अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -77
अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -77 - पंकज अवधिया
“विनम्र निवेदन है कि मुझे मेरे गाँव के एक बुजुर्ग आदमी ने गाँव की एक बहुत पुरानी घटना के बारे मे बताया था। गाँव के एक परिवार मे मुखिया (मालिक) पुरुष खेत जोत रहा था। वहाँ उसने कौआ और कौव्वी (नर+मादा) को जोडा खाते (सम्भोग करते) हुये देख लिया था तो उसने सोने का कौवा और कौव्वी बनवाकर उसी स्थान पर रख दिया। उसके बाद उसकी पत्नी ने सोने के कौवा और कौव्वी को लालच मे आकर चुरा लिया। इससे उसका पूरा परिवार नष्ट हो गया। इसी तरह की घटना मेरे साथ भी सन 2007 मे हुयी कि मेरी पुत्री बीमार थी जो लखनऊ अस्पताल मे भर्ती थी। मै घर रुपया लेने आया तो प्रात: दस बजे कौवा-कौव्वी को वही सब करते देखा। पर मुझे यह निश्चित नही है कि वे नर और मादा ही थे। मै अस्पताल चला गया। मेरी पुत्री का इलाज चलता रहा। इस बीच मेरी पत्नी घर आयी तो एक पंडित ने विचार करके बताया कि आप चाहे तो बिटिया के बराबर रुपये लगा दे पर वह ठीक नही होगी। वही हुआ और पुत्री की मौत हो गयी। मेरी एक पुत्री थी और दो पुत्र है। जो कष्ट मुझे इस बिटिया की मृत्यु से हुआ वह कहाँ तक लिखूँ------ उस घटना के बाद से अब मेरे मन मे शंका बनी रहती है कि गाँव के बुजुर्ग ने जो घटना बतायी थी, क्या वह सत्य थी? मेरे परिवार को कुछ न कुछ समस्या बनी रहती है। अत: श्रीमान उपरोक्त सत्य घटना को पढकर मुझे इस संकट से बचाये। मेरे परिवार को कुछ भी हो सकता है।
साथ मे टिकट लगा लिफाफ संलग्न है।“
2 जनवरी, 2009 को उन्नाव के एक गाँव से लिखी गयी यह चिठ्ठी मुझे कल ही प्राप्त हुयी। राजस्थान से छपने वाली पाक्षिक पत्रिका ‘कृषि अमृत’ मे “अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग” की यह लेखमाला छप रही है। इसी लेखमाला को पढकर यह पत्र लिखा गया है। सरसरी निगाह से इसे पढे तो पत्र के माध्यम से एक बार फिर कौव्वे से जुडे अन्ध-विश्वासो की समाज मे गहरी उपस्थिति दिखायी पडती है। इसी तरह के अन्ध-विश्वासो ने प्रकृति के सफाई कर्मी इस मासूम जीव को हमारे आस-पास से खत्म कर दिया है। आज के युग मे जब आम घर पूरी दुनिया से जुडे है और ज्ञान-विज्ञान की बाते सीधे पहुँच रही है, उसके बाद भी इस तरह के अन्ध-विश्वासो की उपस्थिति यह इशारा करती है कि जन-जागर्ण के लिये और सशक्त प्रयासो की जरुरत है। यह पत्र एक दुखी पिता का पत्र भी है। ऐसा पिता का जो पुत्री की मौत का जिम्मेदार अपने द्वारा देखे गये एक दृश्य को मानता है, जो महज एक इत्तेफाक है। कौव्वो पर अनुसन्धान करने वाले वैज्ञानिक और इन पर फिल्म बनाने वाले फिल्मकार ऐसे दृश्यो को अनगिनत बार देखते है। प्रकृतिप्रेमी और यहाँ तक कि आम आदमी भी ये सब देखते रहते है। फिर इस तरह की बुरी घटनाए सभी के साथ क्यो नही होती? गाँव के जिस बुजुर्ग ने यह बात बतायी उसी ने मन मे अनावश्यक ही शक के बीज बो दिये थे। मैने उन्हे लिखा है कि आत्मग्लानि से मुक्त होकर इसे विधि का विधान माने और नये उत्साह से इस तरह के अन्ध-विश्वासो को भुला कर परिवार के साथ अधिक समय बिताये। उन्हे कौव्वे की भूमिका और उनकी हमारे आस-पास उपस्थिति व पर्यावरण के सम्बन्ध पर एक लेख भी भेजा है। वे जब चाहेंगे स्वयम ही इस छदम संकट से निकल सकते है। आशा है मेरा पत्र उनका आत्मबल बढायेगा। मैने उन्हे पत्र के माध्यम से अपनी मन की बाते कहने के लिये धन्यवाद दिया है। सबके पास खुलकर लिखने या कहने की हिम्मत नही होती। इस तरह अपनी बातो को किसी जानकार के सामने रखना सार्थक चर्चा के नये द्वार खोलता है। जाने कितने अन्ध-विश्वास हम अपने मन मे झिझक के कारण दबाये बैठे होते है और उन घटनाओ के लिये स्वयम को दोषी मानते रहते है जिन पर हमारा कोई नियंत्रण नही है।
