मानव लिंग की तरह दिखने वाले नशीले और जहरीले कुकुरमुत्ते की तांत्रिक और औषधीय महिमा
मेरी जंगल डायरी से कुछ पन्ने-44
- पंकज अवधिया
मानव लिंग की तरह दिखने वाले नशीले और जहरीले कुकुरमुत्ते की तांत्रिक और औषधीय महिमा
इस बार मानसून मे देरी के कारण सूखे जंगलो मे जाने का मन नही कर रहा था। मधुमेह की रपट से तंग आकर मैने जंगल यात्रा का मन बनाया। सुबह साढे पाँच बजे सोने के बाद तीन घंटो मे ही उठ गया और जंगल की राह पकड ली। आज सुबह से हल्की वर्षा हो रही थी। काफी दूरी चलने के बाद कुकुरमुत्तो को देखकर मैने गाडी रोकी और फिर दल-बल सहित जंगल मे घुस गया। लगता था कि रात को भी बारिश हुयी थी। मिट्टी घँस रही थी पर जंगल मे चलना मुश्किल नही था। कुछ दूर चलने के बाद हमे इतने सारे कुकुरमुत्ते मिले कि दिल खुश हो गया। मैने कैमरा निकाला और हल्की बारिश के बीच तस्वीरे लेना आरम्भ किया।
साथ चल रहे पारम्परिक चिकित्सको ने बताया कि जितने भी खाने योग्य कुकुरमुत्ते थे, वे सब एकत्र कर लिये गये है। अब तक तो आस-पास के लोग उनकी सब्जी बनाकर चट भी कर गये होंगे। अब जो कुकुरमुत्ते हमे दिखायी दे रहे थे वे आम लोगो के किसी काम के नही थे। पर पारम्परिक चिकित्सको के लिये ये बडे काम के थे। वे ध्यान से जाँच-परख कर रहे थे और फिर पूरी तरह आश्वस्त होने के बाद बडे ही जतन से अपने थैले मे रख रहे थे। मैने इस लेखमाला मे पहले लिखा है कि कुकुरमुत्ते की तस्वीरे ऊपर से लेने से काम नही चलता है। सभी ओर से इनकी तस्वीरे लेनी पडती है ताकि हजारो मील दूर बैठे मशरुम विशेषज्ञ जब इन तस्वीरो को देखे तो इनकी सही पहचान कर पाये। केवल छतरी की ऊपरी तस्वीरे लेकर मैने पहले बहुत गल्तियाँ की है। इस जंगल यात्रा के दौरान मुझे पारम्परिक चिकित्सको ने जहरीले और उपयोगी कुकुरमुत्तो की पहचान सीखायी। मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि वैज्ञानिको के विपरीत वे केवल छतरी का मुआयना करके ही सही पहचान कर रहे थे।
डायबीटीज के इलाज मे कुकुरमुत्ते का सीधा प्रयोग कम ही किया जाता है। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि हमारे देश मे कुकुरमुत्तो के विष्य़ मे समृद्ध पारम्परिक ज्ञान है। मैने अपनी मधुमेह की लम्बी-चौडी रपट मे इस पारम्परिक ज्ञान के विषय मे विस्तार से लिखा है। पारम्परिक चिकित्सक साल के तीन महिने तक केवल कुकुरमुत्तो और इनसे तैयार व्यंजनो पर मधुमेह रोगी को आश्रित रहने को कहते है। मधुमेह की जटिल अवस्था मे तो अन्य औषधीयो के साथ साल भर कुकुरमुत्तो पर आधारित मिश्रण दिये जाते है। पारम्परिक चिकित्सक बरसात मे एकत्र किये गये कुकुरमुत्तो को साल भर सुरक्षित रखते है। कुकुरमुत्तो का प्रयोग पारम्परिक चिकित्सक अपनी निगरानी मे करते है। आप रपट के कुछ अंशो को इस कडी के माध्यम से देख सकते है।
