अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -80

अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -80 - पंकज अवधिया

कुछ दिनो पहले मेरे एक परिचित बडी ही विचित्र समस्या लेकर आये। उन्होने अपना मकान किसी को किराये पर दे रखा था। वे खुद बाहर रहते थे इसलिये तीन-चार सालो के अंतराल मे उनका आना होता था। इस बार वे किरायेदार से मिलने गये तो उन्हे मकान की बाहरी दीवार पर बरगद का एक छोटा सा पेड नजर आया। जैसा कि अक्सर होता है पक्षी बरगद के फल खाते है और बीज बिना पचे शरीर से बाहर बीट के साथ निकल जाते है। जहाँ भी बीट गिरती है अनुकूल वातावरण मिलते ही बीज का अंकुरण हो जाता है। और देखते ही देखते नया पौधा तैयार हो जाता है। आमतौर पर लोग ऐसे पौधो से घर को होने वाले नुकसान को देखते हुये उखाड देते है। कई बार जब ऐसे पौधे बडे हो जाते है तो यूरिया या नमक की अधिक मात्रा जडो मे डालकर पौधो को जला दिया जाता है। यहाँ रिश्तेदार ने जैसे ही बरगद को उखाडना चाहा किरायेदार ने कह दिया कि बरगद को उखाडना माने परिवार का समूल नाश। वह न तो खुद इसे उखाडेगा और न ही इसे उखाडने देगा। किरायेदार की इस निज आस्था से बवाल खडा हो गया। तू-तू मै-मै से जब कोई नतीजा नही निकला तो रिश्तेदार किरायेदार को लेकर मेरे पास आ गये।

उनकी समस्या सुनकर मै भी असमंजस मे था। एक ओर मुझे मन ही मन किरायेदार के वनस्पति प्रेम पर खुशी हो रही थी दूसरी ओर रिश्तेदार की समस्या भी जायज लग रही थी। काफी विचारने के बाद मैने उन दोनो को अपना एक हिन्दी लेख पढने को दिया। यह लेख उस अभियान से सम्बन्धित था जिसमे सडक के किनारे उग रहे पुराने पेडो को पारम्परिक विधियो से एक स्थान से दूसरे स्थान तक स्थानांतरित किया जाना था। मैने उन्हे सुझाया कि यदि वे चाहे तो इस पौधे की पूजा-अर्चना कर पारम्परिक विधियो की सहायता से उसे कम से कम नुकसान पहुँचाये पास के बागीचे मे स्थानांतरित कर दिया जाये। किरायेदार सहमत दिखे तो मैने उपचार शुरु किया। सात दिनो तक विभिन्न वनस्पतियो के सत्व से बरगद को सीचा जाता रहा फिर सावधानी से उसे उखाडा गया। नये स्थान मे रोपने के बाद फिर सत्वो से उसकी सिंचाई की गयी। जैसी कि उम्मीद थी, नये स्थान पर वह ऐसे जम गया जैसे महिनो से वही था। मैने किरायेदार से अनुरोध किया कि बागीचे मे इसकी देखभाल का जिम्मा आपका है। इसके अधिक जगह घेरने के कारण शायद माली मौका मिलते ही इसे उखाड फेके और सजावटी पौधे लगा दे। उन्होने सहमति मे सिर हिला दिया।

पीपल और बरगद के प्रति ऐसी आस्था देश भर मे है। पर फिर भी विकास के नाम पर जब इन्हे काटा जाता है तो कोई सडको मे उतरकर विरोध नही जताता है। मै हमेशा इस बात पर जोर देता हूँ कि किसी पुराने पेड को काटने से पहले यह आँक लेना चाहिये कि उसने अब तक कितने रुपयो का योगदान दिया है और जब तक इसकी आयु रहेगी कितने और रुपयो का योगदान देगा। फिर इसे काटकर बनायी जाने वाली सडक से मिलने वाले लाभ को आँक लेना चाहिये। फर्क अपने आप दिख जायेगा। जहाँ पुराने पेड की कीमत करोडो मे होती है वही सडको से इतना लाभ नही हो पाता है। लाभ का सौदा यह हो सकता है कि पेड को बचाते हुये सडक बने ताकि दोनो से लाभ हो। इस तरह आर्थिक योगदान की तुलना करके हम बहुत से मामलो मे प्रशासन और नेताओ को विकास के नाम पर मनमानी करने से रोक सकते है। आपने लन्दन के हीथ्रो हवाई अड्डे का नाम तो सुना होगा। यहाँ दो हवाई पट्टियाँ है पर जिस हिसाब से हवाई यातायात बढ रहा है उसे देखते हुये वहाँ की सरकार को तीसरी हवाई पट्टी की जरुरत महसूस हो रही है। तीसरी हवाई पट्टी बनाने के लिये बडे भाग की वनस्पतियाँ साफ करनी पडेगी। बस इसी बात को लेकर बवाल मचा हुआ है। वहाँ आम लोग सरकार से वनस्पतियो के आर्थिक योगदान और हवाई पट्टी से होने वाले लाभ की तुलना करने को कह रहे है। उनका कहना है कि वनस्पतियो से तो कभी नुकसान नही हुआ है और न होगा। हवाई पट्टी से कुछ लाभ होगा पर जो प्रदूषण बढेगा उससे पीढीयो तक नुकसान होगा। निश्चित ही इस मामले मे आम लोगो का पक्ष मजबूत लगता है। भारत मे भी ऐसी पहल होनी चाहिये। यहाँ तो लगता है कि जैसे शहरियो की संवेदनाए मर चुकी है। यही कारण है कि पेड कटते जा रहे है।

