अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -79

अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -79 - पंकज अवधिया

पिछले दिनो दूर कस्बे से कुछ रिश्तेदारो का आना हुआ। उनकी गाडी सुबह-सुबह आयी। यह मेरे सोने जाने का समय था। उनसे मुलाकात नही हो पायी। उन दिनो मधुमेह की वैज्ञानिक रपट पर जोर-शोर से काम चल रहा था। कुछ घंटो की नीन्द के बाद मै फिर से कम्प्यूटर पर पिल पडा। वही ब्रश किया, फिर नाश्ता और भोजन भी वही आ गया। रिश्तेदार एक सप्ताह तक रुकने वाले थे। इसलिये सोचा कि उनसे कल मिल लूंगा। घर के बाकी सदस्य आवभगत मे लगे रहे। रपट का फेर ऐसा रहा कि मै 22 घंटे से अधिक इसी मे फँसा रह गया। अब रिश्तेदारो से रहा नही गया। मेरी मामी ने कमरे मे प्रवेश किया। उनके हाथ मे एक कपडा था। मैने उठकर अभिवादन किया तो उन्होने चुप रहने का इशारा किया। उन्होने कपडे को सात बार सिर पर घुमाया और फिर जैसे आयी थी वैसे ही चली गयी। मुझे यह सब अटपटा लगा। मैने काम समेटना ही उचित समझा। तभी बाहर किसी चीज के जलने की बास आयी। मै बाहर भागा तो देखा कि मामी उसी कपडे को जला रही थी। घर वालो की तरफ देखा तो उन्होने शांत रहने को कहा। मै वापस अपने कमरे मे आ गया। मामी का कमरे मे एक बार फिर प्रवेश हुआ। इस बार कपडे की जगह उनके हाथो मे लाल मिर्च थी। उन्होने फिर उसे सिर पर घुमाना चाहा तो मेरे सब्र का बाँध टूट पडा। ये सब क्या हो रहा है? मैने क्षणिक आवेश मे कहा। माताजी ने मुझे शांत करते हुये कहा कि तुम इतना काम कर रहे हो तो मामी को लगता है कि किसी की “बुरी नजर” लग गयी है। ऐसी नजर जो घर वालो से दूरी बढा रही है। इसलिये उस “बुरी नजर” को उतारने के लिये यह सब किया जा रहा है। लीजिये, यहाँ मै अन्ध-विश्वास के साथ जंग पर लेखमाला लिख रहा हूँ उधर मेरे ऊपर ही यह सब आजमाया जा रहा है। यह तो दिया तले अन्धेरा वाली बात हुयी। मुझे इस प्रक्रिया के बारे मे जानकारी नही थी इसलिये मैने क्रोध पर काबू रखने का निर्णय लिया।

मामी ने मिर्च को सिर पर घुमाया। सात बार नही बल्कि ग्यारह बार। फिर कुछ देर बाद मिर्च के जलने से गले मे खराश होने लगी। बाहर जाकर देखा तो मामी ने मिर्च को भी जला दिया था। मामी से जब मैने यह सब विस्तार से पूछा तो वे बोली ”कोई इस उम्र मे घर-बार छोडकर कम्प्यूटर पर यूँ थोडे ही लगा रहता है। जरुर किसी की नजर लग गयी होगी।“ मै चुपचाप सुनता रहा। अब नजर लगी है या नही- यह जानने का उनका तरीका सरल था। कपडे को सिर पर घुमाने के बाद जलाया जाता है। कपडे के जलने से बास आती है। यदि बास आये तो सब कुछ सही है। पर यदि बास नही आये तो यह मान लिया जाता है कि नजर लगी है। इस पर भी संतुष्टि न हो तो लाल मिर्च का सहारा लिया जाता है। लाल मिर्च को जलाने पर खराश हुयी तो सब ठीक और नही हुयी तो मामला गडबड है। मेरे मामले मे सब कुछ सही निकला था पर फिर भी मामी परेशान थी। उन्हे समझ नही आ रहा था 22 घंटो तक काम करने के पीछे का सन्देहास्पद कारण।

