नागलोक, माँ के रुप मे बरहा और कन्द के लिये वन्यजीवो मे मारामारी

मेरी जंगल डायरी से कुछ पन्ने-37
- पंकज अवधिया

नागलोक, माँ के रुप मे बरहा और कन्द के लिये वन्यजीवो मे मारामारी

गर्मी की रात थी। चार-पाँच साल का एक बालक अपने माँ-बाप के साथ घर के बाहर सो रहा था। एक ओर माँ और दूसरी ओर पिता। बीच वाली खाट मे बालक था। तभी एक पंजा आकर बालक की गर्दन मे घँस गया। यह पंजा था तेन्दुए का जो अभी-अभी दीवार फाँद कर आया था। दो और तेन्दुए दीवार के उस पार थे। तेन्दुए ने बालक को घुमाकर अपने पीठ पर लादना चाहा पर विफल रहा। इस प्रक्रिया मे उसकी पकड ढीली हो गयी और बालक पंजे से छूटकर जमीन मे गिर गया। उसे होश आया और वह खडे होकर रोने लगा। उसके माँ-बाप हडबडाकर उठे। अन्धेरे मे उन्हे दो चमकती आँखे दिखायी दी। उन्होने शोर मचाया और उस ओर दौडे। पलक झपकते ही तेन्दुआ दीवार फाँदकर नजरो से ओझल हो गया।

आपने पिछले लेख मे अच्छे और बुरे भालुओ के विषय मे जाना। यह घटना उसी क्षेत्र की है। इस क्षेत्र मे भालुओ का एकछत्र राज्य है। स्थानीय लोग इस बात को जानते थे इसलिये वे आराम से घर के बाहर सो रहे थे। उन्हे तेन्दुए के वहाँ होने का आभास ही नही था। पिछले कुछ दिनो से उनके कुछ मवेशी अवश्य मारे गये थे। आक्रोशित ग्रामीणो ने खोज-खबर ली तो उन्हे पता चला कि जंगल विभाग ने बिना किसी सूचना के दूसरे स्थानो से पकडकर लाये गये तीन तेन्दुओ को इस क्षेत्र मे छोड दिया था। वह बालक सौभाग्यशाली था पर जंगल विभाग की इस लापरवाही से हजारो ग्रामीणो की जान खतरे मे पडी हुयी थी। स्थानीय लोगो ने आँखो मे आक्रोश लिये मुझे इस घटना के विषय मे बताया।

बालक पर हमला करने वाले तेन्दुए को खुला छोडना खतरे से खाली नही था। चरवाहो ने उसका पीछा किया और महुए की ऊँची शाखा मे उसे बैठे देख लिया। उस पर पत्थरो की बौछार करके उसे लहूलुहान कर दिया गया। बाद मे जंगल विभाग वाले उसे फिर से पकडकर ले गये।

देश के बडे शहरो मे बैठे आम लोग दुनिया भर की समस्याओ पर ध्यान लगाये हुये। मनुष्यो और वन्य जीवो के बीच बढते संघर्ष की ओर किसी का ध्यान नही है। सनसनीखेज न होने के कारण मीडिया इस समस्या और सम्भावित समाधानो पर चर्चा नही कर रहा है। पल हर पल स्थिति खतरनाक हो रही है। मनुष्य़ और वन्यजीव दोनो ही इस धरती मे पीढीयो से रहते आये है। उन्हे आगे भी साथ रहना होगा। पर कैसे? यह प्रश्न यक्ष प्रश्न की तरह हमारे सामने है। इस पर व्यापक राष्ट्रीय बहस की जरुरत मुझे लगती है ताकि स्थायी समाधान पर पूरे देश मे कार्य हो सके। Human-wildlife conflict एक तकनीकी विषय़ बिल्कुल नही है। यह वन वैज्ञानिको और योजनाकारो की बपौती भी नही है। यह आम लोगो से जुडी समस्या है इसलिये समाधान की पहल भी जमीनी स्तर से होनी चाहिये। उच्च स्तर से जो समाधान सामने आ रहे है वे जमीनी सच्चाई से कोसो दूर है। छत्तीसगढ के नागलोक का ही उदाहरण ले।

आज राजधानी मे नागलोक के विषय मे खबर प्रकाशित हुयी है। तलहटी वाले इस भाग मे हर साल पहली वर्षा के बाद साँप निकलते है और आम लोग इनके शिकार हो जाते है। बडी संख्या मे हर वर्ष मौते होती है। हर साल देशी-विदेशी अखबार इन्ही दिनो इस विषय मे एक खबर प्रकाशित कर साल भर इस महत्वपूर्ण विषय को भूल जाते है जबकि साँप से मौते साल भर होती रहती है। आज प्रकाशित खबर मे साँपो पर नियंत्रण के लिये नेवले और मोर को बडी संख्या मे छोडने की राय तथाकथित जानकारो ने दी है। यह उपाय सुनने मे तो अच्छा लगता है पर क्या नेवले केवल साँप को ही मारेंगे जब उन्हे बडी मात्रा मे छोडा जायेगा? कही ऐसा उदाहरण मिलता है? मोर छोडे जा सकते है पर उन पर लालची आँखे गडाये पंख के व्यापारियो से उन्हे कौन बचायेगा? माँस के लिये लार टपकाते स्थानीय शिकारियो से कौन उनकी रक्षा करेगा? रही-सही कसर किसान पूरी करेंगे। मोर उनकी फसलो से कीडे खाने आयेंगे और फिर कीटनाशकयुक्त कीडो को खाकर बडी संख्या मे मारे जायेंगे। ऐसे दुखद समाचार मोर के सन्दर्भ मे देश भर से आते रहते है। ऐसे मे नेवले और मोर को छोडने से भला क्या होगा?

