अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -9

अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -9
- पंकज अवधिया
वायदे के अनुसार अहमदाबाद वाले सज्जन हवाई-मार्ग से रायपुर पधारे। फिर दूसरे दिन हमारे साथ जंगल की ओर निकल पडे। एक गाँव मे हमने गाडी छोडी और फिर धान के खेतो की मेड मे चलना आरम्भ किया। आगे हमारा पथ-प्रदर्शक चल रहा था, उसके पीछे मै और फिर आखिर मे सज्जन। उनसे बीच मे चलने कहा तो वे बोले कि मै पीछे ही ठीक हूँ। मेडो मे बडी-बडी घास उगी हुयी थी। नीचे का रास्ता दिखाता नही था। बस चलते जाना था। अचानक सज्जन चीखे और बोले कि नीचे तो साँप है। हाँ, तो- मैने कहा। धान के खेतो के पास साँप होते ही है। क्या आप इससे पहले खेत नही गये? आप बस चुपचाप चलते रहे। साँप को खुद की जान की परवाह है। वे अपने रास्ते निकल जायेंगे। चुपचाप चलते रहे आप- मैने उनसे कहा। सामने वाला व्यक्ति आराम से चले जा रहा था। सज्जन के पास मेडीकल किट था और उसमे एंटी वेनम के इंजेक्शन थे। सामने वाला व्यक्ति नंगे पाँव था। मैने स्पोर्ट्स वाले जूते पहने हुये थे। सज्जन के पैरो मे गम बूट थे। इस लिहाज से वे सबसे अधिक सुरक्षित थे। फिर भी डर रहे थे। मुझसे उन्होने कहा कि आप बढिया काम कर रहे है। मैने कहा, मै नही। मुझसे बढिया काम मेरे सामने वाला व्यक्ति कर रहा है।
साँपो के दिखने का क्रम जारी रहा। सज्जन ने आगे चलने से इंकार कर दिया। सामने वाले व्यक्ति ने मौके की गम्भीरता को समझा और आस-पास वनस्पतियाँ खोजने लगा उसने चिरचिटा और बघनखा नामक दो पौधो की जडे खोदी और फिर उसे सज्जन के जूते मे डाल दिया और कहा कि अब आप निश्चिंत हो जाये। साँप आपका बाल भी बाँका नही कर पायेंगे। मै कुछ पूछना चाहता था पर उसने चुप कर दिया। सज्जन के पैरो मे मानो पंख लग गये। उन्होने धान के खेतो के बाद का जंगली इलाका बिना किसी शोर के पार कर लिया। मुझे याद आ रहा था कि जब मैने ऐसी ही वनस्पतियो की बात अपने व्याख्यान मे की थी तो उन्होने हो-हल्ला मचाया था। पर अब उन्हे इसके प्रयोग से कोई परहेज नही था।
छोटी सी पहाडी को पारकर हम एक छोटे से गाँव मे पहुँचे जहाँ सिर्फ आठ-दस घर थे। एक घर के सामने भीड लगी हुयी थी। सामने ट्रेक्टर खडा हुआ था और लोग ट्राली को घेरे हुये थे। पास जाने पर पता चला कि सर्प दंश से पीडित किसी को इलाज के लिये लाया गया था। सरकारी अस्पताल ने जवाब दे दिया था। सर्प-दंश को बहुत देर हो चुकी थी। पर पीडित के परिवार वालो को उम्मीद थी कि यहाँ बात बन सकती है। यहाँ के बैदराज का काफी नाम है। बैदराज ने हमे देखा और आव-भगत की औपचारिकता छोड पीडित के लिये औषधियाँ लाने जंगल चले गये। सज्जन से नही रहा गया। वे बोल पडे कि अब कोई उम्मीद नही है। इसलिये किसी भी तरह का प्रयास व्यर्थ है। उनको अनसुना कर बैदराज चले गये।
