अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -81

अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -81 - पंकज अवधिया

मध्य रात्रि अचानक अजीब सी आवाज से मेरी नीन्द खुल गयी। चारो ओर घुप्प अन्धेरा था। मै उठ बैठा। आवाज ऊपर से आ रही थी। सिर उठाया तो कुछ दिखा नही। कुछ देर बैठने के बाद मुझे याद आया कि यह मेरा घर नही था। मै तो घास-फूस से बनी एक झोपडी मे सो रहा था। यह बुधराम की झोपडी थी। कुछ दूरी पर वह सोया हुआ था। रात का सन्नाटा था। जंगली जानवरो को दूर रखने के लिये जलायी गयी आग ठंडी हो चुकी थी। झोपडी के बाहर गाडी थी जिसमे ड्रायवर सो रहा था। यह मेरी ही जिद थी झोपडी के अन्दर सोने की। नही तो ड्रायवर तो पास के शहर के किसी लाज मे ठहरने की जिद करके थक चुका था। बुधराम के लिये ऐसी जगह पर सोना रोज की बात थी। पर मेरे लिये यह अजीब अनुभव था। झोपडी गाँव के बाहर थी और आस-पास खेत थे। कुछ दूर पर जंगल था। जंगली जानवर अक्सर गाँव मे आ जाया करते थे पर डरने की कोई बात नही है, ऐसा कहकर बुधराम ने मुझे आश्वस्त करने की कोशिश की थी। जंगल के देवता पर उसे बहुत विश्वास था। वे अकारण की किसी को सजा नही देते, उसने यह भी कहा था। सोने से पहले हम लोगो ने उन्हे याद कर लिया था और फिर आश्वस्त होकर सो गये थे।

बचपन मे जंगल के देवता का जिक्र पंचतंत्र की कहानियो मे आता था। वे हमेशा सही न्याय करते थे। बडे होने पर उनके विषय मे और जानकारी मिली। बहुत सी जगहो मे रात को कीटो की तलाश मे जाना चाहा तो स्थानीय लोगो ने यह कहकर रोक दिया कि यह जंगल के देवता का शयन का समय है। इस समय अन्दर जाना ठीक नही होगा। कई बार यह भी सुनने को मिला कि जंगल के देवता दिन मे मनुष्यो की सुध लेते है जबकि रात का समय वे वन्य प्राणियो के लिये रखते है। स्थानीय लोगो विशेषकर जंगल मे या उनके करीब रहने वालो मे आज भी यह विश्वास है कि जंगल के देवता संकट आने पर उनकी रक्षा करेंगे। मुझे याद आता है कि एक बार सर्वेक्षण से वापस लौटते हुये मुझे देर हो गयी और रात्रि को एक जंगल से गुजरना पडा। हमारी गाडी पंचर हो गयी। हम रुक गये और ड्रायवर स्टेपनी लगाने लगा। हम सतर्क थे। जंगली जानवरो विशेषकर भालुओ का भय था। रात के सन्नाटे मे कही दूर हमे खडाखडाहट सुनायी दी। हमने इसे साइकिल की आवाज के रुप मे पहचाना। घाटी थी। ऐसा लगता था जैसे कई साइकिले ऊपर आने वाले रास्ते से आ रही है। इतनी रात भला कौन जंगल से गुजरने का जोखिम लेगा? हमे कुछ डर भी महसूस हुआ। आवाज पास आती गयी। हमने टार्च की रौशनी उस ओर फेकी तो तीन-चार साइकिल सवार आते दिखे। वे मस्ती मे थे। कुछ पल के लिये हमारे पास रुके और फिर ड्रायवर को चक्का बदलते देखकर आगे बढ गये। मै कुछ पूछ ही नही पाया। यह अजीब अनुभव था। कुछ पल की शांति के बाद फिर से साइकिल की आवाज आयी। नीचे रोशनी फेकी तो देखा की एक और साइकिल आ रही है। पर सवार पैदल चल रहा है। जंगल मे साइकिल के होते हुये पैदल? कुछ पास आने के बाद वह साइकिल मे सवार हुआ और हमारे पास से गुजर गया। बिना कुछ बोले।

