अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -16
अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -16
- पंकज अवधिया
कौन-सा पेड आपके लिये कल्पवृक्ष है? यह प्रश्न जब मैने छत्तीसगढ के छुरा क्षेत्र के उन किसानो से पूछा जो कि पास के जंगलो मे उग रहे हर्रा के पेडो से कच्चे फल एकत्र कर रहे थे तो उन्होने हरे फलो को दिखाया और बोले हम इन फलो को घर ले जाकर कुचलेंगे और फिर इसे लेप के रुप मे अपने पैरो मे लगायेंगे। उन भागो मे जो कि धान के खेतो मे पानी मे लगातार डूबे रहने के कारण गल रहे है। यह लेप पुराने जख्मो को ठीक करेगा और साथ ही आने वाले दिनो मे पैरो को गलन से बचायेगा। हमारे लिये तो आज हर्रा का पेड ही कल्पवृक्ष है। यही हमारी संजीवनी है।
अम्बिकापुर के अजीरमा गाँव मे जब मै छात्र जीवन के दौरान वानस्पतिक सर्वेक्षण कर रहा था तब मुझे रोहिणी सरकार नामक सज्जन के घर जाने का अवसर प्राप्त हुआ। उन्होने अपने घर के सामने निशिन्दी का पेड लगा रखा था। इसे आपने घर के सामने क्यो लगाया है? वे बोले कि यह बुरी हवा से हमारे घर और सदस्यो की रक्षा करता है। फिर उन्होने इसके उपयोग गिनाने आरम्भ किये तो यह मुझे बुरी हवा से बचाने वाले पेड की जगह कल्पवृक्ष प्रतीत होने लगा। वे निशिन्दी की छाल और पत्तियो से कीटनाशक तैयार कर धान और सब्जियो की फसल को कीटो से बचाते थे। कभी-कभी जब कीट इससे नियंत्रित नही होते थे तो वे नीम और आस-पास उग रहे खरपतवार समझे जाने वाले पौधो का प्रयोग इसके साथ करते थे। आज भी देश के बहुत से भागो मे निशिन्दी की पत्तियो का प्रयोग रोहिणी की तरह जैविक खेती कर रहे किसान करते है। अन्न संग्रहण के लिये जो मिट्टी के बडे-बडे पात्र बनाये जाते है उनके निर्माण के समय निशिन्दी की पत्तियो को मिट्टी के साथ मिलाया जाता है। देश के पारम्परिक चिकित्सक इसकी लकडी से जूते बनाते है और फिर इन्हे उन रोगियो को कुछ समय तक पहनने की सलाह देते है जो कि वात रोगो से परेशान रहते है। ऐडी के वात के लिये तो यह राम बाण है। वे युवा जिन्हे रात को ठीक से नीन्द नही आती है और जो स्वप्न-दोष से परेशान रहते है उन्हे इसकी तीन पत्तियो को सिर के नीचे रखकर सोने की सलाह दी जाती है।
पिछले सप्ताह मुझे औषधीय धान की खेती कर रहे किसान बिसाहू राम जी से मिलने का अवसर प्राप्त हुआ। मेरे साथ क्षेत्र के कुछ पारम्परिक चिकित्सक भी थे। उनसे लम्बी चर्चा के बाद जब हम चलने को तैयार हुये तो उनके चेहरे पर दर्द के भाव देखकर हमने उनसे कारण पूछा। उन्होने बताया कि बाये पैर मे दर्द है। हमने जाँचा-परखा तो समस्या जोडो के दर्द से सम्बन्धित निकली। अब हम लोगो ने अपने ज्ञान से उन्हे सरल उपाय बताने आरम्भ किये। सबसे सरलता से फुडकर का पौधा मिल जाता है पूरे देश मे। मै कुछ पत्तियाँ तोड लाया फिर तेल मे उसे सेककर उनके प्रभावित पैर को सेकने लगा। उन्हे कुछ राहत मिली। इस बीच पारम्परिक चिकित्सक नेगुर की डाल ले आये। आनन-फानन मे डाल को पानी मे उबाला गया और वाष्प को प्रभावित पैर की ओर भेजा गया। उन्हे ज्यादा आराम मिला। नेगुर माने निशिन्दी। मुझे बरबस ही रोहिणी जी की याद आ गयी। किसान इन दो सरल उपायो से प्रसन्न हुआ और हमे धन्यवाद दिया। यदि ये उपाय नही किये जाते तो उन्हे रोज दर्दशामक के इंजैक्शन लगवाने पडते। साथ आये पारम्परिक चिकित्सको ने उन्हे कुछ और आंतरिक औषधीयाँ बतायी। हमने गुड की चाय पी और देश के ज्ञान को देश मे ही बाँटकर धन्य हो गये।