जैसा कि मैने पहले भी लिखा है, इस लेखमाला से सम्बन्धित ढेरो पत्र मुझे मिल रहे है। ज्यादातर धन्यवाद पत्र है पर बहुत से ऐसे भी पत्र है जो सीधे पाठको के निजी जीवन से जुडे हुये है। कुछ माता-पिता चाहते है कि मै उनके बच्चो से सीधी बात करुँ जो सफलता के लिये मेहनत का रास्ता छोडकर अन्ध-विश्वास के फेर मे पडे है। कुछ पाठको को लेखो का मूल उद्देश्य समझ नही आ रहा है। मसलन, मैने पीले पलाश से सोना बनाने से जुडे अन्ध-विश्वास की पोल एक लेख मे खोली थी। इसके जवाब मे एक पाठक लिखते है कि “ आपके लेखो से पता नही क्यो ऐसा लगता है कि आपके पास पीले पलाश से सोना बनाने की विधि है। आप यह विधि हमे भेजने का कष्ट करे। आवश्यक डाक व्यय हम भेज देंगे।“
इस लेखमाला के पूरे होने के बाद मै पाठको के प्रश्नो का जवाब दूंगा पर बीच-बीच मे महत्वपूर्ण प्रश्नो पर चर्चा जारी रहेगी।
एक और प्रश्न है जो इस लेखमाला से सीधे नही जुडता पर फिर भी इसका जवाब आवश्यक लगता है। दिल्ली से एक पाठक कहते है कि आप किसी को नही छोडते। क्या आप किसी विशेष राजनीतिक विचारधारा के है? ऐसा लगता तो नही पर अलग-अलग लेखो मे आप विभिन्न रुपो मे दिखते है। यदि आप चाहे तो अपने विचार से अवगत कराये।
उन पाठक के लिये मेरा जवाब यह रहा
कृषि की पढाई के दौरान ही समाचार पत्रो मे खबरे आने लगी कि साल के जंगलो मे बोरर कीटो का आक्रमण हुआ है और अब असंख्य वृक्षो को काटा जाना जरुरी है। उस समय छत्तीसगढ, मध्यप्रदेश का ही हिस्सा हुआ करता था। राज्य मे कांग्रेस की सरकार थी। साल के जंगलो का काटा जाना तय था। मंजूरी मिल चुकी थी। हवा एक ही दिशा मे बह रही थी। मुझे यह सब अटपटा लग रहा था। क्या बोरर इतना खतरनाक है कि जंगल ही साफ करना पडेगा? लोग दबी जबान मे कह रहे थे कि बोरर तो बहाना है, साल पर लालची नजरे जमी हुयी है। जंगल राज है। प्रभावित के नाम पर स्वस्थ पेड भी काट दिये जायेंगे। मैने आस-पास के साल के जंगलो मे जाने का मन बनाया। आरम्भिक सर्वेक्षण से बहुत से ऐसे उपायो की जानकारी मिली जिससे लगा कि जंगलो को काटना ही एकमात्र विकल्प नही है।
मैने स्थानीय समाचार पत्रो को बताया कि साल के जंगल बचाये जा सकते है। दैनिक नवभारत ने न केवल इस समाचार को प्रमुखता से छापा बल्कि मुझे आर्थिक सहायता देकर उन जंगलो मे जाकर जमीनी स्थिति जानने का मौका भी दिया। पर इस सब से रंग मे भंग पड गया। मैने समाचार पत्रो के हवाले से कुछ समाधान भी बताये। इससे जंगलो को बचाने पर एक नयी बहस शुरु हुयी। लोगो को सरकारी निर्णय मे भ्रष्टाचार की बू आने लगी। इसी बीच एक महाश्य मुझसे मिलने आये और कहा कि भाजपाई राजनीति मत करो। राजनीति? पर मैने तो राजनीति नही की। मैने तो सिर्फ साल के जंगलो को बचाने की बात की। चूँकि यह बात तात्कालिन सरकार के विरुद्ध थी इसलिये मुझे विपक्ष अर्थात भारतीय जनता पार्टी क हमदर्द मान लिया गया।
जब छत्तीसगढ बना तो कांग्रेस सरकार ने जडी-बूटियो की खेती को बढावा दिया। उस समय तक मेरे काफी लेख और शोध-पत्र जडी-बूटियो पर प्रकाशित हो चुके थे इसलिये विशेषज्ञ के रुप मे मेरी माँग बढ गयी। मुझे उच्च स्तरीय बैठको मे बुलाया जाने लगा। किसान बडी संख्या मे मिलने आने लगे। सम्मेलनो का दौर चला। इस समय कांग्रेस की सरकार थी और भाजपा विपक्ष मे थी इसलिये मुझे कांग्रेस का हमदर्द मान लिया गया। जबकि मेरी पहुँच जडी-बूटियो तक ही थी। इसी बीच स्थानीय विश्वविद्यालय मे सहायक प्राध्यापक के पद के लिये साक्षात्कार हुये। मैने भी आवेदन किया था। साक्षात्कार के