चक्का बदलने के बाद हम आगे बढे। कुछ दूर पर हम उनसे फिर मिलेंगे-ऐसी उम्मीद थी पर वे काफी दूर तक नही मिले। आस-पास कोई दूसरा रास्ता भी नही था। तभी हमारी निगाह एक तेन्दुए पर पडी जो गाडी की रोशनी से बचने की कोशिश कर रहा था। जंगल खतरनाक था-इसकी पुष्टि तो हो गयी। “वो देखिये साहब, उधर।“ ड्रायवर ने एक स्थान की ओर इशारा किया जहाँ आग जल रही थी। हम पास पहुँचे तो गाडी की रोशनी मे फिर से वे ही साइकिल सवार दिखे। हम रुक गये। आग तापी और फिर पहल कर उनसे बाते शुरु की। उन्हे बताया कि थोडी ही दूर पहले हमने तेन्दुआ देखा है। वे बोले, हमने भी देखा है। ओह! वे जानते है। मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा। उन्होने बताया कि वे दूर गाँव से निकले है एक तीर्थ स्थान के लिये। कल सुबह तक वहाँ पहुँच जायेंगे। रात मे भोजन किया है और फिर सफर पर निकले है। “रात को डर नही लगता?” मैने पूछ ही लिया। “अरे, साहब डर किस बात का। जंगल के देवता है न। वे हमारी रक्षा करते है।“ इतना विश्वास? मैने पूछा, क्या आपको पक्का यकीन है कि वे आपकी रक्षा करेंगे? वे बोले, हमने कभी जंगल को उज़ाडा नही, जानवरो को मारा नही तो क्यो नही जंगल के देवता हमारी रक्षा करेंगे? वे तो हमारी रक्षा कर ही रहे है। अभी आपने तेन्दुआ देखा। हमने दो भालुओ को पीछे देखा। वे अपने रास्ते निकल गये और हम अपने। लो जी कर लो बात। यहाँ हम गाडी के शीशे चढाकर बैठे थे और ये लोग है कि मजे से जंगल मे घूम रहे है। चाय का ग्लास मेरी ओर बढाते हुये वे बोले कि बस चाय के लिये वे रास्ते मे रुकते है। जंगल के देवता न केवल हमे जंगली जानवरो से बचा रहे है बल्कि भूतो से भी बचा रहे है। अभी थोडी दूर पहले ही एक भूत ने इस साथी की साइकिल को पीछे से पकड लिया था। जैसे ही यह आगे बढता भूत साइकिल को हिलाकर गिराने की कोशिश करता था। भूत की जिद से तंग आकर इसने पैदल चलने का मन मनाया। फिर इसे जंगल के देवता की याद आयी। उनका नाम लिया और साइकिल मे सवार हो गया। बस फिर क्या था, सीधे यहाँ आकर रुका। मै समझ गया यह वही साथी था जिसे हमने बाद मे देखा था। चाय के बाद चिलम निकल पडी। गांजे की गन्ध फैलने लगी। उनकी आँखे चढ गयी और वे कुछ असामान्य से लगने लगे। वे शायद ऐसी अवस्था मे पहुँच गये जहाँ उन्हे देवता और भूत दोनो दिख सकते थे। हमने उनसे विदा ली। रास्ते मे ड्रायवर से रहा नही गया। बोला, साहब, देवता-वेवता कुछ नही गांजे की शक्ति के कारण यह दुस्साहस कर रहे है। ड्रायवर कुछ हद तक सही कह रहा था पर यह भी सच था कि देवता की उपस्थिति का विश्वास उनके आत्म-विश्वास को बनाये हुये था। भले ही हम इसे उनका अन्ध-विश्वास मान ले पर यह उनका जागृत विश्वास था जो उनकी राह आसान कर रहा था।

