अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -87

अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -87 - पंकज अवधिया

जंगल से दूर एक सितारा होटल मे वातानूकुलित सभागार मे जंगल की बाते हो रही थी। देश के बडे-बडे वन विशेषज्ञ मिनरल वाटर पीते हुये गम्भीर विषयो पर चर्चा कर रहे थे। राष्ट्रीय अभ्यारण्यो की तारीफो के पुल बाँधे जा रहे थे। कान्हा के बारे मे एक विशेषज्ञ ने कहा कि वहाँ सब कुछ बढिया है। सैकडो पर्यटक आ रहे है। अच्छी आमदनी हो रही है फिर भी वन्य प्राणियो पर इसका कोई असर नही हो रहा है। कोई हमसे पूछे कैसे मनुष्य़ और जानवर एक साथ मजे से रह सकते है? देश के सारे जंगलो को अभ्यारण्य बना देना चाहिये। और भी बडी-बडी बाते। उस दिन की सभा समाप्त हुयी। दो दिनो तक अभी और जंगलो पर चर्चा होनी थी। चर्चा मे बहुत से ऐसे लोग थे जो उन महाश्य से सहमत नही थे। अब सीधे बोलने पर तो वे सुनने से रहे इसलिये सबने कुछ और उपाय खोजना ठीक समझा।

वे वन्य विशेषज्ञ मेरे ही कमरे मे ठहरे थे। मैने हवा के लिये खिडकी खोल दी। यह खिडकी गलियारे की ओर थी। विशेषज्ञ महाश्य कुछ किताबे लेकर बैठ गये। अचानक कुछ लोग आये और खिडकी से उन्हे निहारने लगे। फिर थोडी देर बाद बिना बोले चले गये। फिर क्या था एक-एक, दो-दो करके और लोग आये उन्होने भी ऐसा ही किया। वे बस एकटक कौतुहल से विशेषज्ञ महाश्य को देखते बस थे। विशेषज्ञ महाश्य असमंजस मे थे कि आखिर माजरा क्या है? रात को चैन रहा पर सुबह से फिर वही दौर शुरु हो गया। उनसे रहा नही गया तो मुझसे उन्होने खिडकी बन्द करने को कहा। मैने कहा कि लोगो को देखने दे, आप अपना काम करे। इसमे क्या दिक्कत है? वे मान गये पर शाम तक उनका सब्र टूट गया। बोले इस सब के कारण दिन भर मन उचटा-उचटा रहा। ठीक से कोई काम नही हो पाया। उनकी बात सुनकर मैने सभी को कमरे मे बुला लिया। फिर नम्र स्वर मे विशेषज्ञ महाश्य से कहा कि जब आपकी हालत एक दिन मे ऐसी हो गयी वो भी सिर्फ आपको देखने से तो सोचिये कान्हा के वन्य प्राणियो की क्या हालत हो रही होगी बरसो से। रोज दिन मे कई बार उन्हे देखा जाता है। कोई कुछ करता नही। सिर्फ देखता है। बाघ की हालत तो सबसे खतरनाक है। यदि वह एक दिन लोगो की नजरो से दूर रहना चाहे तो आप हाथियो के माध्यम से उसे घेर लेते हो। उसकी प्राइवेसी की चिंता नही करते। यहाँ तक कि जब वह अपनी प्रेमिका से साथ एकांत का आनन्द ले रहा होता है तो वाइल्ड लाइफ फोटोग्राफर जिनमे से अधिक्तर विदेशी ही होते है, कैमरा तान लेते है। आप देखने से इतने परेशान है वहाँ तो फ्लैश चमक रहे है। गाडियो का शोर है। प्रदूषण है। खुले मे घूमने वाले वन्य प्राणियो को अभ्यारण्य के नाम पर घेरे मे बन्द कर दिया और फिर जब चाहे तब उन्हे देखते रहते है। यह कैसा संरक्षण है? विशेषज्ञ महाश्य को काटो तो खून नही। वे शायद सब कुछ समझ गये थे। सुबह हमे धन्यवाद दिया और कहा कि उन्होने जानवरो के दृष्टिकोण से कभी नही देखा। वे अपने व्याख्यान मे भी इस पर बोले और एक बार फिर हमे धन्यवाद दिया। उनका अन्ध-विश्वास अब खत्म होता दिख रहा था।

मध्यप्रदेश के कान्हा वन्य अभ्यारण्य मे बहुत बार जाना चाहा पर मन तैयार नही हुआ। पहले ही वहाँ बहुत भीड थी। कुछ साल पहले अभ्यारण्य़ के आस-पास काम करने वाले एक गैर-सरकारी संगठन के पदाधिकारी ने मुझे बताया कि सीजन मे गाडियो की डेढ-दो किमी लम्बी कतार लगती है। पर्यटको का जबरदस्त दबाव है। सभी को बाघ देखना है। विदेशी मेहमान खाली नही लौटाये जाते है। मैने उनसे कहा कि कान्हा की हालत देखते हुये उसे कम से कम पाँच सालो के लिये बन्द कर दिना चाहिये। ताकि वन्य प्राणियो को वास्तविक जंगल अर्थात मानवीय गतिविधियो से मुक्त वातावरण मे साँस लेने का मौका मिल सके। साल के कुछ महिनो मे इस अभ्यारण्य को बन्द कर औपचारिकता पूरी कर दी जाती है। पर्यटको के बढते दबाव को देखकर लम्बे समय तक इसे बन्द रखना और जंगल को पनपने देना निहायत जरुरी है।

