अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -83

अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -83 - पंकज अवधिया

इस लेखमाला की 81 वी कडी मे मै बुधराम की झोपडी मे गुजारी एक रात के विषय मे आपको बता रहा था। रात के सन्नाटे मे जिस आवाज से मेरी नीन्द खुल गयी थी वह छत से आ रही थी। छत जामुन और पलाश की सूखी शाखाओ से बनी थी जिसमे छोटे-छोटे निशाचर कीटो का बसेरा था। रात मे वे शोर कर रहे थे और मुझे नीन्द नही आ रही थी। मेरी हलचल से बुधराम की नीन्द भी खुल गयी। उसने बाहर बुझ चुकी आग को फिर से जलाया और मुझसे बाते करने लगा। पिछले लेख मे मैने आम लोगो के मन मे बसे जंगल के देवता की चर्चा की थी। बुधराम ने बताया कि पास की पहाडी मे जंगल के देवता मूर्त रुप मे भी विद्यमान है। यदि इच्छा हो तो कल सुबह चल सकते है। लम्बा चलना होगा इसलिये अच्छी नीन्द जरुरी है। मैने बुधराम की बात मानकर सोने का मन बनाया। उसने बाहर जल रही लकडियो की राख मे महुये की शराब मिलायी और फिर उस लेप को मेरे तलवो पर लगा दिया। कुछ ही पलो मे मुझे नीन्द आ गयी। सुबह कुछ देर से उठा। नीन्द नशीली थी। शायद यह महुये का असर था।

ड्रायवर को गाडी के पास रुकने को कहकर हम लोग जंगल के देवता से मिलने चल पडे। बुधराम के दो साथी थे हमारे साथ। उन्होने तीर-धनुष रख लिया था। तीर दो प्रकार के थे। एक तो नुकीला और दूसरा भोथरे सिरे वाला। उन्होने मुझे बताया कि भोथरे सिरे वाले तीर से वे पक्षियो का शिकार करते है। उन्होने कुछ ऐसे तीर भी दिखाये जो कि विष-बुझे थे। उनकी विशेष तैयारियो से यह लग रहा था कि हम जंगली जानवरो से भरे जंगल मे जा रहे थे। थोडी दूर चलने पर पीछे देखा तो ड्रायवर आ रहा था। उसने भी हमारे साथ चलने का मन बना लिया था। हमने सुबह से कुछ खाया-पिया नही था। सबने नीम की दातौन रखी थी। बुधराम के पास एक लोटा था जबकि हमने उसके विकल्प मे तौर पर पानी की खाली बोतल रखी थी। हम चलते गये और दातौन को चबाते रहे है। बीच मे जिसे “प्रेशर” आया है उसे झाडियो मे भेज दिया। इस प्रक्रिया मे मेरा पेट इतना अधिक साफ हुआ जितना शायद पहले कभी नही हुआ था। पेट साफ होना माने उत्साह मे वृद्धि। आखिर हमारी बहुत सी बीमारियो की जड पेट की गन्दगी ही तो है। और इस गन्दगी की सफायी के नाम पर हमारे देश मे व्यवसायिक आयुर्वेद की दुकाने चल रही है।

अभी हाल ही मे एक सज्जन मेरे पास आये। उन्हे लगता था कि उनकी किडनी मे कुछ समस्या है। मैने उनसे उनकी दिनचर्या पूछी तो बात सुबह पर ही अटक गयी। महाश्य खाली पेट एक-डेढ घंटे मे बारह ग्लास पानी पीते थे। मैने उनसे पूछा कि इतना सारा पानी इतनी जल्दी पीने को किसने कहा? उन्होने जवाब दिया कि आप चैनल वाले बाबाओ को नही देखते? वे कहते है सुबह छह ग्लास पानी पीना चाहिये। इससे बहुत से फायदे होते है। मोटापा भी कम होता है। मैने पूछा कि ये आप छै ग्लास से बारह ग्लास मे कैसे पहुँच गये? उन्होने जवाब दिया कि जल औषधी है इसलिये जितना ज्यादा पीओ उतना लाभ होगा। मैने उन्हे याद दिलाया कि यह भी सत्य है, अति सर्वत्र वर्जयेते। आप विशेषज्ञ से पूछिये कि आपके लिये कितना ग्लास पानी सही रहेगा। पानी स्वाद से पीना चाहिये न कि गटागट, एक साँस मे, कैसे भी लक्ष्य़ को पूरा करने के उद्देश्य से। प्राचीन चिकित्सा ग्रंथो मे लिखा है कि जब प्यास लगे तो भोजन न करे और जब भूख लगे तो पानी न पीये। पानी निश्चित ही औषधी है पर औषधी को लेने के नियम होते है। आप पानी की मात्रा कम करे और मजे लेकर इसे पीये, मुझे लगता है कि इससे आपकी समस्या कम होगी। वे मान गये। उन्होने एक डिब्बा निकाला और मुझे देते हुये इस बारे मे अपनी राय पूछी। डिब्बे मे कोई चिर-परिचित औषधी थी। लेबल मे लिखा था सभी तरह के रोगो के लिये उपयोगी। दमा, ब्लड-प्रेशर, कैसर, डायबीटीज, ल्यूकोडर्मा, खून की कमी, गठिया, बाल गिरना, नीन्द न आना, नपुंसकता आदि सभी तरह के रोगो मे इसे ले। पहले ही दिन से शरीर की गन्दगी बाहर निकलेगी। लेबल को यदि सही माने तो यह रामबाण थी। महाश्य ने बताया कि यह भी चैनल वाले बाबाओ की खोज है। एक दवा से सारे मर्ज का कारगर इलाज? मैने पूछा कि ये बाबा क्या और भी दवाए बेचते है? उन्होने कहा कि हाँ, दो सौ से अधिक दवाए, यहाँ तक कि साबुन और अगरबत्ती भी बेचते है। मैने फिर प्रश्न दागा कि जब इस दवा से सारे रोग ठीक हो जाते है तो फिर बाकी दवाओ को बनाने और बेचने की क्या जरुरत? उनके पास जवाब नही था।

