अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -18
अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -18 - पंकज अवधिया
छत्तीसगढ मे बरसात के दिनो मे अपने आप उगने वाली वनस्पति चरोटा को सभी जानते है। इसका वैज्ञानिक नाम कैसिया टोरा है। यह बेकार जमीन, मेडो और कभी-कभी खेतो मे भी उग जाती है। इस वनस्पति की नयी पत्तियो जिसे आम बोलचाल की भाषा मे बालक पत्ती कहा जाता है, से साग बनायी जाती है और बडे चाव से खायी जाती है। इस तरह से बरसात मे अपने आप उगने वाली दसो वनस्पतियो का प्रयोग भाजी के रुप मे होता है। इनमे बाम्बी, मुस्कैनी, मछरिया, बर्रा आदि प्रमुख है। राज्य के पारम्परिक चिकित्सक बताते है कि इन वनस्पतियो का प्रयोग स्वाद तक सीमित नही है। इनके प्रयोग से साल भर लोग रोगो से बचे रहते है। विशेष रोगो की चिकित्सा मे इसकी विशेष भूमिका है। जैसे चरोटा का प्रयोग शरीर की सफाई करता है और जोडो के दर्द के लिये यह रामबाण है। मछरिया भाजी के प्रयोग से महिलाए साल भर रोगो से बची रहती है।
अब धीरे-धीरे इन भाजियो का प्रयोग समाप्त होता जा रहा है। यह कहा जाता है कि फुलपैंट पहनने वाले लोग मुफ्त की भाजी नही खाते है। वे बाजार से कीमती भाजी खरीदते है और फिर उसे अपने परिवार को देते है। चरोटा जैसी भाजियाँ नयी पीढी को अचानक ही बेकार मालूम पडने लगी है। इसके परिणाम सामने है। रोग गाँव तक पहुँच गये। आधुनिक दवाओ पर कमायी का एक बडा हिस्सा खर्च हो रहा है। खेती से उत्पन्न को रही भाजियो मे कृषि रसायनो के बढते प्रभाव से हम सभी परिचित है और चिंता भी जताते है पर रोज उन्हे खाते है और अपने परिवार को भी खिलाते है।
कुछ समय पूर्व चरोटा की पत्तियो मे सर्पाकार आकृति उभरने से बडा बवाल मचा। पत्तियो मे सफेद सर्पाकार आकृतिया बिल्कुल स्पष्ट थी। इससे जुडी नाना प्रकार की कहानियाँ सामने आने लगी। एक कहानी जो सबकी जुबान पर थी वह एक दुर्घटना से सम्बन्धित थी। चर्चा थी कि एक लापरवाह गाडी चालक ने प्रणय करते नाग-नागिन के जोडे को कुचल दिया था। इसकी छाप पत्तियो मे नाग-नागिन की तरह दिख रही थी। लोगो ने चरोटा भाजी खानी बन्द कर दी। जितनी मुँह उतनी बाते। इस कहानी का पता चलने पर इसकी जड पर जाने का निर्णय लिया गया। बुजुर्गो से सलाह ली गयी तो वे बोले कि इस तरह के निशान चरोटा की पत्तियो पर नये नही है। ऐसे निशान और भी वनस्पतियो पर देखे जा सकते है। पत्तियो को देखने पर पता चला कि सर्पाकार आकृति का कारण लीफ माइनर नामक कीट थे जो कि पत्तियो के क्लोरोफिल को खाते हुये पत्तियो मे सुरंग बनाते चलते है। जहाँ से क्लोरोफिल खत्म होता जाता है वहाँ सफेद निशान पडता जाता है। लीफ माइनर द्वारा बनायी गई माइंस याने सुरंग बहुत पतली होती है। लीफ माइनर नामक कीट बहुत सी वनस्पतियो पर पोषण करते है। शहरी लोगो के लिये यह नयी बात हो सकती है पर ग्रामीण तो इसके प्रकोप से