कुछ वर्षो पहले मै कान्हा क्षेत्र के कुछ वनवासियो से इस विषय पर चर्चा कर रहा था। वे भी पर्यटको के इस दबाव से चिंतित दिखे। चर्चा मे इस बात पर सहमति हुयी कि चुनिन्दा लोगो को बार-बार आने की अनुमति देने की बजाय नये लोगो को मौका दिया जाना चाहिये। कान्हा मे नियम कडे है पर फिर भी पर्यटको को भला कौन रोक सकता है? चर्चा मे यह भी बताया गया कि केवल बाघ की बजाय दूसरे वन्य जीवो के महत्व पर भी जोर दिया जाना चाहिये ताकि बाघ और दूसरे मांसाहारी प्राणियो पर दबाव कम हो। मध्यप्रदेश मे बान्धवगढ अभ्यारण्य के आस-पास कुछ वनस्पति विशेषज्ञ मित्र है। वे भी पर्यटको की अनियंत्रित भीड से परेशान है। उन्होने बताया कि वाहनो की लम्बी कतार से जानवरो के स्वभाव मे मूलभूत परिवर्तन आ रहे है। पता नही क्यो शोधकर्ता इस पर काम नही करते? यदि इस पर शोध हो तो योजनाकर्ताओ पर दबाव बनाने मे सहायता मिलेगी। तेज रफ्तार गाडियो से सबसे ज्यादा नुकसान चिडिय़ो को हुआ है। न केवल इनसे टकराकर वे मर रही है बल्कि तेज हार्न और प्रकाश से अपना घर छोडकर भाग भी रही है। उल्लूओ की आबादी मे तेजी से कमी आयी है। पर्यटको की गाडियाँ अवाँछित वनस्पतियो के बीजो को फैलाने मे मदद कर रही है। गाजर घास जैसे हानिकारक खरप्तवार क्षेत्र मे बढते जा रहे है जो जैव-विविधता के लिये अभिशाप है। आपने पहले पढा है कि कैसे छत्तीसगढ मे मैकल पर्वत पर बने टूरिस्ट रिसोर्ट मे आने वाले विदेशी पर्यटक दुर्लभ वनस्पतियो की तलाश मे शिखर तक जाते है तो उनके सामानो के साथ गाजर घास के बीज भी शिखर तक पहुँच जाते है। पर्यटक तो लौट आते है पर बीज वही रह जाते है और फिर दुर्लभ वनस्पतियो के लिये अभिशाप बन जाते है। पेंच टाइगर रिजर्व मे भी कमोबेश यही स्थिति है। मैने अपनी यात्रा के दौरान पेंच नदी के किनारे गाजर घास की घनी आबादी देखी थी। यह बहुत पुरानी बात है। मैने इस पर एक चेतावनी भरा लेख भी लिखा था। पर अब लोग बताते है कि यह विदेशी खरप्तवार अभ्यारण्य के लिये सिरदर्द बन चुका है। पता नही हर दिन कितने जंगली जानवरो के स्वास्थ्य को नुकसान पहुँचा रहा होगा यह खरप्तवार।

वन्य विशेषज्ञो ने अपना एक गुट बना रखा है-ऐसा लगता है। वे अपनी कहते है और अपनी ही सुनते है। वन-प्रबन्धन का ज्यादातर तरीका अंग्रेजो से उधार लिया गया है। अंग्रेज इस देश को पराया देश समझ कर काम करते थे। उन्हे जंगलो के चुक जाने की कोई चिंता नही थी। अब जब भारतीय विशेषज्ञ उसी डगर पर अब भी चल रहे है तो जंगलो का हाल समझा जा सकता है। वन-प्रबन्धन मे स्थानीय लोगो की भूमिका पर कहा तो बहुत कुछ जाता है पर उनसे सीखने की जगह उन्हे सीखाने पर ज्यादा जोर रहता है।

कोटमसर की प्रसिद्ध गुफा हो या पातालकोट जहाँ भी आधुनिक मानव के कदम पडे बरबादी के भी कदम पडे। वन अभ्यारण्यो के खस्ता हाल और वन्य विशेषज्ञो के अन्ध-विश्वास ने इस लेख को लिखने के लिये प्रेरित किया। मैने सब कुछ लिख तो दिया है। अब देखते है कि बात कहाँ तक जाती है? (क्रमश:)


(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)

© सर्वाधिकार सुरक्षित

Comments

Udan Tashtari said…
खिड़की खोलकर आपने विशेषज्ञ महोदय की आँखें खोल दी..रोचक आलेख. जारी रहिये.
आप के न चाहते हुए भी किसी और के द्वारा देखा जाना भी एक तरह की हिंसा है। जिस का ये वन्य पशु लगातार शिकार होते रहे हैं। यह उन के साथ बहुत ज्यादती है।
पर यह कैसे पता लगे कि वे कब देखा जाना पसंद करते हैं।
पर्यटन के नाम पर हमारे देश में आम तौर पर पर्यावरण का सत्यानाश ही हो रहा है.

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