कुछ दिन पहले मै मुख्यमंत्री निवास मे जडी-बूटी पर काम कर रही एक संस्था के सदस्यो के साथ गया और काफी देर तक मेरी बात सुनी जाती रही। जब विश्वविद्यालय मे साक्षात्कार हुआ तो मेरा शोध कार्य देखकर बाहर से आये विशेषज्ञ खडे हो गये और कहा कि मै आपके कार्यो के आगे अपने आपको छोटा पाता हूँ और आपका मूल्याँकन नही कर सकता। य्ह मेरे लिये गौरव की बात थी। साक्षात्कार अच्छा हुआ। सभी को लगता था कि कांगेस की सरकार है और मेरा चयन हो जायेगा। मेरे साथियो ने खूब रिश्वत का प्रबन्ध किया था। नेताओ से भी फोन करवाया था। परिणाम आने के कुछ दिनो पूर्व माथे मे चिंता की लकीरे लिये एक व्यक्ति ने मुझसे कहा कि पैसे भी नही दिये, फोन भी नही करवाया फिर कैसे होगा चयन? योग्यता के आधार पर आपका नाम सबसे ऊपर था पर मंत्री जी ने नीचे खिसका दिया है। अभी भी समय है कुछ कर सके तो करे। मैने उन्हे अनसुना कर दिया। परिणाम आये और मुझे नही चुना गया। लोगो के आश्चर्य का ठिकाना नही रहा। यह सब तो होना ही था। मै अपने काम मे लगा रहा। जब राज्य के मुखिया को इस बात की खबर हुयी तो उनके आश्चर्य का ठिकाना नही रहा। वे शायद कुछ करते पर उन्हे पता था कि खैरात और वह भी गलत रास्ते से, स्वीकार नही की जायेगी इसलिये वे चुप रहे। इस पूरे घटनाक्रम से मेरी स्थिति बाहरी नजरो मे फिर बदल गयी। उसी समय विश्वविद्यालय से धान के जर्मप्लाज्म को विदेशी कम्पनी को सौपे जाने की बात मुझे पता चली। यह राष्ट्रदोह था। इसमे विश्वविद्यालय के आला अधिकारियो के हाथ रंगे हुये थे। मैने अपने एक वरिष्ठ को यह बात बतायी तो उन्होने इसका लाभ उठाया। विपक्ष को इस बारे मे बताया और सडको पर आन्दोलन छिड गया। विपक्ष मतलब भाजपा। मेरा राजनीति का इरादा नही था पर ऐसा समझा गया कि साक्षात्कार मे चयन न होने के कारण मै सरकार से नाराज था इसलिये यह पोल खोली। एक बार फिर मै दूसरे रंग का समझा जाने लगा। चुनाव हुये और भाजपा की सरकार आ गयी। मुझे उन वरिष्ठ का फोन आया कि वनौषधी बोर्ड मे आपको लिया जाना तय है। उसी समय रतनजोत के व्यापक रोपण की बात होने लगी। निज स्वार्थ के लिये सरकार के कुछ करीबी लोग करोडो का वारा-न्यारा करना चाहते थे। यह पर्यावरण के नजरिये से अभिशाप था। मैने इस व्यापक रोपण का विरोध किया अपने लेखो के माध्यम से। पलक झपकते ही मुझे फिर कांग्रेस का माना जाने लगा।
बस्तर के लोहांडीगुडा की वनस्पतियो से मेरे दोस्ताने के बारे मे आप पहले पढ चुके है। जब वहाँ टाटा के स्टील प्लांट बनने की योजना बनी तो वनस्पतियो पर पडने वाले प्रभावो को जानने मै वहाँ पहुँच गया। मैने रपट का शीर्षक दिया ‘प्लांट वर्सेस प्लांटस’ और यह प्रश्न किया कि असंख्य प्लांटस (वनस्पति) एक प्लांट (कारखाना) से नष्ट हो जायेंगे। दोनो से फायदे की तुलना कर लो और जो भी लाभदायक लगे, उसी प्लांट को चुनो। उस समय व्यस्थापन को लेकर कम्युनिस्ट पार्टी का आन्दोलन चल रहा था वहाँ। मेरी रपट उन्हे अपने लिये उपयोगी लगती थी। उन्होने अपनी याचिकाओ मे इसका प्रयोग किया। और देखते ही देखते मुझे कम्युनिस्ट माना जाने लगा। फिर जब नियमगिरि की वनस्पतियो के विनाश के बारे मे मुझे बताया गया और कहा गया कि आपके जाने से सुप्रीम कोर्ट मे लम्बित इस मामले मे मदद मिलेगी तो मै तैयार हो गया। नियमगिरि मे पागलो की तरह घूमता रहा। सैकडो तस्वीरे खीची ताकि इस दुर्लभ जैव-विविधता के बारे मे दुनिया को बता पाऊँ। वापसी मे तलहटी मे कम्युनिस्ट पार्टी की सभा चल रही थी। स्थानीय नेताओ ने कहा कि आप भी कुछ बोले हमारे पक्ष मे। मैने साफ मना किया और कहा कि मुझे इससे दूर ही रखे। मै जिनसे मिलने आया था उनसे मिल चुका हूँ। असंख्य वनस्पतियो के अनगिनत सवालो को सुन कर आ रहा हूँ मै। वे ही मेरे अपने है, उन्हे ही मुझे बचाना है। उन्हे शायद मेरे शब्द अच्छे नही लगे। बाद मे पता चला कि राहुल गाँधी नियमगिरि मे उतरे और लोगो से मिले। उस समय भी किसी ने मुझसे वहाँ जाकर उनसे मिलने को कहा तो मैने हाथ जोड लिये। चूँकि यहाँ विरोध मे कांग्रेस और कम्युनिस्ट थे इसलिये मुझे उनका समर्थक और उडीसा की सरकार का विरोध करने वाला मान लिया गया।
