही की गयी है।

छत्तीसगढ के विकास के लिये व्यग्र योजनाकारो से मै यही कहना चाहता हूँ कि वे नयी योजनाए भले बनाये पर छत्तीसगढ के मूल स्वरुप को न बिगाडे। माँ प्रकृति ने दोनो हाथो से हमे दिल खोलकर दिया है और हमारे बुजुर्गो ने इसका महत्व समझकर इसे संजोया है। इसके महत्व को समझने की जरुरत है। विकास धरोहरो की छेडछाड के बिना सम्भव नही है- ऐसा सोचना गलत है। धरोहरो का मूल स्वरुप मे संरक्षण भी विकास है।


शोध-सन्दर्भ

Oudhia, P. (2007). First Rains in Chhattisgarh: A vital source of Nature’s remedy. www.Ecoport.org.

Oudhia, P. (2007). Lightening in beneficial too. www.Ecoport.org.

Oudhia, P. (2007). Traditional medicinal knowledge about first rain water in Chhattisgarh, India : New comments. www.Ecoport.org.

Oudhia, P. (2007). Detailed information on Ponds of Indian state Chhattisgarh famous for treatment of specific diseases. www.Ecoport.org.



(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)

© सर्वाधिकार सुरक्षित

[यह लेख रायपुर से प्रकाशित होने वाले दैनिक छत्तीसगढ मे 23 मई, 2009 को प्रकाशित हो चुका है।]





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Comments

Asha Joglekar said…
बिलकुल सही कह रहे हैं आप, जल को बचाना आवस्यक ही नही अनिवार्य है और अगर औषधीय जल हो तो और भी ।
Kajal Kumar said…
भागम भाग में पीछे देखना भूल चुके हैं . हर अच्छे काम के लिए, बस सुप्रीम कोर्ट के डंडे की ही बात जोहते हैं हम अब.
Anil Pusadkar said…
सही कह रहो हो पंकज!

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