अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -88

अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -88 - पंकज अवधिया

“इसका फूल जानवर यदि खा ले तो वे मर जाते है।“ बेशरम के पौधो के बारे मे ऐसी बाते मै अक्सर सुना करता था। कृषि की शिक्षा के दौरान मुझे लगा कि अपने ज्ञान से सबसे पहले अपने गाँव का ही भला किया जाये। इसलिये पिताजी की अनुमति मिलते ही घर की बैठक मे नि:शुल्क कृषि परामर्श केन्द्र खोल लिया। रोज तो यहाँ बैठा नही जा सकता था। कालेज जो जाना होता था। इसलिये रविवार का दिन चुन लिया था। अपने विश्वविद्यालय से मिले जानकारी पत्रको को केन्द्र मे सजा दिया था ताकि किसान वहाँ आकर आराम से पढ सके। कालेज मे इस केन्द्र के बारे मे जानकारी मिलने पर गुरुजन बहुत प्रसन्न हुये। हर बार एक विशेषज्ञ इस केन्द्र मे अपनी सेवाए देने आने लगे। वे जानते थे कि सब कुछ निज व्यय से चल रहा है इसलिये वे अपने खर्च पर आ जाते थे और शाम तक रुकते थे।

उस समय मेरी रुचि खरपतवारो मे थी। मै सभी खरप्तवारो के उपयोग खोजा करता था। बेशरम पर मेरी विशेष नजर थी क्योकि पूरी पढाई के दौरान इसके विरुद्ध हमारे कान भरे गये थे। अब जब किसान भी कहने लगे कि इसके फूल को खाने से जानवर मर जाते है तो उन पर यकीन होने लगा। फूलो को देखकर तो बिल्कुल नही लगता था कि ये जहरीले है। एक बार जोश मे मैने फूलो को खा भी लिया। पहले डर लगा पर बाद मे जब कुछ असर नही हुआ तो हौसला बढा। मैने पुस्तकालय मे घंटो बिताये पर फूलो के जहरीलेपन पर कोई जानकारी नही मिली। गुरुजनो से पूछा तो उन्होने भी वही किया जो मैने किया। जब उन्हे पुस्तकालय मे कुछ नही मिला तो उन्होने किसानो की बात को अनसुना करने को कह दिया। कुछ ने तो उन्हे अन्ध-विश्वासी भी कहा कि वे जो मन मे आया, कह देते है। पर किसानो के साथ उठने बैठने और बचपन से ही घर मे खेती-किसानी देखते-देखते मै हकीकत से वाकिफ था। मैने किसी जानवर को बेशरम के फूल खाते हुये देखा नही था। शायद वे अनुभव से जानते थे। अब किसी किसान को जबरदस्ती अपने जानवर को इसे खिलाने तो नही कह सकता था। कुछ उल्टा-पुल्टा हो गया तो पैसे कौन भरता? बडे ही असमंजस की स्थिति थी।

कृषि की शिक्षा मै एग्रोनामी (सस्य विज्ञान) विषय मे ले रहा था पर मेरे शोध-पत्र कीटो पर छप रहे थे। कीटो के लिये कीट शास्त्र (एंटोमोलाजी) पढना चाहिये था। विभागो की आपसी तकरार तो जग-जाहिर है। कीट शास्त्र के लोग मेरी इस अटपटी अकादमिक उपलब्धि से हैरान भी थे और नाराज भी। ब्लूमिया लीफ बीटल अर्थात ब्लूमिया नामक खरप्तवार को खाने वाले कीट पर मैने शोध किया। यह शोध-पत्र छप भी गया। पता चला कि दुनिया मे पहली बार इस पर ऐसे शोध-पत्र का प्रकाशन हुआ है तो आग और भडक गयी। कल का छोकरा और शोध-पत्र छपवाता है। इस तरह कीट शास्त्र विभाग मे आना-जाना बन्द करवा दिया गया। यह मेरे लिये अच्छा ही हुआ। इससे मै अपने घर मे छोटी सी प्रयोगशाला खोलने मे सफल रहा। इसी प्रयोगशाला मे मैने पालीथीन को खाने वाले कीट की खोज की और पूर्ण सूर्य ग्रहण के कीटो पर पडने वाले प्रभावो को देखा। यदि यह कीट शास्त्र विभाग मे होता तो गुरुजन ही सारा श्रेय ले जाते। घर मे प्रयोगशाला आरम्भ करने पर परिवारजनो की ओर से कोई बाधा पैदा नही की गयी। एक लडका रख लिया जो सुबह कीटो को खाना खिला देता था। बहुत से कीडे रात को सक्रिय होते थे। उनके लिये मुझे कई बार देर रात तक जागना पडता था। सुबह लडके के साथ आस-पास चले जाते थे और जो भी कीडा मिलता पकड लाते थे। कीडे की पहचान करना मुश्किल होता था। कीट शास्त्र विभाग के अलावा और कही नही जाया जा सकता था। पर मैने पुस्तकालय की शरण लेना ठीक समझा।