रुबरु होते ही रहते है। बाद मे इस विषय मे अखबारो मे व्याख्या प्रकाशित करवायी गयी। तब जाकर यह दुष्प्रचार रुका। चरोटा के सभी पौधो पर एक ही समय मे इसका आक्रमण नही होता। साथ ही एक पौधे की कुछ पत्तियो मे इसका आक्रमण होता है कुछ मे नही। आक्रमण से बची पत्तियो को साग के रुप खाया जा सकता है। आम लोगो ने इस व्याख्या के बाद इसका प्रयोग फिर से आरम्भ तो किया पर यह कटु सत्य है कि इस दुष्प्रचार के बाद इसका प्रयोग काफी हद तक घटा है।
जहाँ एक ओर भारत मे पारम्परिक चिकित्सक अपने अस्तित्व की लडाई लड रहे है वही दूसरी ओर आफ्रीका मे उनके महत्व को समझते हुये उन्हे चिकित्सा के लिये लाइसेंस दे दिया गया है। कल ही खबर आयी कि क्लाइमेट चेंज अर्थात जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये आफ्रीका के मसई लोगो के पारम्परिक ज्ञान की सहायता ली जायेगी। हमारे देश का चरोटा विदेशो मे शोधकर्ताओ के लिये कीमती बना हुआ है। हमारे देश के ज्ञान के आधार पर नित नये उत्पाद आ रहे है। भारतीय पारम्परिक खाद्य पदार्थो का जादू सिर चढ कर बोल रहा है पर हमारे अपने देश मे इसका कोई महत्व नही है। हमारे सामने बहुत से उदाहरण है। हाल ही मे छत्तीसगढ से एक शोध रपट आयी कि आम लोगो जो बासी खाते है उससे पेट का अल्सर हो जाता है। इस रपट को बढा-चढा कर प्रकाशित किया गया है। पीढीयो से आम लोग इसे बडे चाव से खा रहे है और इसकी बदौलत कठिन खेती कर रहे है। तब तो उन्हे अल्सर नही हुआ। अचानक अपनी दुकान चलाने के लिये आधुनिक शोधकर्ताओ को इसमे खोट नजर आने लगा। पारम्परिक खाद्य पदार्थो पर अंगुली उठाने वाले जरा यह भी तो आम लोगो को बताये कि पिज्जा, बर्गर और नूडल्स खाने वालो को क्या-क्या बीमारियाँ होती है? उन रपटो का प्रचार भी हो जिनमे इन्हे कैसर के लिये उत्तरदायी माना गया है। देशी खाद्य पदार्थ बाजार से नही जुडे है। फास्ट फूड का एक बडा बाजार है। फिर इन्हे खाने से जो बीमारियाँ होती है उसका भी अपना बाजार है। ऐसे मे आधुनिक शोधकर्ताओ को शोध के लिये पैसा भी इन्ही के द्वारा मिलता है तो फिर पारम्परिक खाद्यो को हानिकारक बताने से परहेज कैसा?
चरोटा के अंतरराष्ट्रीय महत्व से अंजान छत्तीसगढ जैसे राज्यो के अधिकारी हर बरसात मे यह सूचना प्रकाशित करवा देते है कि चरोटा भाजी का सेवन न करे। इससे उल्टी-दस्त हो सकते है। उनका कहना है कि चरोटा साफ स्थानो मे नही उगता है। बेशक नाली के किनारे उग रहे चरोटा का प्रयोग न हो पर मेडो और अन्य साफ स्थानो मे उग रहा चरोटा तो खाया जा सकता है। फिर सीवेज वाटर जिसमे मानव का मल भी होता मे उगायी जा रही सब्जियो के विषय मे, जिसे मुम्बई जैसे महानगरो से लेकर रायपुर जैसे शहर के लोग रोज खा रहे है, कोई समाचार अधिकारियो के हवाले से नही छपते। कैसे छपेंगे? दूसरे ही दिन सब्जी विक्रेताओ का मोर्चा निकल जायेगा। अब चरोटा के लिये कौन मोर्चा निकालेगा?