बरगद को स्थानांतरित करने के दौरान किरायेदार के साथ मै जब बागीचे गया तो मैने माली को कीटनाशक का छिडकाव करते देखा। किसी भी कृषि रसायन के छिडकाव के समय विशेष प्रकार के कपडे पहनने की हिदायत दी जाती है। शरीर को ढँका जाता है। नाक-मुँह को बन्द रखा जाता है। पर हमारे देश मे इन नियमो का पालन कम ही किया जाता है। सुरक्षा वस्त्र तो दिखते नही। उल्टे किसान अपने कपडो को इस डर से उतार लेते है कि वे रसायनो से खराब न हो जाये। केवल गमझा और बनियान पहन के रसायनो का छिडकाव करते है। इसी स्थिति मे बागीचे का माली भी नजर आ रहा था। मैने कीटनाशक का नाम पूछा तो मेरे होश उड गये। “इसका प्रयोग तो तब करते है जब दूसरे कीटनाशक असर करना बन्द कर देते है। फिर क्यो इसे डाल रहे हो?” मैने पूछा। माली बोला, अधिकारी जो बोलते है वही मै करता हूँ। अभी तो कीडे आये ही नही है फिर भी इसे डाला जा रहा है। जितना अधिक डालेंगे उतना अधिक कीटनाशक खपेगा और नयी खरीद पर अधिकारी को कमीशन के पैसे मिलेंगे। यह तो देश का दस्तूर बन गया है। मेरी आपत्ति सार्वजनिक बागीचे जहाँ बच्चे और बुजुर्ग आते है, मे किसी भी तरह के रसायनो के प्रयोग को लेकर थी। आम लोगो मे जागरुकता का अभाव है अन्यथा वे एकजुट हो तो देश भर के बागीचो मे इस तरह के जहरीले छिडकाव बन्द हो जायेंगे। बागीचे मे तो रोग और कीट जैविक विधियो से नियंत्रित किये जा सकते है। फिर जहरीले रसायन का छिडकाव क्यो? यूरोपीय देशो मे सरकारे 20 से अधिक कृषि रसायनो पर प्रतिबन्ध लगाने जा रही है। वे एक ऐसा अधिनियम ला रही है जिससे सार्वजनिक स्थानो पर इन रसायनो के प्रयोग पर अन्कुश लग जायेगा। कृषि रसायनो पर प्रतिबन्ध से वहाँ के किसान सहमत है पर इन्हे बनाने वाली कम्पनियो की जान पे बन आयी है। वे डरा रही है कि इस प्रतिबन्ध से खाद्य उत्पादन पर असर पडेगा। उनके इशारो पर कृषि वैज्ञानिक भी यही राग अलाप रहे है। पर इस प्रतिबन्ध को आम जनता का समर्थन मिला हुआ है। हमारे देश मे तो कृषि रसायनो के प्रतिबन्ध की बात दूर दुनिया भर मे प्रतिबन्धित कृषि रसायनो का प्रयोग होता है। हमारे शोध संस्थान बकायदा किसानो को ऐसे कृषि रसायनो के प्रयोग की अनुशंसा करते है। परिणाम सामने है। आज हमारे भोजन मे एक भी ऐसी चीज नही है जिसमे इन कृषि रसायनो की घातक मात्रा नही है। भोजन ही औषधी है-यह हमारे ऋषि-मुनियो ने बताया था पर अब यह बदलकर भोजन ही जहर है, हो गया है। पता नही कब हम जागेंगे? (क्रमश:)


(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)

© सर्वाधिकार सुरक्षित

Comments

Udan Tashtari said…
आजकल एकाएक ऑर्गेनिक फूड की ओर आकर्षण बढ़ा है सबका.

पढ़ रहे हैं आपको. जारी रहिये.
आप की सब बातें एक दम सही हैं।

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