अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -76

अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -76 - पंकज अवधिया

गर्भावस्था की शुरुआत मे लाइचा के प्रयोग से शुरु होकर फिर प्रसूति के बाद महाराजी, पाँचवे वर्ष मे कंठी बाँको और जवानी मे तेन्दुफूल, ऐसे 60 से अधिक किस्म के औषधीय धान के उपयोग बताता पारम्परिक चिकित्सकीय ज्ञान हमारे देश मे है। इस प्रकार यदि किसी बालक को शुरु से ही 60 की उम्र तक नियमित रुप से औषधीय धान खिलाया जाये तो वह ताउम्र रोगो से बचा रह सकता है। क्या आधुनिक रोगो से भी? सौभाग्य से इसका जवाब सकारात्मक है। पारम्परिक चिकित्सक बताते है कि यदि शुरु के पाँच वर्ष तक औषधीय धानो को निश्चित क्रम मे दे तो बालक बीस वर्षो तक रोगो से बचा रह सकता है। इसी प्रकार उम्र के हर पडाव के लिये अलग-अलग औषधीय धान निश्चित है। इनका उपयोग चावल के रुप मे पकाकर खाने तक ही सीमित नही है। चावल के धोवन से स्नान करने से लेकर गर्म चावल की पोटली से शरीर की मालिश और सिकाई भी शामिल है। औषधीय धान के पौधे इतने गुणकारी होते है कि इनकी जड के पास से एकत्र की गयी मिट्टीयो मे भी औषधीय गुण होते है। और तो और, जो कीडे इन पर पोषण करते है उनका उपयोग भी औषधी के रुप मे होता है। कहाँ हम-आप रोगो से मुक्ति पाने के लिये नित नये नुस्खे आजमा रहे है और हमारे देश का बहुमूल्य पारम्परिक ज्ञान अपने माध्यम से हमारी सेवा की बाट जोह रहा है। उस दिन की कल्पना कीजिये जब महिलाए औषधीय धान के सेवन के बाद ऐसे स्वस्थ्य शिशुओ को जन्म देंगी जिन्हे आजीवन मधुमेह, उच्च रक्तचाप और यहाँ तक की कैसर भी नही छू पायेगा।

आज एक बार फिर औषधीय धान पर लिखने का मन इसलिये हुआ क्योकि मै इन दिनो औषधीय धान के माध्यम से कैसर जैसे जटिल रोगो से सुरक्षा पर एक विशेष अध्याय अपनी रपट मे लिख रहा हूँ। “मेडीसीनल राइस इन ट्रेडीशनल हीलिंग” नामक यह रपट छत्तीसगढ की सैकडो औषधीय धान किस्मो और उनके पारम्परिक ज्ञान पर है। काफी दिनो से इस विषय पर लिखने का मन था और जब रपट आरम्भ हुयी तो गति धीमी थी। मुझे लग रहा था कि कुछ जीबी की रपट होगी पर दिमाग मे अंकित जानकारियाँ कम्प्यूटर के माध्यम से पन्नो पर आने लगी तो अब इसका अंत नही दिखता है। आज ही मैने जब इस रपट का आकार मापा तो पता चला कि इसने 90 जीबी का आँकडा पार कर लिया है। जबकि अभी तो शुरुआत ही है। मुझे लगता है कि पूरी रपट 350 जीबी से अधिक की होगी। प्राचीन भारतीय चिकित्सा ग्रंथ औषधीय धान के विषय मे बताते तो है विस्तार से नही। यदि कम्प्यूटर की भाषा मे कहा जाये तो इन ग्रंथो मे वर्णित जानकारी केवल कुछ केबी की ही है। आजादी के बाद से हमारे देश मे धान पर अनुसन्धान के लिये अरबो रुपये बहाये गये। अभी भी धान पर ढेरो शोध संस्थान काम कर रहे है। पर यह आश्चर्य का विषय है कि किसी ने भी औषधीय धान के विषय मे उपलब्ध पारम्परिक ज्ञान का दस्तावेजीकरण नही किया। यदि आप गूगल और दूसरे खोजी इंजनो मे “मेडीसिनल राइस” शब्द खोजे तो आपको तीन हजार के आस-पास साइट मिलेंगी। हमारे ग्रंथालय भी औषधीय धान के विषय मे जानकारी देने वाले ग्रंथो का इंतजार कर रहे है। जब छत्तीसगढ मे व्यक्तिगत स्तर पर किये गये प्रयास से इतनी सारी जानकारी एकत्र हो सकती है तो आप कल्पना नही कर सकते कि पूरे देश मे औषधीय धान के विषय मे जानकारी का कितना बडा भंडार होगा। मैने जन्म लेने मे थोडी देर कर दी। जब मै पारम्परिक ज्ञान विशेषज्ञो तक पहुँचा तो बहुत देर हो चुकी थी। ज्यादातर औषधीय धान की खेती बन्द हो चुकी थी। औषधीय धान बुजुर्ग पीढी की यादो मे ही थे। जो बीज उपलब्ध थे वे शुद्ध नही थे। बिखरी जानकारियो को एक सूत्र मे पिरोने मे ही मेरा ज्यादातर समय लग गया। यदि आजादी के बाद से ही अपनी विरासत को सम्भालने मे हमारे शोध संस्थान जुट जाते तो आज इतनी अधिक तादाद मे बीमार इस देश मे नही होते। आप तो जानते ही है कि भारतीय शोध संस्थानो ने विरासत को बचाने से ज्यादा उन्हे खत्म करने मे अधिक रुचि दिखायी। जैविक खेती का समूल नाश कर रासायनिक खेती को स्थापित किया और पुरानी किस्मो को बेकार बताकर नयी नाजुक किस्मो का जाल फैला दिया। देखते ही देखते औषधीय धान की खेती खत्म हो गयी। और साथ ही उनसे सम्बन्धित हमारा पारम्परिक चिकित्सकीय ज्ञान भी। शोध संस्थान विदेशो पर धन के लिये आश्रित रहे। उन्हे ही अपने शोध परिणाम बताते रहे। दुर्भाग्य से यह सब आज भी जारी है।