पिछले वर्ष मुम्बई के एक सात सितारा होटल के मालिक अपने नये प्रयोगो के विषय मे मुझे बता रहे थे। उन्होने मुझे एक विशेष प्रकार की काफी दी और कहा कि इसे पीकर आपको स्वार्गिक आनन्द मिलेगा। मै काफी पीने के बाद कुछ बोलता इससे पहले ही वे बोल पडे कि यह फोटिड सेन्ना की काफी है। हम इसे विशेष पेय के रुप मे मेहमानो के सामने प्रस्तुत कर रहे है। अभी से विदेशो मे इसकी माँग होने लगी है। मै हतप्रभ सुनता रहा। मैने बस्तर के जंगलो मे इसे पहली बार चखा था। तब पारम्परिक चिकित्सक ने इसका औषधीय महत्व भी बताया था। बीजो को भूनकर पानी मे उबालने से काफी जैसा स्वाद आता है। यह फोटिड सेन्ना क्या बला है? फोटिड सेन्ना माने हमारा अपना चरोटा। (क्रमश:)
(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)
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छत्तीसगढ मे बरसात के दिनो मे अपने आप उगने वाली वनस्पति चरोटा को सभी जानते है। इसका वैज्ञानिक नाम कैसिया टोरा है। यह बेकार जमीन, मेडो और कभी-कभी खेतो मे भी उग जाती है। इस वनस्पति की नयी पत्तियो जिसे आम बोलचाल की भाषा मे बालक पत्ती कहा जाता है, से साग बनायी जाती है और बडे चाव से खायी जाती है। इस तरह से बरसात मे अपने आप उगने वाली दसो वनस्पतियो का प्रयोग भाजी के रुप मे होता है। इनमे बाम्बी, मुस्कैनी, मछरिया, बर्रा आदि प्रमुख है। राज्य के पारम्परिक चिकित्सक बताते है कि इन वनस्पतियो का प्रयोग स्वाद तक सीमित नही है। इनके प्रयोग से साल भर लोग रोगो से बचे रहते है। विशेष रोगो की चिकित्सा मे इसकी विशेष भूमिका है। जैसे चरोटा का प्रयोग शरीर की सफाई करता है और जोडो के दर्द के लिये यह रामबाण है। मछरिया भाजी के प्रयोग से महिलाए साल भर रोगो से बची रहती है।
अब धीरे-धीरे इन भाजियो का प्रयोग समाप्त होता जा रहा है। यह कहा जाता है कि फुलपैंट पहनने वाले लोग मुफ्त की भाजी नही खाते है। वे बाजार से कीमती भाजी खरीदते है और फिर उसे अपने परिवार को देते है। चरोटा जैसी भाजियाँ नयी पीढी को अचानक ही बेकार मालूम पडने लगी है। इसके परिणाम सामने है। रोग गाँव तक पहुँच गये। आधुनिक दवाओ पर कमायी का एक बडा हिस्सा खर्च हो रहा है। खेती से उत्पन्न को रही भाजियो मे कृषि रसायनो के बढते प्रभाव से हम सभी परिचित है और चिंता भी जताते है पर रोज उन्हे खाते है और अपने परिवार को भी खिलाते है।
कुछ समय पूर्व चरोटा की पत्तियो मे सर्पाकार आकृति उभरने से बडा बवाल मचा। पत्तियो मे सफेद सर्पाकार आकृतिया बिल्कुल स्पष्ट थी। इससे जुडी नाना प्रकार की कहानियाँ सामने आने लगी। एक कहानी जो सबकी जुबान पर थी वह एक दुर्घटना से सम्बन्धित थी। चर्चा थी कि एक लापरवाह गाडी चालक ने प्रणय करते नाग-नागिन के जोडे को कुचल दिया था। इसकी छाप पत्तियो मे नाग-नागिन की तरह दिख रही थी। लोगो ने चरोटा भाजी खानी बन्द कर दी। जितनी