कुकुरमुत्तो के बीच घूमते हुये अचानक मेरी नजर कुछ ऐसे कुकुरमुत्तो पर पडी जो कि हू-बहू मानव लिंग की तरह दिख रहे थे। एक बार तो मुझे विश्वास ही नही हुआ। ध्यान से देखा तो लगा मानो दसो छोटे-बडे मानव लिंग जंगल की धरती पर बिखरे पडे है। मैने उन्हे छूने के लिये जैसे ही हाथ बढाया पारम्परिक चिकित्सको ने रोक दिया। ये जहरीले थे। उन्होने पास से तेन्दु और पलाश की पत्तियाँ तोडी और फिर उनकी सहायता से इन्हे जमीन से अलग किया। मेरा कैमरा तो जैसे रुकने को तैयार नही था। तस्वीरे ही लिये जा रहा था। यह दुर्लभ था। इसलिये नही कि मैने इसे पहली बार देखा था बल्कि पारम्परिक चिकित्सको ने भी इसे सालो बाद देखा था। वे अपने दिन को शुभ मान रहे थे। सम्भवत: जिस वर्ष देर से वर्षा होती है उस वर्ष ये उगते हो।
मुझे बताया गया कि यह कुकुरमुत्ता बहुत अधिक नशा करता है। होशो-हवास उडा देता है। बहुत सूक्षम मात्रा मे तांत्रिक अपनी तंत्र क्रिया के प्रदर्शन से थोडा पहले इसे खा लेते है। उनकी आँखे लाल हो जाती है। वे अंट-शंट बकने लगते है। भाव-भंगिमाए बनाने लगते है। दूसरे लोको की बात करने लगते है। तांत्रिक की यह स्थिति दर्शको को आतंकित कर देती है। उन्हे साधारण से जादू पर भी विश्वास होने लगता है। तांत्रिक इस नशे की काट भी जानते है। हालत बिगडने पर झट से काट का सेवन कर लिया जाता है। यह सब इतना आसान नही है। सही मायने मे तांत्रिक अपनी जान से खेलता है। जरा सी भी मात्रा अधिक नही हुयी कि उसकी तत्काल मौत हो सकती है। यही कारण है कि नयी पीढी के तांत्रिक इस तरह का जोखिम नही उठाते है।
पारम्परिक चिकित्सक दवा के रुप मे इसका प्रयोग करते है। वे कहते है कि याददाश्त खो चुके रोगियो पर इसका सकारात्मक प्रभाव पडता है। किसी गहरे सदमे से रोगी जब खाना-पीना छोड देता है और धीरे-धीरे मौत की ओर बढता जाता है तब भी इसका प्रयोग किया जाता है। रोगी यदि इसे खाना नही चाहे तो दूसरी वनस्पतियो के साथ इसका लेप तलवो पर लगाया जाता है। यह प्रक्रिया तब तक दोहरायी जाती है जब तक रोगी प्रतिक्रिया नही देने लगता है। साथ चल रहे पारम्परिक चिकित्सक सिर खुजाकर कहते है कि मानव लिंग की तरह दिखने वाले इस कुकुरमुत्ते का प्रयोग लिंग से सम्बन्धित रोगो की चिकित्सा मे भी होना चाहिये। मानव अंगो की आकृतियो वाले पौध भागो के इस तरह के प्रयोग पीढीयो से होते आये है। पर इन्हे कैसे प्रयोग किया जाये, ये उन्हे नही मालूम है। जहरीला होने के कारण वे किसी पर इसका प्रयोग भी नही करना चाहते है।
जंगल से वापस लौटने के बाद जब मैने अपने डेटाबेस को खंगाला तो मुझे 1994 मे सरगुजा के पारम्परिक चिकित्सको की बात याद आयी। वे इस तरह के कुकुरमुत्ते के विषय मे बताया करते थे। मैने उन्हे देखा नही था पर फिर भी उस बारे मे विस्तार से जानकारी एकत्र करके डेटाबेस मे डाल दी थी। सरगुजा के पारम्परिक चिकित्सक इस प्रजाति का प्रयोग कामशक्तिवर्धक के रुप मे करते थे। वनस्पतियो क्रे साथ इसका प्रयोग होता था।
