अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -85

अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -85 - पंकज अवधिया

मुझे याद आता है, बचपन मे जब भी हमारी रेलगाडी किसी नदी के ऊपर से गुजरती थी तो कोई नदी को नमन कर मंत्रोप्चार शुरु कर देता था तो कोई नीचे सिक्के फेक देता था। बडी नदी नही बल्कि छोटी नदियो के प्रति भी लोगो का झुकाव देखा जा सकता था। बहुत बार नदी मे नहाते समय रेल्वे ब्रिज से रेलगाडी गुजरने पर हम लोग सिक्के या फूल माला फेके जाने की प्रतीक्षा करते थे। सभी दर्जे मे सफर करने वालो के मन मे नदियो के प्रति आस्था होती थी। एसी मे सफर करने वाले नदी के पास आते ही लपककर दरवाजे पर पहुँच जाते थे। कालेज टूर के दौरान दक्षिण मे भी मैने यह सब देखा। पर पता नही पिछले दस सालो मे ऐसा क्या हो गया कि लोगो की आस्था घट गयी। ऐसा नही है कि इन सालो मे नदी का महत्व कुछ घट गया है बल्कि जनसंख्या मे बढोतरी होने के कारण नदियो का महत्व और उनकी आवश्यकत्ता और बढ गयी है। कुछ महिनो पहले एक रेलयात्रा के दौरान मैने एसी के डिब्बे मे इस तरह की प्रतिक्रिया नही देखी तो पीछे के डिब्बो मे जाने का मन बनाया। वहाँ भी कमोबेश यही स्थिति थी। एक सहयात्री से पूछा तो उसने मजाक मे कहा कि अब लोगो का जीवन स्तर बढ गया है। उनके पास चिल्हर पैसे नही है यूँ फेकने के लिये। इस पर दूसरे ने कहा कि छोटी नदियो मे नही गंगा जैसी नदियो पर ही आजकल सिक्के फेके जाते है। इस पर यात्रियो मे चर्चा होने लगी। जितनी मुँह उतनी बाते। कुछ का मानना था कि ऐसे फेके गये पैसे किसी के काम नही आते इसलिये आज की पीढी समझदार हो गयी है, पैसे अपने जेब मे ही रखना पसन्द करती है। लोगो ने इसे अन्ध-विश्ववास भी कहा। मै चुपचाप सुनता रहा।

नदियो को देखकर उन्हे नमन करने वाले एक बुजुर्ग से बहुत पहले मैने इस पर बात की तो वे बोले कि ये नदियाँ हमे जीवन देती है। हम चाहकर भी इनके कर्ज को उतार नही सकते है। बस नमन कर और कुछ सिक्के अर्पण कर एक छोटी सी कोशिश करते है। उन्होने यह भी कहा कि पहले के जमाने मे ताम्बे के सिक्के हुआ करते थे। शायद उन्हे फेकने से जल कुछ शुद्ध हुआ करता होगा पर उस समय तो शुद्धता की उतनी जरुरत नही थी जितनी कि अब है। पर अब तो ताम्बे के सिक्के कोई नही फेकता।

बुधराम के साथ जब मै जंगल के देवता (सन्दर्भ के लिये पिछले लेख देखे) के घर पहुँचा तो मैने देखा कि उसके साथी कुछ छोटे पौधो की जडे एकत्र कर रहे है। जडो को एकत्र करने के बाद उन्होने कुछ बडे पेडो की पत्तियाँ एकत्र की। फिर बीजो का बारी आयी। मुझे लगा कि यह सब किसी औषधी के निर्माण की प्रक्रिया है। पर सभी पौध भागो को मिलाने के बाद जब उन्होने मिश्रण को पास के झरने मे फेक दिया तो मेरे आश्चर्य की सीमा नही रही। बुधराम ने कहा कि पारम्परिक चिकित्सको कहने पर हम यह करते है। यह मिश्रण जल की सफाई करता है। अब यहाँ ऊपर तो पानी साफ है पर नीचे बस्ती के पास यह गन्दा हो जायेगा। लाख मना करने के बावजूद लोग साबुन का प्रयोग करेंगे। गुटखा के पाउच डालेंगे और नाना प्रकार की शहरी गन्दगियाँ फेकेंगे। इस मिश्रण से जल साफ रहेगा और गन्दगी दूर होगी। साथ ही मछलियो और दूसरे जीवो को जीवन जीने मे मदद मिलेगी। जब वे सक्रिय रहेंगे तभी जल मे भी जान रहेगी। ये ही झरने तो नीचे जाकर बहुत सी बडी नदियो को बनाते है। बुधराम की बात सही थी। मैने इस सरल प्रक्रिया मे प्रयोग होने वाली वनस्पतियो के विषय मे जानना चाहा तो उसने बिना किसी विलम्ब के सारी जानकारी दे दी पर यह भी कहा कि एक नही ढेरो मिश्रण इस कार्य के लिये प्रयोग किये जा सकते है। किसी झरने या जल स्त्रोत के लिये कौन सा मिश्रण उपयोगी है, ये तो पारम्परिक चिकित्सक बतायेंगे। यह कठिन नही है। झरने के आस-पास प्राकृतिक रुप से उग रही वनस्पतियाँ ही प्रयोग की जाती है पर उनके उपयोग के सरल नियम है जो सीखने होंगे। मैने पारम्परिक चिकित्सक से मिलने का मन बनाया।