मेरा रतनजोत के व्यापक रोपण का विरोध जारी रहा। जहाँ इसके लिये मुझे राज्य मे कांग्रेसी और कम्युनिस्ट समझा गया वही रतनजोत को कांग्रेस शासित राज्य भी लगाने लगे और पश्चिम बन्गाल मे भी वही सब होने लगा। मेरा विरोध जारी रहा और यह विरोध रंग लाया और आज पूरा देश इसकी असलियत जानने लगा है। न कोई गाडी चलती नजर आ रही है और न ही सफल खेती होते। चन्द लोगो ने चाँदी काटी और जनता का पैसा पलक झपकते ही बर्बाद हो गया। जहरीले रतनजोत से सैकडो बच्चे अस्पताल पहुँच गये। यह क्रम अभी भी जारी है।
यह बडी विड्म्बना है कि अपनी सुविधा और मुद्दे के अनुसार राजनीतिक पार्टियाँ पर्यावरण की राजनीति करती रहती है और मुझे अलग-अलग रंगो मे रंगती रहती है। मै जिनके लिये काम करता हूँ उनका राजनीति से कोई लेना देना नही है। वनस्पतियाँ और वन्य प्राणी वोट बैक नही है इसलिये उनकी कोई अहमियत नही है राजनेताओ के लिये। इन्हे बचाने के लिये संघर्ष कर रहे लोगो को वे अपनी सुविधानुसार विपक्ष का कहते रहते है। अपने लम्बे अनुभव मे मैने शुरु मे इस पर ध्यान दिया पर बाद मे इस राजनीति को अन्देखा करना ही उचित समझा। लोगो की यदि सुनते रहे तो कर्तव्य पथ पर जम कर नही चला जा सकता। मेरे मित्र और शुभचिंतक इसे “धारा के विपरीत” चलना कहते है। और यह जग की रीत है कि धारा के विपरीत चलने वालो को कुछ नही मिलता। न प्रोत्साहन, न पुरुस्कार। “अभी भी समय है किसी पार्टी से जुड जा। इतने शोध से तो पदम पुरुस्कार मिल जायेंगे, अच्छी नौकरी भी।“ मित्र खीझ कर कहते ही रहते है। उनका कहना सही भी है पर बहुत ज्यादा महत्वाकांक्षा नही है तो “एकला चलो” की राह उपयुक्त है। आप कम से कम खुलकर मन की बात तो कह सकते है। समय जैसा भी न्याय करे, मंजूर होगा।
मुझे शुरु ही से राजनीतिक पार्टियो से अधिक नेता विशेष का व्यक्तित्व अधिक पसन्द आया। छात्र जीवन मे श्री गोविन्दाचार्य की स्पष्टवादिता आकर्षक लगती रही तो राजीव गाँधी और अटल बिहारी बाजपेयी का जीवन प्रेरणा देता रहा। मै एपीजे अब्दुल कलाम का भी फैन रहा पर इसका मतलब यह नही समझा जाना चाहिये कि यह अन्ध-भक्ति है। जब कलाम साहब ने बच्चो से स्कूलो मे रतनजोत लगाने को कहा और कुछ समय बाद सैकडो बच्चे अस्पताल पहुँचने लगे तो मैने उनके इस गलत फैसले का खुलकर विरोध किया और उनसे अनुरोध किया कि वे बच्चो से मिलने अस्पताल जाये।
बिना राजनीति के पर्यावरण और माँ प्रकृति के विनाश से जुडे मुद्दो पर काम करने वालो को यह सब झेलना ही होता है। अन्ध-विश्वास के विरुद्ध काम करने मे भी इस तरह की राजनीति बहुत तंग करती है। मुझे अपने पारम्परिक चिकित्सक गुरु की ये कडवी बाते सही जान पडती है कि संसार ऐसे लोगो के परलोक सिधारने के बाद ही जागता है और फिर उनके लिखे और कहे को अपनाता है।
(क्रमश:)
(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)
© सर्वाधिकार सुरक्षित
