अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -10
अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -10
- पंकज अवधिया
यह उन दिनो की बात है जब मै इन्दिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय मे शोधार्थी हुआ करता था। एक दिन अपने कक्ष मे बैठा हुआ था तब एक छात्र ने मुझसे मिलने की इच्छा जतायी। उसने बताया कि वह इन-सर्विस कैंडीडेट है और बिलासपुर के एक गाँव का रहने वाला है। उसके पास सर्प दंश की चिकित्सा के लिये पूर्वजो का दिया एक नुस्खा है। यदि सर्प दंश मे बहुत अधिक समय नही हुआ है तो वह इस दवा को खिलाकर जान बचा सकता है। उसने कहा कि मैने इसे बहुत से लोगो पर आजमाया है। अब मै इस पर अनुसन्धान करना चाहता हूँ और इस नुस्खे को और अधिक उपयोगी बनाना चाहता हूँ। अभी यह करैत के विष के विरुद्ध ही प्रभावी है। छत्तीसगढ के तराई वाले क्षेत्रो मे हर साल करैत के काटने से सैकडो लोग अपनी जान गँवा बैठते है। आस-पास सरकारी अस्पतालो के न होने से देर हो जाती है और परिजन चाह कर भी कुछ नही कर पाते है। छात्तीसगढ का तपकरा नामक क्षेत्र तो नागलोक के नाम से जाना जाता है।
उस छात्र ने कहा कि यदि आप चाहे तो मै आपको भी नुस्खा बता सकता हूँ। हम लोग इसके पैसे नही लेते है। मरीज के परिजन यदि आने-जाने का खर्च दे दे तो काफी है। नही तो मै अपने खर्च से ही चला जाता हूँ। छात्र की बात सुनकर मै प्रभावित हुआ। मैने उसके प्रस्ताव के लिये आभार व्यक्त किया और कहा कि नुस्खा आप आपने पास ही रखे और इस तरह किसी से प्रभावित होकर उसे देने का दुस्साहस न करे। यह दुनिया बहुत टेढी है। पलक झपक़ते ही सारी स्थिति बदल सकती है। यहाँ तक कि नुस्खा पाने वाले की नियत भी। मै स्थानीय अखबारो के सम्पर्क मे था। अन्ध-विश्वास दूर करने वाली संस्था से भी जुडा था। मैने अखबारो मे उस छात्र के विषय मे खबरे प्रकाशित करवायी, इस उम्मीद मे कि उसे और उसके ज्ञान को सम्मान मिलेगा और इस तरह के और लोग सामने आयेंगे। इस तरह साथ आये लोगो का एक दल बनाकर सरकार से अनुरोध कर सकूंगा कि सर्प-दंश प्रभावित क्षेत्र मे इनकी सेवा ली जाये। चाहे तो इनके पारम्परिक ज्ञान का प्रमाणीकरण करवा ले। पर इस प्रक्रिया मे ज्ञान धारको के हित को किसी भी प्रकार से क्षति न पहुँचे। मैने अन्ध-विश्वास वाली संस्था के पास भी उसे भेजा। उसका प्रस्ताव था कि संस्था के सदस्य या तो किसी सर्प-दंश से पीडित व्यक्ति को ले आये या फिर जानवरो को सर्प दंश करवाकर वह इलाज करके भी दिखा सकता है। पर संस्था के पास जाना उसके लिये भारी पडा। दूसरे ही दिन संस्था के प्रमुख का बयान आ गया कि यह अन्ध-विश्वास है और उसमे छात्र को यह उपचार बन्द करने की हिदायत दी गयी। वह बडा ही निराश हुआ। पर अखबारो मे खबर छपने का एक लाभ यह हुआ कि अस्पतालो के हाथ खडे कर देने के बाद मरीजो को लेकर उनके परिजन कृषि महाविद्यालय के हास्टल आने लगे जहाँ यह छात्र रहता था। फिर चोरी-छुपे उसे अस्पताल मे भी बुलाया जाने लगा। वह सरकारी चिकित्सको के बीच लोकप्रिय हो गया। उसने बहुत सी तस्वीरे खीची उन लोगो की जिनको उसने सरकारी अस्पतालो मे बचाया पर उसकी मजबूरी थी कि इस उपलब्धि को सार्वजनिक नही कर सकता था। यदि सार्वजनिक कर देता तो बवाल मच जाता और सरकारी डाक्टरो के सिर पर भी तलवार लटकने लग जाती है। यह बडी दुविधा वाली स्थिति थी पर मुझे उसके चेहरे पर संतोष नजर आता था। यह संतोष लोगो की जान बचाने का था। इस दौड-भाग मे वह अपनी पढाई पर ध्यान नही दे पाया और फेल हो गया। बाद मे भी यह क्रम जारी रहा और उसका अधिक समय अस्पताल मे कटने लगा। कुछ वर्षो बाद मुझे पता चला कि वह वापस अपनी नौकरी मे चला गया है।