कुछ देर बार वे ढेर सी वनस्पतियाँ लेकर आये और लोगो को उसे कूटकर रस निकालने को कहने लगे। कुछ वनस्पतियो को उन्होने पीपल के पुराने पेड के नीचे से लायी गयी मिट्टी मे सानकर एक लेप तैयार किया और फिर उसे पीडित के शरीर मे लगाने लगे। इस बीच रस निकाल लिया गया और बैदराज रोगी को मनहर नामक पेड की पत्तियो का दोना बनाकर पिलाने लगे। इलाज चलता रहा। दवा देते समय बैदराज कुछ बुदबुदाते रहे। जिस व्यक्ति के लिये ज्यादा से ज्यादा एक-दो घंटे का समय सरकारी अस्पताल ने निर्धारित किया था वह आठ घंटो तक दवा के सहारे जिया। इससे ज्यादा जीना शायद ऊपर वाले को मंजूर नही था। उसने प्राण त्याग दिये। सज्जन पूरी प्रक्रिया को ध्यान से देखते रहे। बैदराज ने पैसे लेने से मना कर दिया। फिर अपनी कुटिया मे चले गये।
सज्जन बोले कि इतना लम्बा समय एक मरीज के पीछे लगाया और कुछ लिया भी नही। शहर मे तो मरीज जीवित रहे या मरे, फीस तो देनी ही पडती है। आठ घंटे तक सेवा मतलब हजारो का बिल। फिर जो वनस्पतियाँ जंगल से लायी गयी उसे रिश्तेदार के पास रखना चाहिये फिर मरीज से कहना चाहिये कि उससे पैसो मे इसे खरीद लो। ये लोग तो बिल्कुल भी मार्केटिंग नही जानते। उन्हे सचमुच यकीन नही हो रहा था कि धरती मे ऐसे लोग भी है। इस बीच बैदराज कुटिया से बाहर आये और हमसे चर्चा करने लगे। उन्होने कहा कि जब तक हम प्रयास कर सकते है तब तक करते है। सरकारी अस्पताल वाले हथियार डाल देते है। उनके पास प्रयोग का साहस नही होता। हजार मे से एक आदमी की भी जान अंतिम प्रयासो से बच जाती है तो हम अपने ज्ञान को सार्थक मानते है। सज्जन मुँह बाये सुनते रहे। मैने उन्हे बताया कि छत्तीसगढ मे ऐसे हजारो पारम्परिक चिकित्सक है जो मरीजो से कुछ भी नही लेते है। उन्हे शपथ दिलवायी गयी है उनके पूर्वजो द्वारा कि यदि इस ज्ञान से कुछ कमाया तो इसका असर समाप्त हो जायेगा। वे खेती करते है या आजीविका के दूसरे साधन अपनाकर अपना और अपने परिवार का पेट पालते है। वे भारतीय ज्ञान पर आधारित चिकित्सा करते है और हमारा कानून आज भी इन्हे नीम-हकीम कहकर चिढाता है। पर अब धीरे-धीरे लोगो मे जागरुकता आ रही है और इनके महत्व को समझा रहा है। हाल ही मे एम्स से छपी एक रपट मे कहा गया है कि देश मे चिकित्सको की कमी को देखते हुये इन पारम्परिक चिकित्सको पर दूरस्थ गाँवो का जिम्मा छोड देना चाहिये। रपट तो अभी आयी है पर यह जिम्मेदारी तो वे सदियो से अपने कन्धे पर लिये हुये है और पीढी दर पीढी तिरस्कार के बाद भी सेवा मे जुटे हुये है। सच है इन्हे मार्केटिंग नही आती पर ईश्वर का लाख-लाख शुक्र है कि इन्हे सेवा आती है जो शहरो अब खत्म सी होती जा रही है।
बैदराज ने हमे दसो किस्म के सर्पो के विषय मे बताया। कुछ तो ऐसे जिनका वर्णन सन्दर्भ साहित्यो मे भी नही मिलता। फिर उन्होने सज्जन के मेडीकल किट के बारे मे पूछा। इंजैक्शन को देखते ही उन्होने कहा कि सरकारी अस्पतालो मे इसका प्रयोग होता है। यह आदमी की जान बचाने मे कारगर है पर गल्ती से यदि इसका गलत असर (वे रियेक्शन की बात कर रहे थे) हो गया तो मरीज की हालत बिग़ड जाती है। इसे लगाकर बच जाने वाले मरीज भी लम्बे समय तक नाना प्रकार की समस्याओ की शिकायत करते रहते है। सज्जन ने तर्क दिया कि जान बचनी जरुरी है। बाद मे भले ही कुछ भी हो। पर बैदराज इस तर्क से सहमत नही दिखे। उन्होने खुलासा किया कि जंगली इलाका होने के कारण यहाँ अक्सर साँप निकलते रहते है। सज्जन चौकन्ने हो गये और बोले कि आप उसे कैसे मारते