सहजन या मुनगा और निर्मली के बीजो से जल को शुद्ध करने का पारम्परिक ज्ञान तो अब लोकप्रिय ज्ञान बन गया है। यदि आप पेटेंटो की सूची देखेंगे तो आपको भारतीय शोध संस्थानो द्वारा इन पर लिये गये ढेरो पेटेंट मिलेंगे। पता नही ये पेटेंट क्यो लिये जाते है? यह प्रश्न इसलिये क्योकि ये सस्थान पेटेंट के बाद इस ज्ञान का भारतीय जनता के लिये उपयोग करते नही दिखते। बस उनके बायोडेटा मे यह लिखा होता है कि उन्होने इतने पेटेंट करवाये है। इस आधार पर शायद उनकी पदोन्नति हो जाती है। पर उनका यह उपक्रम देश के कुछ काम नही आता। ग्रामीण भारत मे इन दो वनस्पतियो के अलावा ढेरो वनस्पतियो की जल शुद्धिकरण क्षमता के विषय मे जानकारी है। सबसे अच्छी बात यह है कि वे अभी भी इस ज्ञान का उपयोग कर रहे है। जल की दशा को देखकर कैसे आसानी से इसे शुद्ध रखा जाता है यह आप गाँवो मे बसने वाले भारत से जानिये।

धार्मिक मेलो मे जडी-बूटियो की खोज मे अक्सर मेरा जाना होता है। फूलो से लेकर दूसरी पूजन सामग्रियाँ हर साल बडी मात्रा मे नदियो मे बहा दी जाती है। इससे बडा प्रदूषण भी होता है, यह सब जानते है। पर चूँकि यह धार्मिक आस्था का प्रश्न है इसलिये इसपर खुलकर नही बोला जाता। पर मुझे लगता है कि मेरे पास कुछ ठोस उपाय है। मै यहाँ पारम्परिक ज्ञान के उपयोग की बात करने वाला हूँ। यदि हर पूजा सामग्री बेचने वाले के पास मुफ्त मे एक छोटी-सी पुडियाँ इस अनुरोध के साथ दे दी जाये कि इसे पूजन सामग्री बेचते समय किसी भी तरह भक्तो को दे देना तो बात बन सकती है। आप तो समझ ही गये होंगे कि इस पुडियाँ मे क्या होगा? इसमे वनस्पतियो का वही मिश्रण होगा जो जल को शुद्ध करने का माद्दा रखता है। कल्पना कीजिये, गंगा के किनारे पर बडा मेला। असंख्य श्रद्धालुगण। जल के दूषित होने की अपार सम्भावना पर भी जल दूषित नही हो रहा है बल्कि अभी भी निर्मल है। सभी भक्त गण जाने-अनजाने ही सही गंगा को साफ करने मे अपना योगदान दे रहे है। यदि भक्त पुडियाँ के बारे मे जान भी जाये तो मुझे नही लगता कि पवित्र उद्देश्य्यो को जानकर कोई बखेडा खडा करेगा। एक बार यह सब सफलतापूर्वक चल निकला तो इस आहुति मे पूरा देश मदद करेगा-ऐसा मुझे लगता है। गंगा जैसी नदियो की सफाई मे अब सरकारी मशीनरी से उम्मीद रखना बेकार जान पडता है।

इस दिशा मे बढने के लिये पारम्परिक चिकित्सको और उनके पारम्परिक ज्ञान की मदद ली जानी चाहिये। मै यह साफ कर दूँ कि यह “देशी आइडिया” अंतिम सोपान तक देशी रहना चाहिये। ऐसा नही कि इस ज्ञान के सामने आते ही हमारे सरकारी वैज्ञानिक शोध के नाम पर इसे हडप ले फिर दुनिया के दूसरे देशो मे इसके विषय मे बताकर वाह-वाही लूटे। ऐसा भी न हो कि बडी कम्पनियाँ इस तरह की पुडियाँ बनाने लगे और मुफ्त की बजाय देश के पारम्परिक ज्ञान के लिये देश के ही लोगो को पैसे खर्चने पडे। डेढ हजार से भी ज्यादा उपयोगी मिश्रणो के बारे मे जानकारी सार्वजनिक करने से पहले मै यह भी सुनिश्चित करना चाहूँगा कि किसी भी कीमत पर इसकी लोकप्रियता का असर उन वनस्पतियो के अस्तित्व पर न पडे जिनका प्रयोग इन मिश्रणो मे होने जा रहा है। अन्यथा नदियाँ तो साफ हो जायेंगी पर इन वनस्पतियो का अस्तित्व सदा के लिये खो जायेगा। (क्रमश:)


(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)

© सर्वाधिकार सुरक्षित

Comments

Anonymous said…
कोर्पोरेटी लुटेरों से अब शायद हम कुछ न बचा पाएं. जब देश और उसकी व्यवस्था ही बिक चुकी है तो.........9977161016
Udan Tashtari said…
इसे मान्यता दिलवाने के लिए पंडितों को अलग सेट करना पड़ेगा वरना आधा अड़ंगा तो वो ही लगा देंगे कि पूजा भ्रष्ट हो गई.

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