एक सुबह हम बेशरम के पौधे के पास पहुँचे। हमे बडे-बडे कीडे दिखाई दिये। बडे सुन्दर थे। ऐसा लगता था कि नरम प्लास्टिक से बने हो। जब हम उन्हे प्लास्टिक के डब्बो मे रखने लगे तो कीडो से निकला कुछ तरल त्वचा पर लगा। त्वचा जल गयी। हम घबरा गये। जल्दी-जल्दी कीडो को अन्दर किया और भाग चले डाक्टर के पास। वापस लौटकर सोचा कि कीडो को छोड दिया जाये पर फिर यह भी लगा कि इसे जानने के बाद छोडा जाये। बेशरम के फूलो पर से इन्हे एकत्र किया था। मैने प्रयोगशाला मे इन्हे बेशरम के सभी भाग खिलाये पर उन्होने फूल को ही खाया। फिर जासौन से लेकर गुलाब तक दसो किस्म के फूलो को खिलाया तो उन्होने कुछ फूलो को चाव से खाया और शेष को देखा तक नही। इस फूल प्रेमी जहरीले कीडे की पहचान ब्लिस्टर बीटल के रुप मे हुयी। हमने जिस कीडे को पकडा था उसका वैज्ञानिक नाम जोनाब्रिस पस्चुलेटा था। जब इंटरनेट को खंगाला तो इसके बारे मे ढेरो जानकारी मिली। इंटरनेट को उन दिनो ज्यादा नही खंगाला जा सकता था क्योकि एक घंटे के सौ रुपये लगते थे। और फिर कनेक्शन चले जाने पर एक बार डायल करने के दो रुपये लिये जाते थे। बहरहाल, विदेशो मे किये गये शोधो से पता चला है कि ये कीडे न केवल जहर छोडते है बल्कि खुद भी जहरीले होते है। ऐसे कुछ कीडो को चारे के साथ गल्ती से खा लेने से व्यस्क घोडे की कुछ समय मे ही मौत हो जाती है। अब जाकर मुझे समझ आया कि क्यो किसानो के पशु बेशरम के फूलो को खाने से मर रहे थे। दरअसल यह दोष बेशरम का नही था बल्कि उस पर डेरा जमाये बैठे रहने वाले इन कीडो का था। मैने इस पर हिन्दी और अंग्रेजी मे काफी लिखा। एक बार फिर यह सिद्ध हो गया कि किसानो की बाते गलत नही होती है। भले ही वे कारण नही बता पाये पर मिथ्या से वे कोसो दूर होते है।

आप बडी देर से बेशरम शब्द सुन रहे है। आपमे से बहुत से लोग इस नाम से परिचित होंगे। आइपोमिया कार्निया नामक यह वनस्पति विदेश से भारत लायी गयी हरी खाद के रुप मे प्रयोग के लिये। जब भारत मे इसे आजमाया गया तो यह असफल रही। किसानो ने इसे खेतो से बाहर फेक दिया। बस फिर क्या था, इसे जहाँ जगह मिली वही पसर गयी। लोगो ने इसके रवैये को देखकर इसका नाम ही बेशरम रख दिया। कही-कही इसे बेहया भी कहा जाता है। लोगो ने इसका और कोई उपयोग नही किया और जानवरो ने खाया नही। विदेश से अकेले आयी थी। अपने प्राकृतिक दुश्मनो को साथ नही लायी थी इसलिये मजे से उगती रही और पूरे देश मे फैल गयी। बेकार जमीन से सरकारे कचरा नही साफ करती इसलिये भी इस पर किसी ने ध्यान नही दिया। मै इसके उपयोग के लिये इस पर नजर गडाये रहा। मेरा मानना था कि यदि इसके सरल उपयोग विकसित हो जाये तो अपने आप लोग इसे समाप्त कर देंगे। देश भर मे घूमकर इसके बारे मे जानने की कोशिश की। यह कोशिश रंग लायी और इसके ढेरो उपयोगो के बारे मे जानकारी मिल गयी। इस लेखमाला मे इस पर विस्तार से चर्चा करुंगा और इस विदेशी वनस्पति से जुडे नाना प्रकार के अन्ध-विश्वासो की पोल खोलने की कोशिश करुंगा।

आमतौर पर बेशरम पर कीडे नही दिखते। कारण मैने पहले बताया है। लम्बे समय तक भारत मे रहने के कारण जिस तरह से मनुष्यो ने इसके उपयोग खोज लिये इसी तरह देशी कीडो ने भी इसे चखना आरम्भ कर दिया। किसी वनस्पति पर कीडे का प्रकोप हर समय बुरा नही होता। बेशरम पर कीडे का मतलब बेशरम के दुश्मन का प्रकोप और दुश्मन का दुश्मन तो दोस्त होता है। इसी तर्ज पर कीडो की सहायता से हानिकारक वनस्पतियो को नियंत्रित करने का प्रयास मानव करता रहा है। ब्लिस्टर बीटल को बेशरम पर देखने के बाद कुछ उम्मीद बन्धी थी पर यह फूलो को खाता है, यह जानकर निराशा हुयी। बेशरम के पौधे बीजो से नही बढते है। इसलिये फूलो को नुकसान होने से भी उनपर कोई बुरा प्रभाव नही पडता और वानस्पतिक प्रवर्धन द्वारा उनका फैलाव होता रहता है।

यह “बेशरम-पुराण” जारी रहेगा। (क्रमश:)


(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)

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