“विनम्र निवेदन है कि मुझे मेरे गाँव के एक बुजुर्ग आदमी ने गाँव की एक बहुत पुरानी घटना के बारे मे बताया था। गाँव के एक परिवार मे मुखिया (मालिक) पुरुष खेत जोत रहा था। वहाँ उसने कौआ और कौव्वी (नर+मादा) को जोडा खाते (सम्भोग करते) हुये देख लिया था तो उसने सोने का कौवा और कौव्वी बनवाकर उसी स्थान पर रख दिया। उसके बाद उसकी पत्नी ने सोने के कौवा और कौव्वी को लालच मे आकर चुरा लिया। इससे उसका पूरा परिवार नष्ट हो गया। इसी तरह की घटना मेरे साथ भी सन 2007 मे हुयी कि मेरी पुत्री बीमार थी जो लखनऊ अस्पताल मे भर्ती थी। मै घर रुपया लेने आया तो प्रात: दस बजे कौवा-कौव्वी को वही सब करते देखा। पर मुझे यह निश्चित नही है कि वे नर और मादा ही थे। मै अस्पताल चला गया। मेरी पुत्री का इलाज चलता रहा। इस बीच मेरी पत्नी घर आयी तो एक पंडित ने विचार करके बताया कि आप चाहे तो बिटिया के बराबर रुपये लगा दे पर वह ठीक नही होगी। वही हुआ और पुत्री की मौत हो गयी। मेरी एक पुत्री थी और दो पुत्र है। जो कष्ट मुझे इस बिटिया की मृत्यु से हुआ वह कहाँ तक लिखूँ------ उस घटना के बाद से अब मेरे मन मे शंका बनी रहती है कि गाँव के बुजुर्ग ने जो घटना बतायी थी, क्या वह सत्य थी? मेरे परिवार को कुछ न कुछ समस्या बनी रहती है। अत: श्रीमान उपरोक्त सत्य घटना को पढकर मुझे इस संकट से बचाये। मेरे परिवार को कुछ भी हो सकता है।
साथ मे टिकट लगा लिफाफ संलग्न है।“
2 जनवरी, 2009 को उन्नाव के एक गाँव से लिखी गयी यह चिठ्ठी मुझे कल ही प्राप्त हुयी। राजस्थान से छपने वाली पाक्षिक पत्रिका ‘कृषि अमृत’ मे “अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग” की यह लेखमाला छप रही है। इसी लेखमाला को पढकर यह पत्र लिखा गया है। सरसरी निगाह से इसे पढे तो पत्र के माध्यम से एक बार फिर कौव्वे से जुडे अन्ध-विश्वासो की समाज मे गहरी उपस्थिति दिखायी पडती है। इसी तरह के अन्ध-विश्वासो ने प्रकृति के सफाई कर्मी इस मासूम जीव को हमारे आस-पास से खत्म कर दिया है। आज के युग मे जब आम घर पूरी दुनिया से जुडे है और ज्ञान-विज्ञान की बाते सीधे पहुँच रही है, उसके बाद भी इस तरह के अन्ध-विश्वासो की उपस्थिति यह इशारा करती है कि जन-जागर्ण के लिये और सशक्त प्रयासो की जरुरत है। यह पत्र एक दुखी पिता का पत्र भी है। ऐसा पिता का जो पुत्री की मौत का जिम्मेदार अपने द्वारा देखे गये एक दृश्य को मानता है, जो महज एक इत्तेफाक है। कौव्वो पर अनुसन्धान करने वाले वैज्ञानिक और इन पर फिल्म बनाने वाले फिल्मकार ऐसे दृश्यो को अनगिनत बार देखते है। प्रकृतिप्रेमी और यहाँ तक कि आम आदमी भी ये सब देखते रहते है। फिर इस तरह की बुरी घटनाए सभी के साथ क्यो नही होती? गाँव के जिस बुजुर्ग ने यह बात बतायी उसी ने मन मे अनावश्यक ही शक के बीज बो दिये थे। मैने उन्हे लिखा है कि आत्मग्लानि से मुक्त होकर इसे विधि का विधान माने और नये उत्साह से इस तरह के अन्ध-विश्वासो को भुला कर परिवार के साथ अधिक समय बिताये। उन्हे कौव्वे की भूमिका और उनकी हमारे आस-पास उपस्थिति व पर्यावरण के सम्बन्ध पर एक लेख भी भेजा है। वे जब चाहेंगे स्वयम ही इस छदम संकट से निकल सकते है। आशा है मेरा पत्र उनका आत्मबल बढायेगा। मैने उन्हे पत्र के माध्यम से अपनी मन की बाते कहने के लिये धन्यवाद दिया है। सबके पास खुलकर लिखने या कहने की हिम्मत नही होती। इस तरह अपनी बातो को किसी जानकार के सामने रखना सार्थक चर्चा के नये द्वार खोलता है। जाने कितने अन्ध-विश्वास हम अपने मन मे झिझक के कारण दबाये बैठे होते है और उन घटनाओ के लिये स्वयम को दोषी मानते रहते है जिन पर हमारा कोई नियंत्रण नही है।