मुँह उतनी बाते। इस कहानी का पता चलने पर इसकी जड पर जाने का निर्णय लिया गया। बुजुर्गो से सलाह ली गयी तो वे बोले कि इस तरह के निशान चरोटा की पत्तियो पर नये नही है। ऐसे निशान और भी वनस्पतियो पर देखे जा सकते है। पत्तियो को देखने पर पता चला कि सर्पाकार आकृति का कारण लीफ माइनर नामक कीट थे जो कि पत्तियो के क्लोरोफिल को खाते हुये पत्तियो मे सुरंग बनाते चलते है। जहाँ से क्लोरोफिल खत्म होता जाता है वहाँ सफेद निशान पडता जाता है। लीफ माइनर द्वारा बनायी गई माइंस याने सुरंग बहुत पतली होती है। लीफ माइनर नामक कीट बहुत सी वनस्पतियो पर पोषण करते है। शहरी लोगो के लिये यह नयी बात हो सकती है पर ग्रामीण तो इसके प्रकोप से रुबरु होते ही रहते है। बाद मे इस विषय मे अखबारो मे व्याख्या प्रकाशित करवायी गयी। तब जाकर यह दुष्प्रचार रुका। चरोटा के सभी पौधो पर एक ही समय मे इसका आक्रमण नही होता। साथ ही एक पौधे की कुछ पत्तियो मे इसका आक्रमण होता है कुछ मे नही। आक्रमण से बची पत्तियो को साग के रुप खाया जा सकता है। आम लोगो ने इस व्याख्या के बाद इसका प्रयोग फिर से आरम्भ तो किया पर यह कटु सत्य है कि इस दुष्प्रचार के बाद इसका प्रयोग काफी हद तक घटा है।
जहाँ एक ओर भारत मे पारम्परिक चिकित्सक अपने अस्तित्व की लडाई लड रहे है वही दूसरी ओर आफ्रीका मे उनके महत्व को समझते हुये उन्हे चिकित्सा के लिये लाइसेंस दे दिया गया है। कल ही खबर आयी कि क्लाइमेट चेंज अर्थात जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये आफ्रीका के मसई लोगो के पारम्परिक ज्ञान की सहायता ली जायेगी। हमारे देश का चरोटा विदेशो मे शोधकर्ताओ के लिये कीमती बना हुआ है। हमारे देश के ज्ञान के आधार पर नित नये उत्पाद आ रहे है। भारतीय पारम्परिक खाद्य पदार्थो का जादू सिर चढ कर बोल रहा है पर हमारे अपने देश मे इसका कोई महत्व नही है। हमारे सामने बहुत से उदाहरण है। हाल ही मे छत्तीसगढ से एक शोध रपट आयी कि आम लोगो जो बासी खाते है उससे पेट का अल्सर हो जाता है। इस रपट को बढा-चढा कर प्रकाशित किया गया है। पीढीयो से आम लोग इसे बडे चाव से खा रहे है और इसकी बदौलत कठिन खेती कर रहे है। तब तो उन्हे अल्सर नही हुआ। अचानक अपनी दुकान चलाने के लिये आधुनिक शोधकर्ताओ को इसमे खोट नजर आने लगा। पारम्परिक खाद्य पदार्थो पर अंगुली उठाने वाले जरा यह भी तो आम लोगो को बताये कि पिज्जा, बर्गर और नूडल्स खाने वालो को क्या-क्या बीमारियाँ होती है? उन रपटो का प्रचार भी हो जिनमे इन्हे कैसर के लिये उत्तरदायी माना गया है। देशी खाद्य पदार्थ बाजार से नही जुडे है। फास्ट फूड का एक बडा बाजार है। फिर इन्हे खाने से जो बीमारियाँ होती है उसका भी अपना बाजार है। ऐसे मे आधुनिक शोधकर्ताओ को शोध के लिये पैसा भी इन्ही के द्वारा मिलता है तो फिर पारम्परिक खाद्यो को हानिकारक बताने से परहेज कैसा?