“बुरी नजर” का भय और इसे उतारने की सैकडो विधियाँ हमारे देश मे है। चूँकि इन विधियो मे वनस्पतियो का भी उपयोग होता है इसलिये मैने पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण के दौरान इसे भी दर्ज कर लिया। पर क्या सचमुच “बुरी नजर” जैसी कोई चीज होती है। विज्ञान का छात्र होने के नाते मै इसे सिरे से नकार देता हूँ पर “बुरी नजर” का भय आम लोगो मे इस कदर व्याप्त है कि घोर आश्चर्य होता है। जिन मामी की मै बात कर रहा हूँ उनके चार बच्चे है। दो विदेश मे ऊँचे ओहदे पर है जबकि दो भारत मे कम्प्यूटर इंजीनियर है। ऐसे सुशिक्षित और सस्कारी घर से इस अन्ध-विश्वास की आशा मुझे नही थी। मामी का कहना था कि अमेरिका मे भी उनके बच्चे नजर उतारने के लिये यह उपाय करते है। उनका कहना सही हो सकता है क्योकि मैने मुम्बई के होटल ताज मे एक होटल कर्मचारी को प्याज से नजर उतारने की विधि बताते सुना था। वहाँ विदेशी मेहमान बडे ध्यान से इसे सुन रहे थे। बहुत सी वैज्ञानिक संगोष्ठियो के दौरान इस बात पर जानबूझकर चर्चा छेड देने पर आँखे चौडी कर कपोल-कल्पित बाते कहने वालो के बीच होड लग जाती है। ट्रक वालो को तो बुरी नजर का भय खुलेआम लगता है।“बुरी नजर वाले तेरा मुँह काला” और साथ मे लटकता हुआ एक गन्दा जूता देखते-देखते हमने उमर गुजार दी। पीढीयो से चला आ रहा यह अन्ध-विश्वास नयी पीढी तक भी पहुँच रहा है। मै इस अन्ध-विश्वास की शक्ति को मापने का प्रयास करता हूँ तो मुझे आम जनमानस से इसे हटाना मुश्किल लगता है। मै अपने व्याख्यानो मे जब इस पर मजाकिये लहजे मे बोलता हूँ तो कुछ लोग आपत्ति करते है। वे कहते है कि इस अन्ध-विश्वास से किसी का बुरा नही हो रहा है तो फिर इसे जारी रहने दिया जाये। मै उनसे सहमत नही होता। यह अन्ध-विश्वास डर पैदा करता है। इसी डर का लाभ उठाकर बाजार बहुत सी ऐसी चीजो को मुँहमाँगे दामो पर बेचता है जिसका इस डर से कोई वास्ता नही होता। ऐसे डर से क्या लाभ? वैसे ही दर्जनो परेशानियो से घिरे आम मनुष्य़ को यह नयी परेशानी देता है। बुरी नजर के लिये किसी को भी बिना वजह बलि का बकरा बना देने की कुप्रथा भी समाज मे है। महिलाए इस षडयंत्र का शिकार होती है। इसलिये इस कुप्रथा पर खुलकर चर्चा होने के बाद इसे समाप्त करने की पहल अब हो ही जानी चाहिये।

मामी को मैने अपने कार्य के बारे मे बताया। मधुमेह पर विस्तार से लिखने से कैसे यह दस्तावेज पीढीयो तक लोगो की जान बचा पायेगा-यह जानकर उन्हे लगा कि यह सब व्यर्थ नही है। मैने मजाक मे उनसे कहा कि यदि सर्दी के कारण किसी दिन आपको कपडे जलने की गन्ध न आये तो आप पता नही किसी के बारे मे क्या छवि बना लेंगी। वे सहमत लगी पर मुझे नही लगता कि वे इतनी आसानी से यह सब भूल पायेंगी।

इस लेखमाला मे मैने पहले लिखा है कि कैसे अन्ध-विश्वास के कारण बारहसिंघो का अवैध शिकार हो रहा है। उनके सींग और खाल के लिये उन्हे मारा जा रहा है। सींग से ताबीज और अंगूठियाँ बनायी जा रही है। कल के दैनिक नवभारत, रायपुर मे छपी खबर के अनुसार वन विभाग ने एक क्विंटल सींग के साथ दो शिकारियो को पकडा। साथ मे दूसरे जंगली जानवरो के अंग भी मिले है जिनकी कीमत अंतराष्ट्रीय बाजर मे बीस लाख आँकी गयी है। यह वन विभाग का सराहनीय काम है पर मुझे लगता है बडी मछलियाँ अभी भी पकड के बाहर है। इन सींगो को अंगूठी और ताबीज बनाने के लिये थोक मे खरीदने वालो की पतासाजी कर उन्हे पकडना जरुरी है। हमारे देश के अखबारो मे पर्यावरण प्रेमी पत्रकार कम ही मिलते है। इस खबर के साथ बारहसींगे के महत्व और इसके सींग से जुडे अन्ध-विश्वास का उल्लेख भी यदि आ जाता तो आम जनता तक सीधे ही सन्देश पहुँच जाता। यदि आम जनता जाग गयी तो फिर इन अंगूठियो और ताबीजो को खरीदेगा कौन?

500 जीबी की बाहरी हार्ड डिस्क अब पूरी तरह भर चुकी है। पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजो के अलावा यह लेखमाला भी इसी मे सहेज कर रखी गयी है। जल्दी ही नयी हार्ड डिस्क के साथ मै इस लेखमाला को जारी रख सकूँगा-ऐसी आशा है। मै अपने लेखो के माध्यम से आपसे जो जुड पा रहा हूँ उसमे कम्प्यूटर की महत्वपूर्ण भूमिका है। इसी ने राह आसान की है और यही महत्वपूर्ण दस्तावेजो को सहेजे हुये है। 500 जीबी की सामग्री को छपे हुये पन्नो के रुप मे रख पाना सम्भव नही जान पडता है। 200 जीबी की सामग्री ही एक करोड पन्नो से अधिक की हो जाती है। मै यदि कुछ समय पहले पैदा हुआ होता तो शायद ही विस्तार से ऐसे भारी दस्तावेज तैयार कर पाता। अभी तो शुरुआत है। देखिये बात कितनी दूर तक जाती है। (क्रमश:)


(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)

© सर्वाधिकार सुरक्षित




Updated Information and Links on March 10, 2012

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Comments

बहुत सुंदर...आगे के लेखों का भी इंतजार है।
Anonymous said…
अंधविश्वास तो हर काल और समाज में विद्यमान रहा है, चाहे चेहरा कुछ भी रहा हो।

आपकी प्रतिक्रिया स्वभाविक है।
आप बहुत काम कर रहे हैं। लेकिन आराम भी चाहिए शरीर को कभी कभी।

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