अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -84

अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -84 - पंकज अवधिया

“अरे, यह तो भ्रमरमार है। एक नही दो-दो है।“ मै लगभग चीख पडा। मेरी खुशी का ठिकाना नही रहा। ऐसा लगा जैसे मुझे अनमोल रत्न मिल गये हो। बुधराम और उसके साथियो के साथ मै जब जंगल के देवता के घर पहुँचा (सन्दर्भ के लिये पिछले लेख पढे) तो एक से बढकर एक दुर्लभ वनस्पतियो को देखकर मै आश्चर्यचकित रह गया। भ्रमरमार का पौधा ब्लड कैसर मे दशको से सफलतापूर्वक प्रयोग हो रहा है। सबसे पहले मैने इसे पढाई के दौरान देखा था। मुझे इसके दिव्य औषधीय गुणो के विषय मे बताया गया था। मैने सन्दर्भ ग्रंथो को पढा तो मुझे इसके विषय मे कोई जानकारी नही मिली। हमारे प्राचीन ग्रंथ भी इसके विषय मे कुछ नही बताते है। जब मैने कैंसर की पारम्परिक चिकित्सा से समबन्धित ज्ञान का दस्तावेजीकरण आरम्भ किया तो इस वनस्पति का नाम मैने बहुत बार सुना। पर हर बार पारम्परिक चिकित्सको की टिप्पणी मिलती थी कि अब यह नही मिलता है इसलिये हम इसके स्थान पर दूसरी वनस्पतियो का प्रयोग करते है। दूसरी वनस्पतियाँ उतनी कारगर नही होती है। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि कैसर के आठ हजार से अधिक पारम्परिक नुस्खो मे इस वनस्पति का प्रयोग किया जाता है। यह मेरा सौभाग्य है कि मैने बहुत बार इसे जंगलो मे देखा। हर बार पारम्परिक चिकित्सको के साथ। और हर बार इसके पौध भागो को एकत्र करने के बाद पारम्परिक चिकित्सको ने इस स्थान को ऐसा बना दिया जिससे दूसरे लोग इस तक न पहुँच पाये। मुझसे भी वचन लिया कि मै इस स्थान की जानकारी किसी को न दूँ। मैने इसके प्रवर्धन की बहुत कोशिश की पर सफल नही हो पाया। किसी विशेष वनस्पति को आप देख ले तो फिर दिमाग उसे भूल नही पाता है। जंगल की यात्रा के दौरान मुझे कई बार यह दिख जाती है पर मै इसकी चर्चा करने से बचता रहता हूँ। इसके कई कारण है।

कैसर के लिये उपयोगी वनस्पति का नाम सुनते ही बिना कुछ जाने–बूझे ऐसी वनस्पतियो का एकत्रण आरम्भ हो जाता है। इन वनस्पतियो से बडे चमत्कार की उम्मीद की जाती है। मसलन भ्रमरमार को खाने के बाद ब्लड कैसर के रोगी एक ही खुराक मे रोग के खात्मे की उम्मीद करते है। उन्हे तो यह भी नही पता होता कि इसका कौन सा भाग कैसे उपयोग करना है। कोई पत्तियो का काढा बना लेता है तो कोई रस निकाल के पी जाता है। आधुनिक शोधकर्ता ऐसी वनस्पतियो को एकत्र करते ही इसके रासायनिक तत्वो की खोज मे लग जाते है। बहुत से मामलो मे जब इसका चमत्कारी असर नही दिखता है तो इसे भुला दिया जाता है और लोग नयी वनस्पतियो की खोज मे निकल जाते है। इस तमाशे से दुर्लभ वनस्पतियो का बहुत नुकसान होता है। पारम्परिक चिकित्सको को जो कि इनका सही उपयोग जानते है, जरुरत के समय ये नही मिल पाती है और वे चाहकर भी उम्मीद लेकर आये रोगियो के लिये कुछ नही कर पाते है। भ्रमरमार का प्रयोग अलग-अलग वनस्पतियो के साथ विशेष विधियो से होता है। पारम्परिक चिकित्सक जानते है कि रोग की किस अवस्था मे इसका प्रयोग करना है। इसके असर को बढाने के लिये वे दूसरी वनस्पतियो का सहारा भी लेते है। बिन ज्ञानी के इस प्रयोग से लाभ की उम्मीद करना बेमानी है। आधुनिक शोधकर्ता रासायनिक तत्वो को अलग कर उनसे असर की उम्मीद करते है पर पारम्परिक चिकित्सक मूल रुप मे इनका प्रयोग करते है। मूल रुप मे वनस्पतियाँ बहुत कारगर होती है। पर लगातार असफलता के बाद भी आधुनिक शोधकर्ता इस बात को नही मानते है।