चरोटा के अंतरराष्ट्रीय महत्व से अंजान छत्तीसगढ जैसे राज्यो के अधिकारी हर बरसात मे यह सूचना प्रकाशित करवा देते है कि चरोटा भाजी का सेवन न करे। इससे उल्टी-दस्त हो सकते है। उनका कहना है कि चरोटा साफ स्थानो मे नही उगता है। बेशक नाली के किनारे उग रहे चरोटा का प्रयोग न हो पर मेडो और अन्य साफ स्थानो मे उग रहा चरोटा तो खाया जा सकता है। फिर सीवेज वाटर जिसमे मानव का मल भी होता मे उगायी जा रही सब्जियो के विषय मे, जिसे मुम्बई जैसे महानगरो से लेकर रायपुर जैसे शहर के लोग रोज खा रहे है, कोई समाचार अधिकारियो के हवाले से नही छपते। कैसे छपेंगे? दूसरे ही दिन सब्जी विक्रेताओ का मोर्चा निकल जायेगा। अब चरोटा के लिये कौन मोर्चा निकालेगा?
पिछले वर्ष मुम्बई के एक सात सितारा होटल के मालिक अपने नये प्रयोगो के विषय मे मुझे बता रहे थे। उन्होने मुझे एक विशेष प्रकार की काफी दी और कहा कि इसे पीकर आपको स्वार्गिक आनन्द मिलेगा। मै काफी पीने के बाद कुछ बोलता इससे पहले ही वे बोल पडे कि यह फोटिड सेन्ना की काफी है। हम इसे विशेष पेय के रुप मे मेहमानो के सामने प्रस्तुत कर रहे है। अभी से विदेशो मे इसकी माँग होने लगी है। मै हतप्रभ सुनता रहा। मैने बस्तर के जंगलो मे इसे पहली बार चखा था। तब पारम्परिक चिकित्सक ने इसका औषधीय महत्व भी बताया था। बीजो को भूनकर पानी मे उबालने से काफी जैसा स्वाद आता है। यह फोटिड सेन्ना क्या बला है? फोटिड सेन्ना माने हमारा अपना चरोटा। (क्रमश:)
(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)
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Updated Information and Links on March 15, 2012
Related Topics in Pankaj Oudhia’s Medicinal Plant Database at http://www.pankajoudhia.com
Argyreia nervosa (BURM.F.) BOJ. in Pankaj Oudhia’s Research Documents on
Indigenous Herbal Medicines (Tribal Herbal Practices) for Bleeding Piles
(Hemorrhoids): Khooni Bawasir ke liye
Farash (Erythrina) aur Jamun (Syzygium) ki Pattiyon ka Prayog (11 Herbal
Ingredients, Tribal Formulations of Uttarakhand; Not mentioned in ancient
literature related to different systems of medicine in India and other
countries; Popularity of Formulation (1-10) among the Young Healers-5; पंकज अवधिया
के शोध दस्तावेज: खूनी बवासिर के लिए फराश और जामुन की पत्तियों
का प्रयोग),
Argyreia pomacea (ROXB.) CHOISY in Pankaj Oudhia’s Research Documents on
Indigenous Herbal Medicines (Tribal Herbal Practices) for Bleeding Piles
(Hemorrhoids): Khooni Bawasir ke liye
Farash (Erythrina) aur Jamun (Syzygium) ki Pattiyon ka Prayog (65 Herbal
Ingredients, Tribal Formulations of Maharashtra; Not mentioned in ancient
literature related to different systems of medicine in India and other
countries; Popularity of Formulation (1-10) among the Young Healers-5; पंकज अवधिया
के शोध दस्तावेज: खूनी बवासिर के लिए फराश और जामुन की पत्तियों
का प्रयोग),
Arisaema attenuatum E.BARNES
in Pankaj Oudhia’s Research Documents on Indigenous Herbal Medicines
(Tribal Herbal Practices) for Bleeding Piles (Hemorrhoids): Khooni Bawasir ke liye Farash (Erythrina) aur
Jamun (Syzygium) ki Pattiyon ka Prayog (23 Herbal Ingredients, Tribal
Formulations of Karnataka; Not mentioned in ancient literature related to