रायपुर के आस-पास के जंगलो मे लकडी की अवैध कटाई जोरो पर है। जंगल तेजी से साफ हो रहे है। आप खुलेआम गाँव के चाय़-नाश्ते वाले छोटे होटलो की भट्टी मे पुराने पेडो की लाश जलती देख सकते है। कुछ कप चाय और भजियो के लिये करोडो के पेड शाम तक खाक कर दिये जा रहे है। रोज अल सुबह ही लोग लकडी काटने निकल पडते है। कोई उन्हे नही रोकता है। यदि रोके तो कह देते है हमने लकडी नही काटी यह तो वैसे ही जंगल मे गिरी हुयी थी। वनो की रक्षा का जिम्मा सम्भालने वाला अमला बडे अधिकारियो की सेवा मे लगा रहता है। यदि वह इन सब छोटे-मोटे कार्यो की सुध ले तो उसे “काला पानी” की सजा के रुप मे राज्य के सुदूर दक्षिणी कोने मे ढकेल दिया जायेगा।

एक बार चमकने वाले मशरुम की तलाश मे मध्य रात्रि ही जंगल जाने का अवसर प्राप्त हुआ। पारम्परिक चिकित्सको को साथ लेकर जंगल की ओर कूच किया। अनावश्यक खतरा न मोल लेने की योजना थी। गाडी मे बैठे-बैठे ही टार्च से रोशनी फेककर मशरुम को देखना था। अब चूँकि खोज चमकने वाले मशरुम की थी इसलिये नियमानुसार तो उन्हे ही चमक कर अपनी उपस्थिति का अहसास कराना था। रात के एक बजे गये। दो भी बज गये। हमे कुछ नही मिला। हम गाडी रोककर जंगल की शांति का आनन्द लेने लगे। गाडी का शोर बद हुआ तो ठक-ठक की आवाजे आने लगी। पारम्परिक चिकित्सको ने राज खोला कि ये लकडी की कटाई वाले लोग है। सुबह तक होटल खुलने से पहले या व्यापारियो के आने से पहले ये लकडी लेकर गाँव पहुँच जायेंगे। मैने सोचा कि जरुर ये भी जंगल के देवता का नाम लेकर लकडी काटते होंगे वर्ना रात को कोई जोखिम कैसे उठायेगा? पारम्परिक चिकित्सक बोले “जंगल के देवता पर इनकी आस्था होती तो वे कभी जंगल मे इस तरह लकडी नही काटते। यदि ले जाते भी तो उतनी ही जितनी घर के लिये चाहिये। ये वे लोग है जिनके मन ने देवता को बाहर निकाल फेका है। अब उनके मन मे लालच रहता है। ऐसा लालच जो बस निज स्वार्थ को देखता और सोचता है। लगता है आज के मनुष्य के इस “लालच देवता” के आगे “जंगल के देवता” ने भी हार मान ली है। तभी तो सिवाय खून के आँसू बहाने वे कुछ नही कर पाते है।

पारम्परिक चिकित्सको की बाते सुनकर मै स्तब्ध रह गया। मुझे लगा कि चीखता हुआ मै उन लोगो की ओर जाऊँ और जंगल के देवता का स्वांग रचकर उन्हे जी भरकर डराऊँ ताकि वे भाग कर गाँव मे जाये और इस बात को फैलाये। इससे अन्ध-विश्वास तो फैलेगा पर कम से कम जंगल तो बचे रहेंगे। (क्रमश:)


(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)

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देवता की उपस्थिति का विश्वास उनके आत्म-विश्वास को बनाये हुये था। भले ही हम इसे उनका अन्ध-विश्वास मान ले पर यह उनका जागृत विश्वास था जो उनकी राह आसान कर रहा था।

बहुत ही सही बात है। आप के ये अनुभव तो अब पुस्तकाकार प्रकाशन मांग रहे हैं।

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