मुझे याद आता है कि दस-बारह साल पहले एक विज्ञान सम्मेलन मे एक विदेशी उद्योगपति से मुलाकात हुयी थी। उन्होने जानबूझकर होटल मे मेरे बगल वाला कमरा लिया था। उनके अनुसार वे मुझसे मिलने ही इस सम्मेलन मे सात समुन्दर पार से आये थे। उन्होने मुझे अपने साथ लायी महंगी शराब दी और कहा कि इसे पीये, फिर चर्चा करेंगे। मैने कहा कि मै तो शराब पीता नही। उनके दुभाषिये जो कि भारतीय था, ने कहा कि इस शराब के लिये लोग तरस जाते है। आपको तो पूरी बोतल दे रहे है। मना मत करिये। फिर मेरे कठोर रुख को देखकर बिना विलम्ब कहा कि उन्हे भ्रमरमार चाहिये। चाहे कितनी भी कीमत ले लो पर चाहिये। मैने उन्हे भारत सरकार द्वारा तय की गयी प्रक्रिया बतायी और उसी रास्ते से सम्पर्क करने को कहा। वे जोर देने लगे कि एक बार उसकी झलक दिखा दो, दूर से ही सही, उनके वैज्ञानिक उसे पहचान लेंगे। बात न बनती देखकर उन्होने और जोर नही दिया।

मेरे व्याख्यान के बाद जब प्रश्नोत्तर की बारी आयी है तो सभागृह के अलग-अलग कोनो से बहुत से हाथ उठे। आमतौर पर दो या तीन प्रश्नो को इजाजत दी जाती है पर सभापति ने प्रश्नोत्तर के लिये आधे घंटे का समय रख दिया। पहला प्रश्न सुनते ही मेरा माथा ठनका। “भ्रमरमार कहाँ मिलेगा। पता बताये।“ भ्रमरमार कहाँ मिलेगा? अरे, मैने तो अपने व्याख्यान मे इस पर कुछ कहा ही नही फिर यह प्रश्न कहाँ से आ गया? मैने सभापति से कहा कि व्याख्यान से सम्बन्धित प्रश्न किये जाये। दूसरा प्रश्न पूछा गया। यह भी वही प्रश्न था। तीसरा, चौथा, पाँचवा कुल बीस से अधिक ऐसे प्रश्न पूछे गये जिसमे इस वनस्पति का अता-पता बताना था। अब सभापति ने मोर्चा सम्भाला और मुझसे कहा कि अब आप बता ही दीजिये ना। इतने लोग पूछ रहे है। मै अवाक रह गया। इसका मतलब, ये सभापति भी षडयंत्र के हिस्सा थे। मैने कठिन निर्णय लिया और बिना जवाब दिये मंच से नीचे आ गया। सभापति ने बडा मुँह बिचकाया। मैने सुना कि वे इस जवाब न देने को देश का विश्व समुदाय के सामने अपमान कह रहे थे। खैर, यह सब तो होता ही रहता है। मै सम्मेलन को बीच मे ही छोडकर वापस आ गया। उसके बाद भी पीछा जारी रहा। बडी विज्ञान पत्रिकाओ ने इस वनस्पति पर शोध लेख लिखने को कहा। इस पर व्याख्यान के लिये विदेशो से निमंत्रण आने लगे और सम्मान की बात होने लगी। पर उन्हे निराशा ही हाथ लगी।

किसी वनस्पति का एक बार नाम चल निकला तो हजार डुप्लीकेट बाजार मे आ जाते है। भ्रमरमार के साथ भी ऐसा है। देश भर से विभिन्न वनस्पतियो के नमूने पहचान के लिये आते रहते है। भ्रमरमार जैसी वनस्पतियो के नाम पर ढेरो नमूने आते है। मैने पाँच सौ से ज्यादा नमूनो की जाँच की है पर एक भी सही नही निकला। बहुत से लोग नमूने के साथ यह लालच देते है कि उन्हे पता है, ये सही नही है पर फिर भी यदि आप सही है -ऐसा कह दे तो बात बन जायेगी। आपको मुँहमाँगी फीस दी जायेगी। सम्मेलन मे मिलने आये विदेशी कुछ महिनो बाद घर मे बिना सूचना के आ गये। उन्होने उडीसा के जंगलो से कुछ वनस्पतियाँ एकत्र की थी। उनका कहना था कि उनमे से भ्रमरमार भी है। वे मुझसे इसकी पुष्टि करवाना चाहते थे। मैने साफ इन्कार कर दिया और उनसे सरकारी अनुमति लेकर आने को कहा। सीधे रास्ते से तो वे आ नही सकते थे वर्ना कब के आ चुके होते थे। उस समय ये बडा ही अटपटा अनुभव लगा पर अब तो आदत हो गयी है। जब आप लाखो पन्ने लिख चुके होते है और यह बात सार्वजनिक हो जाती है तो येन-केन-प्रकारेण जानकारी निकलवाने वाले तो आते ही रहते है।