different systems of medicine in India and other countries; Popularity of Formulation
(1-10) among the Young Healers-5; पंकज अवधिया के शोध दस्तावेज: खूनी
बवासिर के लिए फराश और जामुन की पत्तियों का प्रयोग),
Arisaema leschenaultii BLUME
in Pankaj Oudhia’s Research Documents on Indigenous Herbal Medicines
(Tribal Herbal Practices) for Bleeding Piles (Hemorrhoids): Khooni Bawasir ke liye Farash (Erythrina) aur
Jamun (Syzygium) ki Pattiyon ka Prayog (13 Herbal Ingredients, Tribal
Formulations of Uttarakhand; Not mentioned in ancient literature related to
different systems of medicine in India and other countries; Popularity of Formulation
(1-10) among the Young Healers-5; पंकज अवधिया के शोध दस्तावेज: खूनी
बवासिर के लिए फराश और जामुन की पत्तियों का प्रयोग),
Arisaema murrayii (GRAHAM) HOOK.F. in Pankaj Oudhia’s Research Documents on
Indigenous Herbal Medicines (Tribal Herbal Practices) for Bleeding Piles
(Hemorrhoids): Khooni Bawasir ke liye
Farash (Erythrina) aur Jamun (Syzygium) ki Pattiyon ka Prayog (19 Herbal
Ingredients, Tribal Formulations of Jharkhand; Not mentioned in ancient
literature related to different systems of medicine in India and other
countries; Popularity of Formulation (1-10) among the Young Healers-5; पंकज अवधिया
के शोध दस्तावेज: खूनी बवासिर के लिए फराश और जामुन की पत्तियों
का प्रयोग),
Arisaema tortuosum SCHOTT
in Pankaj Oudhia’s Research Documents on Indigenous Herbal Medicines
(Tribal Herbal Practices) for Bleeding Piles (Hemorrhoids): Khooni Bawasir ke liye Farash (Erythrina) aur
Jamun (Syzygium) ki Pattiyon ka Prayog (12 Herbal Ingredients, Tribal
Formulations of Uttarakhand; Not mentioned in ancient literature related to
different systems of medicine in India and other countries; Popularity of Formulation
(1-10) among the Young Healers-7; पंकज अवधिया के शोध दस्तावेज: खूनी
बवासिर के लिए फराश और जामुन की पत्तियों का प्रयोग),
Arisaema tuberculatum C.E.C FISCH. in Pankaj Oudhia’s Research Documents on
Indigenous Herbal Medicines (Tribal Herbal Practices) for Bleeding Piles
(Hemorrhoids): Khooni Bawasir ke liye
Farash (Erythrina) aur Jamun (Syzygium) ki Pattiyon ka Prayog (22 Herbal
Ingredients, Tribal Formulations of Uttarakhand; Not mentioned in ancient
literature related to different systems of medicine in India and other
countries; Popularity of Formulation (1-10) among the Young Healers-5; पंकज अवधिया
के शोध दस्तावेज: खूनी बवासिर के लिए फराश और जामुन की पत्तियों
का प्रयोग),
Arisaema tylophorum C.E.C FISCH. in Pankaj Oudhia’s Research Documents on
Indigenous Herbal Medicines (Tribal Herbal Practices) for Bleeding Piles
(Hemorrhoids): Khooni Bawasir ke liye
Farash (Erythrina) aur Jamun (Syzygium) ki Pattiyon ka Prayog (22 Herbal
Ingredients, Tribal Formulations of Karnataka; Not mentioned in ancient
literature related to different systems of medicine in India and other
countries; Popularity of Formulation (1-10) among the Young Healers-5; पंकज अवधिया
के शोध दस्तावेज: खूनी बवासिर के लिए फराश और जामुन की पत्तियों
का प्रयोग),
Aristida adscenscionis L.
