अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -72

अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -72 - पंकज अवधिया

“काका, मैने आज बवंडर मे बूढी दादी का चेहरा देखा। काका, मुझे बहुत डर लग रहा है। दादी अब नही बचेगी।“ कुछ ऐसे ही शब्द थे बाल-पत्रिका मे छपे एक लेख मे। इस लेख मे दावा किया गया था कि यह सत्य घटना पर आधारित है। इसमे एक ऐसे बालक का वर्णन किया गया था जिसे छोटे-छोटे बवंडरो मे परिचित चेहरे दिखा करते थे। जिसका चेहरा दिखता था वह दूसरे ही दिन परलोक सिधार जाता था। बडा ही लम्बा लेख था और उसमे उत्तर भारत के कुछ स्थानो के नाम भी लिखे थे जिससे जान पडे कि यह सत्य घटना है। बचपन मे पढा यह लेख मन मे गहरे बैठा है। मुझे आज भी यह सोचकर अजीब लगता है कि उस समय बालपत्रिका मे इसे क्यो प्रकाशित किया गया था। घर मे पराग और नन्दन के अलावा दूसरी पत्रिका नही आती थी। यह लेख मैने स्कूल की लाइब्रेरी मे पढा था। आज भी जब मै ऐसे बवंडरो को देखता हूँ तो सहसा इस लेख का ध्यान आ जाता है। स्कूल के बाद मै अपनी यात्राओ के दौरान जब भी मौका पडता लोगो से इन बवंडरो से जुडे विश्वास के बारे मे पूछ लेता। जितनी मुँह, उतनी बाते। सभी के पास अपनी कहानी होती। बवंडरो का बनना एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है और सारा खेल हवा के असमान दबाव का है पर फिर भी क्यो हमारे देश मे इससे जुडे इतने अधिक विश्वास और बाते है, यह समझ मे नही आता है। इस पर गहनता से शोध हो तो शायद इसके कारण सामने आये। हर नयी कहानी सुनने के तुरंत बाद इसकी वैज्ञानिक व्याख्या का मन करता है पर कहानी बताने वाले की आस्था देखकर मै रुक जाता हूँ।

पिछले कुछ सालो से मै अंकोल नामक पेड की घटती संख्या से चिंतित हूँ। पहले ये पेड आसानी से दिख जाते थे और बुजुर्ग नाना प्रकार के रोगो मे इसके विभिन्न पौध भागो क प्रयोग किया करते थे। अंकोल उन्हे अकारण चिकित्सको के पास जाने से रोक लेता था। बुजुर्ग पाताल-यंत्र की सहायता से इसके बीजो का तेल निकालते थे और फिर गठिया से लेकर त्वचा रोगो की चिकित्सा मे इसका प्रयोग करते थे। इसके तेल से फसलीय बीजो को उपचारित किया जाता था जिससे उनमे अच्छा अंकुरण होता था। इस तेल के प्रयोग से आम जैसे पेडो मे स्वादिष्ट फल आते थे। वे कहते थे कि अंकोल के फलो को गिरने से पहले यदि पेड से ही एकत्र कर लिया जाये तो उनके दिव्य गुण बरकरार रहते है। एक-एक फल एकत्र करना मुश्किल काम है पर फिर भी वे धैर्य से यह कार्य करते है। पर अचानक ही अन्य वनस्पतियो की तरह इसके प्रयोग मे भी कमी आयी है। नयी पीढी आधुनिक दवाओ के नियमित सेवन मे अधिक विश्वास करती है। ऐसा करना उनकी मजबूरी भी बनती जा रही है क्योकि वे सीधे-सादे जीवन से दूर होते जा रहे है। अंकोल का उपयोग जलाऊ लकडी के रुप मे होने के कारण इसके पारम्परिक उपयोगो से अंजान नयी पीढी बिना देर किये इन्हे काट रही है। इसके कारण इनकी संख्या मे तेजी से कमी आ रही है। मैने अंकोल के पेडो को चिन्हित करना आरम्भ किया है। जहाँ भी ये पेड दिखते है मै रुककर आस-पास के लोगो को इनके सरल प्रयोगो के बारे मे बता देता हूँ। यदि कोई रोगी होता है तो कुछ प्रयोगो को दिखा भी देता हूँ। इससे इन पेडो का प्रयोग फिर से शुरु हो जाता है और फिर कोई इसे नही काटता। एक बार ऐसे ही मुझे खबर मिली कि एक सुदूर गाँव मे अंकोल के बहुत से पेड है। मै चल पडा। जिस तांत्रिक ने जानकारी दी थी उसे भी साथ मे रख लिया। उस गाँव मे पहुँचकर अंकोल के ढेर सारे पेडो को देखकर मन प्रसन्न हो गया। अचानक ही हमारे सामने कुछ दूरी पर हवा का बवंडर उठा तो सब काम छोडकर तांत्रिक उस ओर भागा। यह मेरे लिये अनोखी बात थी। क्योकि लोग आमतौर पर इससे दूर ही रहना पसन्द करते है। बवंडर तो कुछ क्षणो का होता है। तांत्रिक वापस लौट आया। उसने बवंडर मे कुछ खोजने की कोशिश की थी पर लौटते वक्त वह निराश था। मेरे मन मे प्रश्न कुलबुला रहे थे। अंकोल का काम एक किनारे पर रह गया और हम इस बवंडर की चर्चा मे जुट गये।