बुधराम हमे जिस स्थान पर लेकर गया वह पहाडी पर था। उस स्थान मे जंगल अन्य स्थानो की तुलना मे अधिक घना था। यहाँ विविधता भी थी। कारण यह था कि स्थानीय निवासी इस भाग से कभी वनस्पतियो को नही ले जाते है। न ही पेडो की कटाई की जाती है। सरकारी विभाग भी आस्था के कारण यहाँ दखल नही देते है। एक और अच्छी बात पता चली और वो यह कि इस स्थान मे पारम्परिक चिकित्सक चढावे के नाम पर दूर-दूर से एकत्र की गयी जडी-बूटियाँ लाकर लगा देते है। इससे यह वनस्पति प्रेमियो के लिये स्वर्ग के समान हो जाता है। बुधराम ने बताया कि लाइलाज रोगो से ग्रस्त रोगियो को यहाँ आने और यहाँ के झरनो से पानी पीने को कहा जाता है। इन वनस्पतियो की जडो से एकत्र की गयी मिट्टी से शरीर को साफ करने को कहा जाता है। यहाँ से एकत्र की गयी शहद का प्रयोग पारम्परिक चिकित्सक विशेष औषधीयो के साथ करते है।

मुझे याद आता है, ऐसे ही पवित्र स्थान पर मुझे नियमगिरि यात्रा के दौरान जाने का अवसर प्राप्त हुआ था। जब हम पैदल चलकर उस स्थान तक पहुँचे तो हमे आम के पुराने पेड मिले। मुझे बताया गया कि जंगली पेडो को बचाये रखने के साथ ही यहाँ के राजा ने फलदार पेडो को भी रोपा। ये पेड आज तक फल दे रहे है। वहाँ मुझे कई दुर्लभ वनस्पतियाँ मिली। उनमे से एक भंडारी थी। हम चर्चा कर ही रहे थे कि एक भालू दौडता हुआ सामने से निकला। साथ चल रहे पारम्परिक चिकित्सक ने कहा कि डरने की कोई बात नही है। ये देव स्थली है यहाँ जानवर नुकसान नही पहुँचाते है। मेरा ध्यान भालू की ओर था। मैने इस यात्रा के दौरान बहुत से जंगली जानवर देखे थे और स्थानीय लोगो से जंगली हाथियो के विषय मे रोचक जानकारियाँ एकत्र की थी। मुझे बताया गया था कि बीती रात को ही हाथी आये थे। मैने उनके वजन के कारण घँसी जमीन और उनके पैरो के निशान देखे। मैने इंटरनेट पर पढा था कि कुछ सप्ताह पहले देहरादून से वन्य विशेषज्ञो का एक दल आया था नियमगिरि। उसने अपनी रपट मे लिख दिया कि यहाँ जंगली जानवर है ही नही। यह रपट सर्वोच्च न्यायालय मे प्रस्तुत की गयी। इससे यह सन्देश गया कि जब जंगली जानवर है ही नही तो बाक्साइट ख्ननन से भला नियमगिरि को क्या नुकसान होगा? मै अपने आपको भाग्यशाली मानता हूँ जो चन्द पैसो के लिये मैने दबाव मे आकर कभी झूठी रपट नही तैयार की। मैने नही की तो इससे क्या फर्क पडता है। हमारे देश मे ऐसे विशेषज्ञो की कमी नही है जो दिन को रात कह दे और रात को दिन तो उनकी बात मान ली जायेगी।

बहरहाल, भालू के दूर चले जाने के बाद मैने पारम्परिक चिकित्सक से पूछा कि क्या केवल इसी भाग मे जंगली जानवर मनुष्य़ॉ पर हमला नही करते? क्या इसी देव-स्थल मे? उसने विनम्रता से कहा कि इस पूरे नियमगिरि मे ऐसा ही होता है। यह पूरा पहाड हमारा नियम राजा है। हमे पूरे पहाड को पूजते है। उसका कहना सही था। यही कारण था कि पूरा नियमगिरि जैव-विविधता का गढ था। “था” इसलिये कह रहा हूँ क्योकि अब खबरे आ रही है कि बुलडोजर वहाँ अपना काम शुरु कर चुके है। पेड अन्धाधुन्ध कट रहे है और नीचे होटल की भठ्ठियो मे खाक हो रहे है। वहाँ लोग जानवरो की तरह हाँके जा रहे है। ऐसे मे जानवरो और वनस्पतियो की भला कौन पूछेगा? (क्रमश:)


(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)

© सर्वाधिकार सुरक्षित

Comments

Udan Tashtari said…
बहुत रोचक..जारी रहिये. है की जगह था का प्रयोग अब ऐसे बहुतेरे स्थानों के लिए होने लगा है. पर्यावरण रक्षा के लिए है को है ही रखना होगा वरना भीषण त्रासदी का सामना करना तय ही है.
atyant sarthak prayas ,aap apni koshise jaari rakhiye , kam se kam koi to hai jo puri emandari ke saath apna farz nibha raha hai aur kuchh nahi badlega to bhi apka blog nai chetna jagrat karne me to sahayak hai hi ..

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