जैसा कि मैने पहले भी लिखा है, इस लेखमाला से सम्बन्धित ढेरो पत्र मुझे मिल रहे है। ज्यादातर धन्यवाद पत्र है पर बहुत से ऐसे भी पत्र है जो सीधे पाठको के निजी जीवन से जुडे हुये है। कुछ माता-पिता चाहते है कि मै उनके बच्चो से सीधी बात करुँ जो सफलता के लिये मेहनत का रास्ता छोडकर अन्ध-विश्वास के फेर मे पडे है। कुछ पाठको को लेखो का मूल उद्देश्य समझ नही आ रहा है। मसलन, मैने पीले पलाश से सोना बनाने से जुडे अन्ध-विश्वास की पोल एक लेख मे खोली थी। इसके जवाब मे एक पाठक लिखते है कि “ आपके लेखो से पता नही क्यो ऐसा लगता है कि आपके पास पीले पलाश से सोना बनाने की विधि है। आप यह विधि हमे भेजने का कष्ट करे। आवश्यक डाक व्यय हम भेज देंगे।“
इस लेखमाला के पूरे होने के बाद मै पाठको के प्रश्नो का जवाब दूंगा पर बीच-बीच मे महत्वपूर्ण प्रश्नो पर चर्चा जारी रहेगी।
एक और प्रश्न है जो इस लेखमाला से सीधे नही जुडता पर फिर भी इसका जवाब आवश्यक लगता है। दिल्ली से एक पाठक कहते है कि आप किसी को नही छोडते। क्या आप किसी विशेष राजनीतिक विचारधारा के है? ऐसा लगता तो नही पर अलग-अलग लेखो मे आप विभिन्न रुपो मे दिखते है। यदि आप चाहे तो अपने विचार से अवगत कराये।
उन पाठक के लिये मेरा जवाब यह रहा
कृषि की पढाई के दौरान ही समाचार पत्रो मे खबरे आने लगी कि साल के जंगलो मे बोरर कीटो का आक्रमण हुआ है और अब असंख्य वृक्षो को काटा जाना जरुरी है। उस समय छत्तीसगढ, मध्यप्रदेश का ही हिस्सा हुआ करता था। राज्य मे कांग्रेस की सरकार थी। साल के जंगलो का काटा जाना तय था। मंजूरी मिल चुकी थी। हवा एक ही दिशा मे बह रही थी। मुझे यह सब अटपटा लग रहा था। क्या बोरर इतना खतरनाक है कि जंगल ही साफ करना पडेगा? लोग दबी जबान मे कह रहे थे कि बोरर तो बहाना है, साल पर लालची नजरे जमी हुयी है। जंगल राज है। प्रभावित के नाम पर स्वस्थ पेड भी काट दिये जायेंगे। मैने आस-पास के साल के जंगलो मे जाने का मन बनाया। आरम्भिक सर्वेक्षण से बहुत से ऐसे उपायो की जानकारी मिली जिससे लगा कि जंगलो को काटना ही एकमात्र विकल्प नही है।
मैने स्थानीय समाचार पत्रो को बताया कि साल के जंगल बचाये जा सकते है। दैनिक नवभारत ने न केवल इस समाचार को प्रमुखता से छापा बल्कि मुझे आर्थिक सहायता देकर उन जंगलो मे जाकर जमीनी स्थिति जानने का मौका भी दिया। पर इस सब से रंग मे भंग पड गया। मैने समाचार पत्रो के हवाले से कुछ समाधान भी बताये। इससे जंगलो को बचाने पर एक नयी बहस शुरु हुयी। लोगो को सरकारी निर्णय मे भ्रष्टाचार की बू आने लगी। इसी बीच एक महाश्य मुझसे मिलने आये और कहा कि भाजपाई राजनीति मत करो। राजनीति? पर मैने तो राजनीति नही की। मैने तो सिर्फ साल के जंगलो को बचाने की बात की। चूँकि यह बात तात्कालिन सरकार के विरुद्ध थी इसलिये मुझे विपक्ष अर्थात भारतीय जनता पार्टी क हमदर्द मान लिया गया।
जब छत्तीसगढ बना तो कांग्रेस सरकार ने जडी-बूटियो की खेती को बढावा दिया। उस समय तक मेरे काफी लेख और शोध-पत्र जडी-बूटियो पर प्रकाशित हो चुके थे इसलिये विशेषज्ञ के रुप मे मेरी माँग बढ गयी। मुझे उच्च स्तरीय बैठको मे बुलाया जाने लगा। किसान बडी संख्या मे मिलने आने लगे। सम्मेलनो का दौर चला। इस समय कांग्रेस की सरकार थी और भाजपा विपक्ष मे थी इसलिये मुझे कांग्रेस का हमदर्द मान लिया गया। जबकि मेरी पहुँच जडी-बूटियो तक ही थी। इसी बीच स्थानीय विश्वविद्यालय मे सहायक प्राध्यापक के पद के लिये साक्षात्कार हुये। मैने भी आवेदन किया था। साक्षात्कार के कुछ दिन पहले मै मुख्यमंत्री निवास मे जडी-बूटी पर काम कर रही एक संस्था के सदस्यो के साथ गया और काफी देर तक मेरी बात सुनी जाती रही। जब विश्वविद्यालय मे साक्षात्कार हुआ तो मेरा शोध कार्य देखकर बाहर से आये विशेषज्ञ खडे हो गये और कहा कि मै आपके कार्यो के आगे अपने आपको छोटा पाता हूँ और आपका मूल्याँकन नही कर सकता। य्ह मेरे लिये गौरव की बात थी। साक्षात्कार अच्छा हुआ। सभी को लगता था कि कांगेस की सरकार है और