अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -75

अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -75 - पंकज अवधिया

मध्यरात्रि एक बुरे स्वप्न ने मुझे नीन्द से जगा दिया। मै उठ बैठा और उस स्वप्न के बारे मे सोचने लगा। ठीक से तो याद नही रहा पर स्वप्न अपने के बिछुडने का था। नीन्द उचट गयी तो कम्प्यूटर पर बैठ गया। मन बदलने के लिये अपने द्वारा खीची गयी तस्वीरो को देखना आरम्भ किया। कुछ देर बाद मै नियमगिरि की यात्रा के दौरान ली गयी तस्वीरो तक पहुँच गया। ध्यान एक पुराने पीपल पर जाकर अटक गया। कहने को वह एक पीपल था पर उसके ऊपर अनगिंत छोटे-बडे पौधे थे। वह पितृ वृक्ष था। चिडियो की चहचाहट ने मुझे बरबस ही इस पेड की ओर खीच लिया था। मैने तस्वीरे लेनी आरम्भ की तो कुछ समय मे ही दसो प्रकार की दुर्लभ चिडियो की तस्वीरे कैमरे मे कैद हो गयी। एक ही पेड की मैने चार सौ से अधिक तस्वीरे खीच ली। उनमे से एक भी तस्वीर को देख कर ऐसा नही लगता था कि ये एक ही पेड की होंगी। मै तो यूँ ही कैमरे सहित पेड के पास पहुँच गया पर साथ चल रहे अलाबेली गाँव के पारम्परिक चिकित्सक ने पहले हाथ जोडे फिर प्रार्थना की। उसके बाद हाथ जोडे-जोडे ही उस पेड तक आये। उन्होने बताया कि पीढीयो से यह एक पेड असंख्य रोगियो को रोगमुक्त कर रहा है। ये हमे औषधियाँ देता है। मरणासन्न रोगियो को हम इसकी छाँव मे लिटा कर चिकित्सा करते है। जितना काम औषधियाँ नही करती उतना इसकी छाँव कर देती है। सर्प दंश से प्रभावित जाने कितने लोगो को उन्होने इसी पेड के नीचे ठीक किया है। मै उनकी बात सुनता रहा। मै सचमुच सौभाग्यशाली था जो मुझे इस जीवन मे इस पेड के पास जाने का मौका मिला। इसकी तस्वीरे देखते ही मुझे लगा कि बुरा स्वप्न शायद इससे ही जुडा था। जैसे-तैसे रात कटी। सुबह मैने नियमगिरि फोन लगाया।

लगभग दो साल पूर्व मै वानस्पतिक सर्वेक्षण के लिये वहाँ गया था। एक्शन एड नामक संस्था का मानना था कि मेरे जाने और वैज्ञानिक रपट तैयार करने से हो सकता है माननीय सर्वोच्च न्यायालय वहाँ होने वाले बाक्साइट के खनन से पर्यावरण पर पडने वाले बुरे प्रभावो की ओर ध्यान दे। इसके बाद फिर नियमगिरि जाना नही हो पाया। कुछ फोन नम्बर मेरे पास है। बस उन्ही की सहायता से हालचाल पता लगता रहता है। उस सुबह फोन पर मैने पूछा कि जो पीपल का पितृ वृक्ष हमने देखा था उसके क्या हाल है? कल मैने रात को स्वप्न मे उसे देखा। स्वप्न अच्छा नही था। कुछ देर की शांति के बाद उधर से जवाब आया कि वो तो कब से साफ हो गया। वहाँ तो खनन कम्पनी की पूरी आवासीय कालोनी खडी है।