है? बैदराज हँसे और बोले कि कल ही मै सो रहा था तो पारस पीपल के पेड से साँप नीचे आ गया। मै उठा और दूसरी जगह जाकर सो गया। साँप कुछ देर बाद अपने आप चला गया। सज्जन को अब समझ आने लगा था कि जितने साँप शहरो मे शिक्षित लोगो द्वारा मारे जाते है उससे बहुत कम या नही के बराबर अशिक्षित लोगो द्वारा दूरस्थ इलाको मे मारे जाते है। उन्हे अपने और अपने तथाकथित सभ्य समाज पर शर्म सी आने लगी। अचानक उन्हे जूतो मे पडी वनस्पतियो की याद आयी। वे कुछ पूछते इससे पहले ही साथ आये व्यक्ति ने कहा कि ये वनस्पतियाँ बिच्छू से बचाती है कुछ हद तक। पर आप इतना घबराये हुये थे कि मैने इसे साँप को भगाने वाली वनस्पतियाँ कहकर आपको दिया तो आपका डर काफूर हो गया। जो संकट मे काम आये वही संजीवनी है।
ग्रामीण अंचलो से बहुत से सर्प विशेषज्ञ महानगरो मे चले आते है। वे साँप का प्रदर्शन करते है और कुछ वनस्पतियाँ बेचते है। उनके आने से अचानक ही समाजसेवी जाग उठते है। उन्हे सर्पो को होने वाले कष्ट की चिंता होती है। वे शोर मचाते है। अपनी तस्वीरे छपवाते है और सर्प विशेषज्ञो को पुलिस के हवाले कर देते है। ज्यादातर सर्प विशेषज्ञ जिनसे मै मिला हूँ, कुछ समय के लिये सर्प रखते है फिर उन्हे जंगल मे छोड देते है। समाजसेवी अपने घरो मे निकलने वाले साँपो को बिना हिचक मार डालते है, उनकी त्वचा से बनी फैशनेबुल चीजो से शरीर की शोभा बढाते है, दाँतो को अपनी तिजोरी मे धन की रक्षा के लिये रखते है तब उन्हे अपने कर्म दुष्कर्म नही लगते है।
सर्प विशेषज्ञो की वनस्पतियो का प्रयोग महज अन्ध-विश्वास है- ऐसा हर बार नाग पंचमी के आस-पास रायपुर मे अखबारो मे छपता है। लगभग इसी समय एक और खबर छपती है। इस खबर मे गरुड के पेड की फली के विषय मे लिखा होता है। सर्प की तरह दिखने वाली इस फली को घर मे रखने से सर्प नही आते है-ऐसा प्रचारित किया जाता है। यह प्रचार प्रायोजित होता है। शहर के प्रतिष्ठित जडी-बूटी विक्रेता यह खबर छपवाते है। खबर छपते ही आदिवासियो से नमक के बदले ली गयी फलियो को खरीदने की होड सी लग जाती है। इसे पाँच से साठ रुपते प्रति फली के मनमाने दाम पर बेचा जाता है। शहर के लोग इसे अन्ध-विश्वास नही मानते है। न ही अन्ध-विश्वास के खिलाफ मुहिम छेडने वाले कुछ कहते है। आखिर इससे बाजार जो जुडा हुआ है। अब यह भी जान ले कि फली कितनी कारगर है। इसके प्रभावीपन के लिये एकमात्र शर्त यह है कि सर्प को भी इसके प्रभाव का ज्ञान होना चाहिये। नही तो उस पर असर नही होगा। (क्रमश:)
(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)
© सर्वाधिकार सुरक्षित

Updated Information and Links on March 15, 2012

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यह पारंपरिक ज्ञान उन शपथों से ही सुरक्षित है वरना अब तक व्यापारी उसे निकाल कर अपने घर भर चुके होते। व्यापारी के हाथों पारंपरिक ज्ञान जब आता है तो वह उस के लाभों को अपने लाभ के लिए बेचता है, न कि जनहित के लिए और वह भी इस दूषित रूप में कि वह लाभ से अधिक हानि पहुँचाने लगता है।
आप का इस श्रंखला के लिए आभार।

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