भले ही आज का हमारा शहरी समाज ग्रामीण आस्था को अन्ध-विश्वास माने पर आज भी इसी आस्था के कारण गाँवो मे पुराने वृक्ष और इनसे सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान आम लोगो को राहत पहुँचा रहे है। शहरो मे पतले विदेशी पौधो को लगाकर अखबारो मे वृक्षारोपण करते हुये तस्वीरे छपवा दी जाती है और सालो तक एक ही स्थान पर वृक्षारोपण का प्रपंच जारी रहता है। जब गाँव के लोग पेडो के प्रति अपनी आस्था जताते है तो वे चिढकर उन्हे पिछडा कहने लगते है।
आमतौर पर छत्तीसगढ मे हरियाली अमावस्या के दिन सुबह ही से घरो मे नीम की डाल लगा दी जाती है। इस बार इस दिन मै वनीय क्षेत्रो मे था। वहाँ जामुन से लेकर भिलावा तक के पेडो की डाल मैने घरो मे देखी। वापस शहर लौटा तो मित्र के नन्हे बालक ने उत्साहित होकर नीम की डाल दिखायी। उसका उत्साह देखते ही बनता था। यह हमारा कर्तव्य है कि हम अपनी आगामी पीढी को अपनी परम्पराओ के विषय मे वैज्ञानिक तथ्यो के साथ बताये। आज के बच्चे विशेषकर शहरी बच्चे तो घरो मे चीनी घंटियाँ ही देख पाते है। जब उन्हे नीम, भिलावा जैसी वनस्पतियो से परिचय मिलता है तो एक अलग ही जोश उनमे दिखता है।
पिछले वर्ष मै नियमगिरि के अलाबेली गाँव के पारम्परिक चिकित्सक लक्सा माँझी से मिला तो अल्प समय मे ही उन्होने पलाश के इतने सारे उपयोगो की जानकरी दी जितनी कि हमारे प्राचीन साहित्यो मे भी वर्णित नही है। उन्होने बताया कि जंगल मे प्रत्येक पेड की अपनी विशिष्ट भूमिका है। एक प्रजाति का खात्मा माने पूरे जंगल मे असंतुलन। आज इसी तरह की बात वे लोग कर रहे है जिन्होने क्लाइमेट चेंज का शोर मचाया हुआ है। लक्सा का गाँव खतरे मे है। उसके जंगल भी खतरे मे है। आज वहाँ बाक्साइट का खनन किया जाना है। पूरा नियमगिरि तबाही की कगार पर है। जिन पेडो ने लक्सा जैसे पारम्परिक चिकित्सको के माध्यम से लाखो जाने बचायी, वे कट रहे है। हाथियो के वे समूह जो लक्सा के घर के पास से गुजरते थे या दुर्लभ सर्प जिनका जहर लक्सा ने लोगो के खून से अलग किया था अब खत्म हो जायेंगे। जिन लोगो ने गाँवो और जंगलो मे बसने वालो के दर्द को नही समझा वे यहाँ उत्खनन करेंगे और वैसे ही लोगो ने उन्हे इसकी सरकारी अनुमति दी है।
आज जहाँ नन्दी को पानी पिलाकर और गणेश जी को दूध पिलाकर हमारा शहरी समाज अपनी खिल्ली उडवा रहा है वही हमारा ग्रामीण समाज अपनी विज्ञान सम्मत परम्पराओ के माध्यम से पेडो और प्रकृति के दूसरे घटको को बचा रहा है। शहर का विश्वास आस्था और गाँव का विश्वास अन्ध-विश्वास- ऐसे नारो को बुलन्द करने वालो के हौसले पस्त करने की जरुरत है। (क्रमश:)
(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)
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Updated Information and Links on March 15, 2012
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रमेश