काफी दिनो बाद वह मुझसे मिलने आया। उसने बताया कि अब अस्पताल जाना बन्द हो गया है। उस पर नुस्खे को सार्वजनिक करने का भारी दबाव था। दूर-दूर से चिकित्सक यह नुस्खा जानना चाहते थे। थक-हार कर उसने अपने गाँव मे ही रहकर यह सेवा करने का निर्णय लिया। मै बहुत क्षुब्ध था कि मै उसकी ज्यादा मदद नही कर पाया।
मै यह दावे के साथ कह सकता हूँ कि यदि वह विदेश मे जन्मा होता तो उसकी इच्छा पूरी हो गयी होती और वह अब तक शोधकर्ता के रुप मे नुस्खे को और अधिक शक्तिकृत कर चुका होता। आज के हमारे समाज ने उसके ज्ञान का सहारा तो लिया पर उसे मान्यता देने से इंकार कर दिया। भला कही और ऐसा छल होता है अपने ही देशवासी के साथ? नेशनल बुक ट्रस्ट की एक पुस्तक छपी थी काफी पहले साँपो पर। उसमे लिखा है कि देशी सर्प-विशेषज्ञ का ज्ञान मात्र ढोंग है। बस आज विज्ञान की पैरवी करने वाले इसे ही अंतिम सत्य मान बैठे है। यही उनके लिये गीता है। इससे आगे निकलकर वे नही सोचना चाहते । उनके इस रवैये से देश को और उसके पारम्प्रिक ज्ञान को बहुत बडी क्षति हो रही है और यह विलुप्तता के कगार पर है। यह विडम्बना ही है कि विदेशी ज्ञान हम अपने बच्चो को स्कूलो मे पढा रहे है पर अपने देशज ज्ञान के विषय मे बिल्कुल भी नही बता रहे है। डाँ.एस.के.जैन जैसे वैज्ञानिको ने सर्प-दंश से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान का जो दस्तावेजीकरण किया है उसे दुनिया भर मे पूजा जाता है। हमारे बच्चे इस ज्ञान और डाँ. जैन जैसे लोगो को जानते ही नही है। आजादी के इतने सालो मे ढेरो विश्वविद्यालय खुले, नालेज कमीशन बन गया पर पारम्परिक ज्ञान के विषय मे शिक्षा देने और नयी पीढी को परिचित कराने के लिये विश्वविद्यालय तो दूर एक कोर्स भी नही बना। इस ज्ञान की परीक्षा किये बिना ही इसे अन्ध-विश्वास की श्रेणी मे डाल दिया गया। आज छत्तीसगढ की राजधानी से जब कोई शहरो मे पला-बढा व्यक्ति दो करोड से अधिक लोगो की परम्पराओ और विश्वासो को अन्ध-विश्वास घोषित कर देता है तो और लोगो की तरह मुझे भी उसकी नासमझी पर तरस आता है। छत्तीसगढ और उसके लोगो को समझने के लिये कम से कम एक जीवन ग्रामीण परिवेश मे बिताना जरुरी है ताकि हर विश्वास और परम्परा की जड को जाना जा सके। यह बात पूरे देश के लिये लागू होती है क्योकि भारत गाँवो मे बसता है। (क्रमश:)
(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)
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Comments
"देश को और उसके पारम्प्रिक ज्ञान को बहुत बडी क्षति हो रही है और यह विलुप्तता के कगार पर है।"
बहुत सही बात लिखी है आपने...ये चिंता विषय भी है, एक हुनर मंद को उसके हुनर से और पीड़ित लोगों को उनकी पीड़ा निवारण से विमुख रखा जा रहा है...
नीरज