तांत्रिक ने नयी बात बतायी। उसने कहा कि हम लोग इसे भँवर कहते है। इससे जो पत्तियाँ उडती है, उन्हे पकडने की कोशिश हम करते है। किसी भी कीमत मे उडती घूमती पत्तियो को पकडना हमारा उद्देश्य होता है। पत्तियाँ नीचे गिर जाये तो वे किसी काम की नही रहती है। हम सैकडो बार प्रयास करते है तब जाकर पत्तियो को पकड पाते है। उसका कहना सही लगा क्योकि बवंडर तो बता के नही आते और कुछ पलो मे गायब भी हो जाते है। उनके पीछे भागना भी हर बार सम्भव नही हो पाता है। तांत्रिक ने अपनी बात जारी रखी। उसने कहा कि पत्तियो का प्रयोग तंत्र-क्रियाओ मे होता है। इनमे से एक अनोखा प्रयोग यह है कि ऐसी पत्तियो को उलटाकर उस पर बैठकर यदि कोई व्यक्ति किसी के घर खाना खाये तो मेजबान खाना खिलाते-खिलाते थक जायेगा पर मेहमान का पेट नही भरेगा। “कोरा अन्ध-विश्वास। सब फालतू बात है।“ ये मेरे ड्रायवर के शब्द थे। इस पर आस-पास खडे लोगो की त्वरित प्रतिक्रिया हुयी। वे बोले कि हमारी बातो का मजाक नही उडाये। भले विश्वास न करे पर मजाक न करे। मैने ड्रायवर को शांत रहने को कहा और चेहरे मे आश्चर्य के भाव लाकर यह जताने की कोशिश की कि मुझे तांत्रिक की बातो पर विश्वास हो रहा है। यही एक रास्ता था पूरी जानकारी प्राप्त करने का। क्या तुम ऐसा प्रयोग दिखा सकते हो? मैने तांत्रिक से पूछा। हाँ साहब, आप पत्ती दे दो तो मै अभी यह प्रयोग दिखा सकता हूँ। मैने गाँव वालो से कहा कि आप साथ दे तो हम प्रयास कर ऐसी पत्तियो को आज ही एकत्र कर सकते है। उन्होने कहा कि यह इतना आसान नही है। पर हम लोग आज दिन भर यह कोशिश करेंगे। सब लोग बिखर गये और तेज चलती हवा मे बवंडर का इंतजार करने लगे। जैसे ही यह बनता दिखता लोग दौड पडते। जब हवा धीमी होती तो हम बैठकर पारम्परिक ज्ञान पर चर्चा करते। ड्रायवर बैचैन था। मैने उसे बहलाने के लिये कहा कि यदि यह बात सच निकली तो मै उन लोगो को इस पर बैठने की सलाह दे सकूंगा जो पुराने रोगो के कारण रुचि से भोजन नही करते है। शायद यह जादुई पत्ती उन्हे खाने को प्रेरित करे। वैसे यह अन्ध-विश्वास है, यह मै जानता हूँ पर आराम से सोचो कि यह कितना अच्छा मौका है पूरे गाँव के सामने दूध का दूध और पानी का पानी करने का। बातो से जितना भी समझा ले, ये मानने से रहे। एक बार अपनी आँखो से देख्नेगे तो खुद भी विश्वास करेंगे और दुनिया को पीढीयो तक बतायेंगे भी। ड्रायवर संतुष्ट हो गया। दिन गुजर गया। शाम हो गयी। गाँव वालो से अनुरोध पर रात वही गुजारी और सुबह से फिर उसी काम मे जुट गये। दोपहर को कुछ सूखे पत्ते हाथ मे आ गये। यह काम कर दिखाया था तांत्रिक ने। उसकी खुशी का ठिकाना नही था। वह सबको इसे दिखा रहा था। जहाँ सामूहिक रुप से खाना पक रहा था वही उसे बिठाया गया। यदि उसकी बात सच निकलती तो हम सब को भूखा ही रहना पडता। सारा खाना तांत्रिक ही खा जाता। मंत्रो के साथ तांत्रिक का भोजन शुरु हुआ। कुछ ही देर मे उसे अहसास होने लगा कि पत्तियाँ कुछ नही कर पा रही है। यह उसकी इज्जत का सवाल था। उसने खाने के दौरान पानी की मात्रा कम की और डटकर खाना शुरु किया। पर कितना खा पाता। वह उठ गया। लोगो को निराशा ने घेर लिया। वे एक-एक कर पत्तियो मे बैठने लगे और खाना खाने लगे। पर कुछ जादू न हुआ। आखिर मे उन्होने मान लिया कि यह निरा अन्ध-विश्वास है। बच्चो से लेकर बुजुर्गो तक सभी ने यह सब देखा। पीढीयो तक अब यह सन्देश पहुँचता रहेगा-इस आशा मे मैने सभी को धन्यवाद दिया। उन्हे अंकोल के ढेरो प्रयोग बताये और दिखाये। गाँव के भूतो की चर्चा भी हुयी। मैने अपने दूसरे अनुभवो से भी उन्हे परिचित कराया।