मेरा चयन हो जायेगा। मेरे साथियो ने खूब रिश्वत का प्रबन्ध किया था। नेताओ से भी फोन करवाया था। परिणाम आने के कुछ दिनो पूर्व माथे मे चिंता की लकीरे लिये एक व्यक्ति ने मुझसे कहा कि पैसे भी नही दिये, फोन भी नही करवाया फिर कैसे होगा चयन? योग्यता के आधार पर आपका नाम सबसे ऊपर था पर मंत्री जी ने नीचे खिसका दिया है। अभी भी समय है कुछ कर सके तो करे। मैने उन्हे अनसुना कर दिया। परिणाम आये और मुझे नही चुना गया। लोगो के आश्चर्य का ठिकाना नही रहा। यह सब तो होना ही था। मै अपने काम मे लगा रहा। जब राज्य के मुखिया को इस बात की खबर हुयी तो उनके आश्चर्य का ठिकाना नही रहा। वे शायद कुछ करते पर उन्हे पता था कि खैरात और वह भी गलत रास्ते से, स्वीकार नही की जायेगी इसलिये वे चुप रहे। इस पूरे घटनाक्रम से मेरी स्थिति बाहरी नजरो मे फिर बदल गयी। उसी समय विश्वविद्यालय से धान के जर्मप्लाज्म को विदेशी कम्पनी को सौपे जाने की बात मुझे पता चली। यह राष्ट्रदोह था। इसमे विश्वविद्यालय के आला अधिकारियो के हाथ रंगे हुये थे। मैने अपने एक वरिष्ठ को यह बात बतायी तो उन्होने इसका लाभ उठाया। विपक्ष को इस बारे मे बताया और सडको पर आन्दोलन छिड गया। विपक्ष मतलब भाजपा। मेरा राजनीति का इरादा नही था पर ऐसा समझा गया कि साक्षात्कार मे चयन न होने के कारण मै सरकार से नाराज था इसलिये यह पोल खोली। एक बार फिर मै दूसरे रंग का समझा जाने लगा। चुनाव हुये और भाजपा की सरकार आ गयी। मुझे उन वरिष्ठ का फोन आया कि वनौषधी बोर्ड मे आपको लिया जाना तय है। उसी समय रतनजोत के व्यापक रोपण की बात होने लगी। निज स्वार्थ के लिये सरकार के कुछ करीबी लोग करोडो का वारा-न्यारा करना चाहते थे। यह पर्यावरण के नजरिये से अभिशाप था। मैने इस व्यापक रोपण का विरोध किया अपने लेखो के माध्यम से। पलक झपकते ही मुझे फिर कांग्रेस का माना जाने लगा।
बस्तर के लोहांडीगुडा की वनस्पतियो से मेरे दोस्ताने के बारे मे आप पहले पढ चुके है। जब वहाँ टाटा के स्टील प्लांट बनने की योजना बनी तो वनस्पतियो पर पडने वाले प्रभावो को जानने मै वहाँ पहुँच गया। मैने रपट का शीर्षक दिया ‘प्लांट वर्सेस प्लांटस’ और यह प्रश्न किया कि असंख्य प्लांटस (वनस्पति) एक प्लांट (कारखाना) से नष्ट हो जायेंगे। दोनो से फायदे की तुलना कर लो और जो भी लाभदायक लगे, उसी प्लांट को चुनो। उस समय व्यस्थापन को लेकर कम्युनिस्ट पार्टी का आन्दोलन चल रहा था वहाँ। मेरी रपट उन्हे अपने लिये उपयोगी लगती थी। उन्होने अपनी याचिकाओ मे इसका प्रयोग किया। और देखते ही देखते मुझे कम्युनिस्ट माना जाने लगा। फिर जब नियमगिरि की वनस्पतियो के विनाश के बारे मे मुझे बताया गया और कहा गया कि आपके जाने से सुप्रीम कोर्ट मे लम्बित इस मामले मे मदद मिलेगी तो मै तैयार हो गया। नियमगिरि मे पागलो की तरह घूमता रहा। सैकडो तस्वीरे खीची ताकि इस दुर्लभ जैव-विविधता के बारे मे दुनिया को बता पाऊँ। वापसी मे तलहटी मे कम्युनिस्ट पार्टी की सभा चल रही थी। स्थानीय नेताओ ने कहा कि आप भी कुछ बोले हमारे पक्ष मे। मैने साफ मना किया और कहा कि मुझे इससे दूर ही रखे। मै जिनसे मिलने आया था उनसे मिल चुका हूँ। असंख्य वनस्पतियो के अनगिनत सवालो को सुन कर आ रहा हूँ मै। वे ही मेरे अपने है, उन्हे ही मुझे बचाना है। उन्हे शायद मेरे शब्द अच्छे नही लगे। बाद मे पता चला कि राहुल गाँधी नियमगिरि मे उतरे और लोगो से मिले। उस समय भी किसी ने मुझसे वहाँ जाकर उनसे मिलने को कहा तो मैने हाथ जोड लिये। चूँकि यहाँ विरोध मे कांग्रेस और कम्युनिस्ट थे इसलिये मुझे उनका समर्थक और उडीसा की सरकार का विरोध करने वाला मान लिया गया।