बस्तर के लोहांडीगुडा क्षेत्र मे मै कालेज की पढाई के दौरान अक्सर जाया करता था। वहाँ की एक-एक वनस्पति से पहचान हो गयी थी। इमली के पुराने पेड जैसे मिलने की बाट जोहते थे। पढाई के बाद भी मेरा आना-जाना लगा रहा। जब मैने सुना कि इस क्षेत्र मे टाटा का बडा भारी स्टील प्लांट लग रहा है तो मन भारी हो गया। मन मे इच्छा रही कि कैसे भी वहाँ पहुँच जाऊँ और अपने बाल सखाओ से मिल लूँ। मुझे मालूम है कि जल्दी ही इन बाल सखाओ को जड से काट दिया जायेगा। उनकी उम्र का लिहाज भी नही किया जायेगा। उनका चीखना-चिल्लाना भी काम नही आयेगा। पुणे की एक सस्था को मैने प्रस्ताव रखा कि एक बार उस क्षेत्र मे जाकर वनस्पतियो की तस्वीरे ले ली जाये ताकि आने वाली पीढी के पास यह दस्तावेज के रुप मे रहे। प्रस्ताव मंजूर हो गया। मै लोहांडीगुडा गया और एक बार फिर पुराने पेडो से मिला। जब मैने विस्तार से वनस्पतियो की तस्वीरे लेनी शुरु की तो कुछ ऐसी वनस्पतियाँ मिली जिनका सन्दर्भ ग्रंथो मे कोई उल्लेख ही नही मिलता था। मै भारी मन से लौटा। फिर दोबारा उस क्षेत्र मे जाने की हिम्मत मै शायद ही जुटा पाऊँ।

अपनी दोनो यात्राओ के बाद मैने संस्थाओ के लिये रपट बनायी और उसमे अनुरोध किया कि यदि सम्भव हो तो वनस्पतियो को बचाकर खनन हो और स्टील प्लांट लगाया जाये। सैकडो वर्ष पुराने पेडो को हम इस जन्म मे फिर से नही पा सकते है। यह भी सुझाव दिया कि थोडे पैसे खर्च करके इन्हे संरक्षित करता एक जैव-विविधता पार्क बना दिया जाये ताकि मेरे बाल सखा इसमे स्थान पा सके। पर जिस तरह से विकास के लिये विनाश जारी है उससे तो मेरे सुझाव पर ध्यान दिये जाने की सम्भावना कम ही है। मुझे भिलाई स्थित स्टील प्लांट का एक सन्दर्भ याद आता है। जब इस प्लांट की स्थापना नही हुयी थी तो यहाँ बडे ही पुराने पेड हुआ करते थे। इन पेडो का वर्णन आज भी पारम्परिक चिकित्सक अपने बुजुर्गो के हवाले से करते है। प्लांट बना तो बिना इनके महत्व को जाने जमीन साफ कर दी गयी। प्लांट बनने के बाद नये पेडो को रोपा गया। भले ही वर्तमान पीढी इतने सारे नये पेड देखकर खुश हो ले पर जितने पेड प्लांट बनते वक्त काटे गये उनकी तुलना मे आज के ये पेड कुछ भी नही है। फिर वे सैकडो वर्ष पुराने पेड थे। आज के ये पेड ठीक से जम भी नही पाते है क्योकि उन्हे सुबह-शाम प्रदूषण की मार झेलनी पडती है। पर्यावरण विभाग और मीडिया को भले ही भिलाई का प्रदूषण न दिखे पर शहर के किसी भी ओवरब्रिज मे शाम और सुबह खडे होकर चारो ओर निहारे, आपको प्रदूषण की घनी चादर मे ढके घर दिखेंगे। ऐसे प्लांट निश्चित ही आपका जीवन स्तर बढाते है पर स्वास्थ्य छीन लेते है। प्लांट बनाते वक्त यदि पुराने पेडो को बचाये रखा जाता तो आज स्थिति उल्टी ही होती।