लम्बे समय तक औषधीय धान भेजरी और रसश्री पशु चिकित्सा मे उपयोग होते रहे। भेजरी प्रसूति के बाद गाय को अलसी के बीजो के साथ खिलाया जाता था ताकि किसी तरह का संक्रमण न हो। रसश्री टानिक के रुप मे दिया जाता था। भारतीय शोध संस्थानो ने जब से ऐसे पशु चिकित्सक बनाने शुरु किये जिन्हे पारम्परिक औषधीयो से सख्त नफरत थी तब से भेजरी और रसश्री जैसी असंख्य पारम्परिक औषधियो का प्रयोग बन्द हो गया। अब तो इंजैक्शन लगते है। ऐसी दवाओ वाले जिनका असर स्थायी होता है। आपने आक्सीटोसिन के इंजैक्शन के असर के बारे मे पढा ही होगा। इतना असरकारक होता है कि उसका जहर पशुओ के मरने के बाद भी शरीर मे रहता है। जब गिद्ध इन पशुओ को खाते है तो उनकी किडनी इस रसायन के कारण खत्म हो जाती है। देश मे गिद्धो की घटती संख्या के लिये ये भी एक प्रमुख कारण है। कोई दूसरा देश होता तो ऐसे विनाश को बढावा देने वाले संस्थानो मे ताला लग जाता और इस दवा को बनाने वालो पर प्रतिबन्ध पर यह भारत है। यहाँ ऐसे लोगो की सजा का कोई प्रावधान नही है-ऐसा प्रतीत होता है। देशी औषधीयाँ सस्ती होती थी। प्रभावी भी। इनसे पर्यावरण पर बुरा प्रभाव नही पडता था। पर पशु चिकित्सको से लेकर वैज्ञानिको और योजनाकर्ताओ सभी ने किसानो को अपनी परम्परा से दूर करने मे कोई कसर नही छोडी।

औषधीय धान के विषय मे चर्चा हो रही है तो लाल बैगा नामक व्यक्ति के विषय मे भी मै बताना चाहूंगा। सारा इलाका इस व्यक्ति को भूत भगाने वाले के नाम से जानता था। प्रेत बाधा के शिकार दूर-दूर से रोगी उसके पास इलाज के लिये आते थे। आधुनिक समाज उसे अन्ध-विश्वास फैलाने वाले के रुप मे चिन्हाँकित करता रहा। पर मै लाल बैगा को पारम्परिक धान की किस्मो के जानकार के रुप मे जानता था। उसके पास इनके बीज थे पर उससे भी बडी बात यह थी कि उसे पता था, कैसे औषधीय धान के प्रयोग से जटिल रोगो से मुकाबला किया जाये। मैने उसके ज्ञान का दस्तावेजीकरण किया। मै हमेशा यही सोचता रहा कि जिस दिन दुनिया मेरे योगदान को समझेगी उस दिन मै लाल बैगा जैसे हजारो धरती पुत्रो को समाज की मुख्य धारा मे लाकर आधुनिक समाज से सम्मान दिलवा पाऊँगा पर यह इंतजार इंतजार ही रह गया। हाल ही मे जब मै उसके गाँव पहुँचा तो पता चला कि लाल बैगा अब हमारे बीच नही है। मुझे बिना बताये ही वह चला गया। उसकी पत्नी ही गाँव मे है। पर औषधीय धान का सारा ज्ञान लाल बैगा के साथ ही चला गया। काश! मै जीविकोपार्जन के प्रयासो को शहर मे छोडकर कुछ और समय उसके साथ बिता पाता।

इसमे कोई दो राय नही कि बहुत देर हो चुकी है। पर फिर भी आशा की किरण अभी शेष है। औषधीय धान जैसी पारम्परिक वनस्पतियो के संरक्षण और संवर्धन से आत्महत्या के लिये मजबूर देश भर के किसानो को हमारे योजनाकर्ता नयी राह दिखा सकते है। केरल मे ऐसे प्रयास हो रहे है। पारम्परिक औषधीय धान निवारा की खेती को वहाँ बढावा दिया जा रहा है। इस पर नये शोध हो रहे है। हाल ही मे इस धान मे कैंसर की चिकित्सा मे उपयोगी तत्व खोजा गया है। हालाँकि केरल के वैज्ञानिक दावा कर रहे है कि इस औषधीय धान के विषय मे जानकारी केरल तक ही सीमित है पर ऐसा नही है। हमारा देश भले ही बडा है पर आम लोग आपस मे जुडे है। किसान भी आपस मे जुडे है। पता नही कैसे और कब छत्तीसगढ के पारम्परिक चिकित्सको के पास औषधीय धान नवारा के विषय मे जानकारी पहुँची पर सर्वेक्षणो के दौरान न केवल उन्होने मुझे इसके ऐसे उपयोगो की जानकारी दी जिसका वर्णन आयुर्वेद मे नही मिलता है बल्कि राज्य के औषधीय धान के साथ इसके प्रयोग के विषय मे भी बताया। मेरा मानना है कि औषधीय धान को फिर से लोकप्रिय बनाने के लिये क्षेत्रीयतावाद से ऊपर उठाकर राष्ट्रीय स्तर पर समंवित प्रयास करने की आवश्यकत्ता है। (क्रमश:)


(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)

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