मेरा रतनजोत के व्यापक रोपण का विरोध जारी रहा। जहाँ इसके लिये मुझे राज्य मे कांग्रेसी और कम्युनिस्ट समझा गया वही रतनजोत को कांग्रेस शासित राज्य भी लगाने लगे और पश्चिम बन्गाल मे भी वही सब होने लगा। मेरा विरोध जारी रहा और यह विरोध रंग लाया और आज पूरा देश इसकी असलियत जानने लगा है। न कोई गाडी चलती नजर आ रही है और न ही सफल खेती होते। चन्द लोगो ने चाँदी काटी और जनता का पैसा पलक झपकते ही बर्बाद हो गया। जहरीले रतनजोत से सैकडो बच्चे अस्पताल पहुँच गये। यह क्रम अभी भी जारी है।
यह बडी विड्म्बना है कि अपनी सुविधा और मुद्दे के अनुसार राजनीतिक पार्टियाँ पर्यावरण की राजनीति करती रहती है और मुझे अलग-अलग रंगो मे रंगती रहती है। मै जिनके लिये काम करता हूँ उनका राजनीति से कोई लेना देना नही है। वनस्पतियाँ और वन्य प्राणी वोट बैक नही है इसलिये उनकी कोई अहमियत नही है राजनेताओ के लिये। इन्हे बचाने के लिये संघर्ष कर रहे लोगो को वे अपनी सुविधानुसार विपक्ष का कहते रहते है। अपने लम्बे अनुभव मे मैने शुरु मे इस पर ध्यान दिया पर बाद मे इस राजनीति को अन्देखा करना ही उचित समझा। लोगो की यदि सुनते रहे तो कर्तव्य पथ पर जम कर नही चला जा सकता। मेरे मित्र और शुभचिंतक इसे “धारा के विपरीत” चलना कहते है। और यह जग की रीत है कि धारा के विपरीत चलने वालो को कुछ नही मिलता। न प्रोत्साहन, न पुरुस्कार। “अभी भी समय है किसी पार्टी से जुड जा। इतने शोध से तो पदम पुरुस्कार मिल जायेंगे, अच्छी नौकरी भी।“ मित्र खीझ कर कहते ही रहते है। उनका कहना सही भी है पर बहुत ज्यादा महत्वाकांक्षा नही है तो “एकला चलो” की राह उपयुक्त है। आप कम से कम खुलकर मन की बात तो कह सकते है। समय जैसा भी न्याय करे, मंजूर होगा।
मुझे शुरु ही से राजनीतिक पार्टियो से अधिक नेता विशेष का व्यक्तित्व अधिक पसन्द आया। छात्र जीवन मे श्री गोविन्दाचार्य की स्पष्टवादिता आकर्षक लगती रही तो राजीव गाँधी और अटल बिहारी बाजपेयी का जीवन प्रेरणा देता रहा। मै एपीजे अब्दुल कलाम का भी फैन रहा पर इसका मतलब यह नही समझा जाना चाहिये कि यह अन्ध-भक्ति है। जब कलाम साहब ने बच्चो से स्कूलो मे रतनजोत लगाने को कहा और कुछ समय बाद सैकडो बच्चे अस्पताल पहुँचने लगे तो मैने उनके इस गलत फैसले का खुलकर विरोध किया और उनसे अनुरोध किया कि वे बच्चो से मिलने अस्पताल जाये।
बिना राजनीति के पर्यावरण और माँ प्रकृति के विनाश से जुडे मुद्दो पर काम करने वालो को यह सब झेलना ही होता है। अन्ध-विश्वास के विरुद्ध काम करने मे भी इस तरह की राजनीति बहुत तंग करती है। मुझे अपने पारम्परिक चिकित्सक गुरु की ये कडवी बाते सही जान पडती है कि संसार ऐसे लोगो के परलोक सिधारने के बाद ही जागता है और फिर उनके लिखे और कहे को अपनाता है।
(क्रमश:)
(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)
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Comments
बहुत अच्छी चल रही है श्रृंखला ! साधुवाद !
मैं पक्षी प्रेमी हूँ पर आज तक कभी कौवे का प्रणय प्रसंग नही देखा ! ऐसा लगता है कि कौवे अमूमन अज्ञात कारणों से मनुष्य की निगाहों से ओझल हो रति क्रिया करते होंगे ? पर ऐसा क्यों है मैं नही जानता और इसकी व्याख्या भी बड़ी मुश्किल है !
और शायद यही कारण है कि इस दृश्य की अति दुर्लभता होने के कारण ही एक दुर्लभ शर्त इसके साथ लगा दी गयी कि जो ऐसा होना देखेगा उसे सोने के कौवे बनाने होंगे -हमारे पुरखे बहुत मनोविनोदी और हास परिहास वाले थे -किसी ने मजाक ही में ऐसी शर्त लगा दी होगी जो बाद में अंधविश्वास बन के समाज को गिरफ्त में लेती गयी !
महेंद्र मिश्रा
जबलपुर.
मकर संक्रांति की बधाई एवं शुभकामनाऐं.