मुझे याद आता है कि कुछ समय पहले जब मै इस क्षेत्र मे गया था तो स्थानीय लोग किसी भय से ग्रसित नही लगे। वे पीढीयो से साँपो के साथ रह रहे है। पहले जब जंगल घने थे तो यह समस्या ज्यादा विकट थी। इस समस्या के साथ रहते हुये स्थानीय लोगो ने इसके स्थानीय समाधान भी खोज लिये थे। उनके कुछ नियम है जिनका पालनकर वे साँप से बचा जा सकता है। लापरवाही की बडी कीमत उन्हे चुकानी पडती है। शहर के लोग जब इस क्षेत्र मे आते है तो वे समस्या को अपनी नजर से देखते है। इनमे से ज्यादातर वे लोग होते है जो घर मे एक पतले से साँप को देखकर तुरंत बेरहमी से उसे मार देते है। ऐसे लोगो के लिये नागलोक की समस्या भयावह समस्या लगती है।

चलिये अब जंगल यात्रा की ओर लौटे। इस जगल यात्रा के दौरान मै उन क्षेत्रो मे गया जहाँ किसान पीढीयो से जंगली सूअर यानि बरहा से अपनी फसलो को बचाने की जद्दोजहद कर रहे है। इन किसानो ने केक्टस नुमा वनस्पतियो से अपने खेतो को घेरकर रखा है। किसान बरहा से इस घेरे को सुरक्षित बताते है साल के ज्यादातर समय पर जब मादा बरहा बच्चे देती है तो उन्हे भोजन दिलाने के लिये बहुत से दुस्साहसिक कदम उठाती है। मादा बरहा इन कंटीली वनस्पतियो पर टूट पडती है और अपने चोटो की परवाह नही करते हुये इनके बीच अपना रास्ता बना लेती है। पीछे खडे बच्चे और दल के दूसरे सदस्य खेत के अन्दर प्रवेश कर जाते है और किसान देखते रह जाते है। ऐसे समय मे किसानो को अतिरिक्त मेहनत करनी होती है। साथ ही टूटी हुयी वानस्पतिक बाड को फिर से ठीक करना होता है। यह महत्वपूर्ण जानकारी उन क्षेत्रो के किसानो के लिये उपयोगी साबित होगी जहाँ बरहा नये-नये आये है।

जंगल यात्रा के दौरान लोगो ने बताया कि बरहा और भालुओ ने अपने बीच समझौते कर रखे है। जंगल मे जाने वाले लोग बताते है कि कभी-कभार इनकी मुठभेड हो जाती है पर हमेशा भालू भारी पडते है। बरहा के नुकीले दाँतो से भालू जख्मी हो जाते है इसलिये संघर्ष को टालते हुये वे उनसे भिडना पसन्द नही करते है। क्षेत्र के पारम्परिक चिकित्सक बताते है कि उन्होने कई बार विशेष कन्दो के लिये भालुओ और बरहा मे जबरदस्त संघर्ष देखा है विशेषकर उन सालो मे जब सूखा पडता है। इन कन्दो के लिये मारामारी की जाती है। दोनो ही वन्य जीव क्षेत्र विशेष मे आकर वनस्पति के उगने की प्रतीक्षा करते है। कई बार दोनो को मन-मसोस कर रह जाना होता है क्योकि मनुष्य़ इन कन्दो को ले जाते है। इन कन्दो का अपना बाजार है और सूखे के सालो मे इनकी माँग मे जबरदस्त बढोतरी हो जाती है।

वन्यजीवो और उनसे जुडी समस्याओ के विषय मे हिन्दी मे ज्यादा कुछ नही लिखा गया है। वन्यजीवो और मनुष्यो के खूनी संघर्ष की खबरे छप तो रही है पर मूल कारणो की ओर किसी का ध्यान नही है। मै हमेशा लिखता हूँ कि यह मेरा जीवन वनस्पतियो के लिये समर्पित है और यदि मै शेष जीवन लगातार बिना रुके सिर्फ लिखता रहूँ तब भी पूरी जानकारियो को नही लिख पाऊँगा। ऐसे मे वन्य जीवो पर इतने विस्तार से लिखना मन मे हलचल पैदा कर देता है। मै उलझन मे पड जाता हूँ। आशा है नयी पीढी से कोई सामने आकर इस विषय को आगे बढायेगा ताकि मै पूरी तरह वनस्पतियो पर अपना ध्यान केन्द्रित कर सकूँ। (क्रमश:)

(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)

© सर्वाधिकार सुरक्षित

Comments

Gyan Darpan said…
यहाँ राष्ट्रिय राजधानी क्षेत्र में भी वन्य जीवों व इन्सान के बीच संघर्ष जारी है दिल्ली से बन्दर पकड़ कर सरकार फरीदाबाद के पहाड़ी क्षेत्र में छोड़ देती है जहाँ ग्रामीणों व बंदरों का संघर्ष चलता रहता है फरीदाबाद शहर में भी बन्दर खुले आम घूमते है और छतो पर बच्चों व बड़ों को अक्सर घायल कर देते है |

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