भले ही यह पढने मे अटपटा लगे पर यदि आप प्रकृति के पास है तो आपको हर एक पेड मे एक व्यक्तित्व नजर आयेगा। पहले जंगल से गुजरते वक्त सारे पेड एक से दिखते थे पर जब से मैने उन्हे जाना तब से जंगल मुझे एक जन-समुदाय सा लगाता है। पीपल, पलाश, पाकर क्या किसी भी दो पेड मे आप समानता नही पायेंगे। हर पेड के नीचे खडा होना एक अलग अनुभव देता है। यकीन न हो तो आप किन्ही दो पेडो की तस्वीरे खीच लीजिये। वे कभी भी एक समान नही होंगे। जैसे हम मनुष्यो मे भिन्नता है, हमारे रंग-रुप अलग है, खान-पान अलग है, स्वास्थ्य समस्याए अलग है वैसे ही पेडो के साथ भी है। वे मनुष्य़ या इस धरती के दूसरे प्राणियो से अलग नही है। ये हमारा देश केवल मनुष्य़ॉ का देश नही है। असंख्य वनस्पतियाँ और जंतु भी भारत है। फिर क्यो वनस्पतियो की ओर से आवाज उठाने कोई पहल नही करता। क्यो वनस्पतियो के पक्ष मे आवाज बुलन्द करने वाले विकास विरोधी और इनका विनाश करने वाले विकासशील कहे जाते है। जिस तरह भारत के हर मनुष्य़ के लिये पहचान पत्र की बात हो रही है,क्यो न हर पेड, हर वनस्पति के लिये भी पहचान पत्र बने। उन पर अत्यचार हो तो व्यक्तिगत स्तर पर कानून हो जिससे उनकी रक्षा हो सके। लोहांडीगुडा वाली रपट मे मैने साफ शब्दो मे लिखा कि स्थानीय लोगो की अनुमति की बात तो प्रशासन करता है पर क्या वनस्पतियो से किसी ने अनुमति ली है? आखिर उनका आशियाना भी तो उजडेगा। जगदलपुर के एक वरिष्ठ अधिवक्ता ने इस कथन को न्यायालय, मनुष्यो के न्यायालय कहना ज्यादा सही होगा, के सामने भी रखा। विकास का अन्ध-विश्वास पर्यावरण के विनाश को अनदेखा करता है। विकास जरुरी है पर संतुलित। जिन स्थानो मे औद्यौगिक इकाईयाँ लगानी हो वहाँ वनस्पतियो को बचाते हुये भी यह किया जा सकता है। हरे-भरे स्थान को उजाडकर फिर नाम के लिये पेड रोप कर हम अपनी ही आने वाली पीढी के लिये विनाश का मार्ग प्रशस्त कर रहे है।

कभी-कभी मुझे लगता है कि वनस्पतियो के लिये अपना जीवन समर्पित कर मैने भूल की है। रोज असहाय सा उन्हे बरबाद होता देखता रहता हूँ। बर्बादी मे मेरी ही बिरादरी अर्थात मनुष्यो का हाथ होता है। कलम का हथियार एक समय ताकतवर हुआ करता था पर विकास के बढते अन्ध-विश्वास ने इसकी धार को भी भोथरा कर दिया है। पर्यावरण की बात तो जमकर होती है पर अपने ही पिछवाडे मे कट रहे पेड को बचाने कोई नही आता। पेडो को रक्षा सूत्र बाँधकर अखबारो मे तस्वीरे छपवायी जाती है पर वन-सन्हार पर मुँह से विरोध के स्वर नही फूटते। पता नही कब तक चलता रहेगा यह सब? (क्रमश:)


(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)

© सर्वाधिकार सुरक्षित

Comments

'ये हमारा देश केवल मनुष्य़ॉ का देश नही है। असंख्य वनस्पतियाँ और जंतु भी भारत है...

....जिस तरह भारत के हर मनुष्य़ के लिये पहचान पत्र की बात हो रही है,क्यो न हर पेड, हर वनस्पति के लिये भी पहचान पत्र बने।'

बहुत बड़ी बात कह गए आप! आपके सोच को मैं दाद देता हूँ.
आपका प्रयास बहुत बडिया हैपता नही आदमी कब जागेगा
हम विकास की ओर, किस मापदंड में
वास्तविकता या पाखंड् मे
तृ्ष्णाओं के सम्मोहन मे या प्रकृ्ति के दोहन मेक्या उँची उडान की भाशा मे
य झूठी मृ्ग अभिलाशा मे
मनुश्य अपनी लालसाओं को बडा रहा है सृ्ष्टी को विनाश की ओर ले जा रहा है

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