कभी-कभी मै सोचता हूँ, ज्ञान-विज्ञान की अलख जगाने के लिये ये जरुरी नही है कि सरकारी सहायता के लिये बैठे रहे। यह कहते रहे है कि हमे गाडी मिलेगी तभी हम जायेंगे। फिर वापस लौटकर अखबारो मे छपवाये कि कैसे हमने वहाँ जाकर अन्ध-विश्वास मिटाया। अन्धकार मिटाने का यह बडा काम छोटे प्रयासो से भी हो सकता है। हमारे आस-पास बहुत अन्धकार है। यदि जो जहाँ है बस वही पर कुछ प्रकाश फैला दे तो अन्ध-विश्वास का अन्धेरा छँटने मे जरा भी देर नही लगेगी। कल ही मै फिर उस गाँव मे गया। अंकोल के पेड मुझे सुरक्षित दिखे। कुछ पुराने पेडो के नीचे देवताओ को स्स्थापित कर दिया गया था। उन्हे जो जल चढाया जा रहा था वह पेडो को नया जीवन दे रहा था। बहुत से बच्चे मुझे देखकर जमा हो गये। कुछ के पास नये प्रश्न थे। उन्होने कुछ दिनो पहले किसी शहरी तांत्रिक से अपने गाँव को बचाया था। यह अच्छी प्रतिक्रिया थी। मैने रुककर चर्चा करने का मन बनाया और इस तरह विचारो के आदान-प्रदान का अनवरत सिलसिला एक बार फिर चल पडा। (क्रमश:)


(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)

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