डिब्बे मे जब दवा के मुख्य घटको को पढा तो पता चला कि सोनामाखी सबसे अधिक मात्रा मे था। सोनामाखी मायने सनाय। कभी मै मध्य भारत के किसानो के साथ इसकी व्यवसायिक खेती के प्रयास करता था। यह पारम्परिक रेचक है। दुनिया भर मे इसकी रेचक के रुप मे माँग है। बडे पैमाने पर इसकी खेती की जाती है और फिर इसका निर्यात किया जाता है। सोनामुखी बडा ही कारगर रेचक है। बहुत से बुजुर्गो से मुझे जानकारी मिली कि पहले सोने की ठगी करने वाले बडी दुकानो मे चले जाते थे और मौका पाते ही सोने का टुकडा निगल लेते थे। वापस जाकर सोनामुखी खाते थे और सुबह जब सोना शरीर से बाहर आ जाता था तो उसे मल से अलग कर लेते थे।

अब तो आप जान ही चुके है सोनामुखी के रेचक गुणो की महिमा। पर याद रहे कि यह मात्र रेचक है सभी प्रकार के रोगो की दवा नही जैसा कि उस डिब्बे मे दावा किया गया था। यह सरासर धोखा है। पता नही कैसे ऐसा खोखला दावा करने वाले उत्पादो को बाजार मे खुलेआम बिकने की छूट मिल जाती है? पहले आपने नोनी और एलो वेरा जूस के नाम पर किये जा रहे खोखले दावो की सच्चाई के बारे मे पढा ही है। बहरहाल, मैने उन महाश्य से पूछा कि क्या आपको कब्ज है? उन्होने जवाब दिया कि हाँ इसीलिये तो मै इसे खाता हूँ। साल मे कितनी बार? मैने फिर पूछा। उन्होने कहा कि रोज। यह उत्तर चौकाने वाला था पर मै नही चौका क्योकि हमारे देश मे रेचक का प्रयोग कभी-कभी न कर रोज किया जाता है। मै अपने लेखो मे बार-बार लिखता हूँ कि हमारे शरीर मे गन्दगी को बाहर निकालने की प्रकृति प्रदत्त व्यवस्था है। उसे बरकरार रखने की जरुरत है। हाँ, कभी-कभार उसकी सहायता के लिये प्राकृतिक रेचको का प्रयोग किया जा सकता है पर इनपर निर्भरता किसी भी हालत मे सही नही है। आधुनिक मनुष्य़ माने आप-हम की दिनचर्या जग जाहिर है। न रेशे वाले खाद्य खाते है, न ठीक से पानी पीते है, न ही शारीरिक श्रम करते है, दिन भर तनाव से ग्रस्त होते है, ऐसे मे चाहकर भी हम कब्ज से बच नही पाते है। मै आपसे सीधे पूछता हूँ कि साल मे कितने दिन आप दवा नही खाते है? जरा इस पर गौर तो करे। पहले दवा जरुरत पडने पर ही खायी जाती थी और भोजन नियमित किया जाता था। आज स्थिति उल्टी है। भोजन भले ही चूक जाये पर दवा खाना हम चूकना नही चाहते है। केवल कुछ ही दशको मे कैसे सब उल्टा-पुल्टा हो गया? भोजन को भोजन और दवा को दवा के रुप मे खाने वाली स्वस्थ्य पीढी के लोग आज भी हमारे बीच है। भले ही वे उम्र के अंतिम पडाव पर है पर ज्यादातर मामलो मे हमसे ज्यादा भले-चंगे है।
(क्रमश:)


(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)

© सर्वाधिकार सुरक्षित

Comments

आपके अनुभवों से बहुत कुछ सीखने का मिलता है। आप ये उपयोगी बातें हम तक पहुंचा रहे हैं, इस हेतु आभार।

एक सुझाव देना चाहूंगा यदि आप अपनी पोस्‍ट का शीर्षक सम्‍बंधित घटनाओं को आधार बनाकर रखें, तो मुझे लगता है ज्‍यादा अच्‍छा लगेगा।
बहुत सही लिखा है। कि दवाओं ने भोजन का स्थान ले लिया है।

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