in Pankaj Oudhia’s Research Documents on Indigenous Herbal Medicines
(Tribal Herbal Practices) for Bleeding Piles (Hemorrhoids): Khooni Bawasir ke liye Farash (Erythrina) aur
Jamun (Syzygium) ki Pattiyon ka Prayog (21 Herbal Ingredients, Tribal
Formulations of Karnataka; Not mentioned in ancient literature related to
different systems of medicine in India and other countries; Popularity of Formulation
(1-10) among the Young Healers-6; पंकज अवधिया के शोध दस्तावेज: खूनी
बवासिर के लिए फराश और जामुन की पत्तियों का प्रयोग),
Aristida setacea RETZ.
in Pankaj Oudhia’s Research Documents on Indigenous Herbal Medicines
(Tribal Herbal Practices) for Bleeding Piles (Hemorrhoids): Khooni Bawasir ke liye Farash (Erythrina) aur
Jamun (Syzygium) ki Pattiyon ka Prayog (20 Herbal Ingredients, Tribal
Formulations of Karnataka; Not mentioned in ancient literature related to
different systems of medicine in India and other countries; Popularity of
Formulation (1-10) among the Young Healers-5; पंकज अवधिया के शोध दस्तावेज: खूनी
बवासिर के लिए फराश और जामुन की पत्तियों का प्रयोग),
Aristolochia indica L.
in Pankaj Oudhia’s Research Documents on Indigenous Herbal Medicines
(Tribal Herbal Practices) for Bleeding Piles (Hemorrhoids): Khooni Bawasir ke liye Farash (Erythrina) aur
Jamun (Syzygium) ki Pattiyon ka Prayog (32 Herbal Ingredients, Tribal
Formulations of Uttarakhand; Not mentioned in ancient literature related to
different systems of medicine in India and other countries; Popularity of Formulation
(1-10) among the Young Healers-5; पंकज अवधिया के शोध दस्तावेज: खूनी
बवासिर के लिए फराश और जामुन की पत्तियों का प्रयोग),
Aristolochia tagala CHAM.
in Pankaj Oudhia’s Research Documents on Indigenous Herbal Medicines
(Tribal Herbal Practices) for Bleeding Piles (Hemorrhoids): Khooni Bawasir ke liye Farash (Erythrina) aur
Jamun (Syzygium) ki Pattiyon ka Prayog (9 Herbal Ingredients, Tribal
Formulations of Jharkhand; Not mentioned in ancient literature related to
different systems of medicine in India and other countries; Popularity of Formulation
(1-10) among the Young Healers-5; पंकज अवधिया के शोध दस्तावेज: खूनी
बवासिर के लिए फराश और जामुन की पत्तियों का प्रयोग),
Artabotrys hexapetalus (L.F.) BHANDARI in Pankaj Oudhia’s Research Documents on
Indigenous Herbal Medicines (Tribal Herbal Practices) for Bleeding Piles
(Hemorrhoids): Khooni Bawasir ke liye
Farash (Erythrina) aur Jamun (Syzygium) ki Pattiyon ka Prayog (42 Herbal
Ingredients, Tribal Formulations of Uttarakhand; Not mentioned in ancient
literature related to different systems of medicine in India and other
countries; Popularity of Formulation (1-10) among the Young Healers-7; पंकज अवधिया
के शोध दस्तावेज: खूनी बवासिर के लिए फराश और जामुन की पत्तियों
का प्रयोग),
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