पारम्परिक चिकित्सक जंगल मे कुकुरमुत्तो की भूमिका को जानते है। उन्हे इस बात का अहसास है कि जंगल की सफाई मे उनकी अहम भूमिका है। यही कारण है कि उन्होने थोडी मात्रा मे ही कुकुरमुत्तो को एकत्र किया। बारिश होते ही नाना प्रकार के कुकुरमुत्ते निकल जायेंगे। तब एक बार फिर जंगल की यात्रा करनी होगी। पारम्परिक चिकित्सको ने अगली बार जंगल के भीतर तक कीचड से होते हुये जाने की तैयारी कर आने को कहा है। मुझे उम्मीद है कि अगली जंगल यात्रा मे नयी प्रजातियाँ मिल सकेंगी। (क्रमश:)
(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)
© सर्वाधिकार सुरक्षित
- पंकज अवधिया
मानव लिंग की तरह दिखने वाले नशीले और जहरीले कुकुरमुत्ते की तांत्रिक और औषधीय महिमा
इस बार मानसून मे देरी के कारण सूखे जंगलो मे जाने का मन नही कर रहा था। मधुमेह की रपट से तंग आकर मैने जंगल यात्रा का मन बनाया। सुबह साढे पाँच बजे सोने के बाद तीन घंटो मे ही उठ गया और जंगल की राह पकड ली। आज सुबह से हल्की वर्षा हो रही थी। काफी दूरी चलने के बाद कुकुरमुत्तो को देखकर मैने गाडी रोकी और फिर दल-बल सहित जंगल मे घुस गया। लगता था कि रात को भी बारिश हुयी थी। मिट्टी घँस रही थी पर जंगल मे चलना मुश्किल नही था। कुछ दूर चलने के बाद हमे इतने सारे कुकुरमुत्ते मिले कि दिल खुश हो गया। मैने कैमरा निकाला और हल्की बारिश के बीच तस्वीरे लेना आरम्भ किया।
साथ चल रहे पारम्परिक चिकित्सको ने बताया कि जितने भी खाने योग्य कुकुरमुत्ते थे, वे सब एकत्र कर लिये गये है। अब तक तो आस-पास के लोग उनकी सब्जी बनाकर चट भी कर गये होंगे। अब जो कुकुरमुत्ते हमे दिखायी दे रहे थे वे आम लोगो के किसी काम के नही थे। पर पारम्परिक चिकित्सको के लिये ये बडे काम के थे। वे ध्यान से जाँच-परख कर रहे थे और फिर पूरी तरह आश्वस्त होने के बाद बडे ही जतन से अपने थैले मे रख रहे थे। मैने इस लेखमाला मे पहले लिखा है कि कुकुरमुत्ते की तस्वीरे ऊपर से लेने से काम नही चलता है। सभी ओर से इनकी तस्वीरे लेनी पडती है ताकि हजारो मील दूर बैठे मशरुम विशेषज्ञ जब इन तस्वीरो को देखे तो इनकी सही पहचान कर पाये। केवल छतरी की ऊपरी तस्वीरे लेकर मैने पहले बहुत गल्तियाँ की है। इस जंगल यात्रा के दौरान मुझे पारम्परिक चिकित्सको ने जहरीले और उपयोगी कुकुरमुत्तो की पहचान सीखायी। मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि वैज्ञानिको के विपरीत वे केवल छतरी का मुआयना करके ही सही पहचान कर रहे थे।
डायबीटीज के इलाज मे कुकुरमुत्ते का सीधा प्रयोग कम ही किया जाता है। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि हमारे देश मे कुकुरमुत्तो के विष्य़ मे समृद्ध पारम्परिक ज्ञान है। मैने अपनी मधुमेह की लम्बी-चौडी रपट मे इस पारम्परिक ज्ञान के विषय मे विस्तार से लिखा है। पारम्परिक चिकित्सक साल के तीन महिने तक केवल कुकुरमुत्तो और इनसे तैयार व्यंजनो पर मधुमेह रोगी को आश्रित रहने को कहते है। मधुमेह की जटिल अवस्था मे तो अन्य औषधीयो के साथ साल भर कुकुरमुत्तो पर आधारित मिश्रण दिये जाते है। पारम्परिक चिकित्सक बरसात मे एकत्र किये गये कुकुरमुत्तो को साल भर सुरक्षित रखते है। कुकुरमुत्तो का प्रयोग पारम्परिक चिकित्सक अपनी निगरानी मे करते है। आप रपट के कुछ अंशो को इस कडी के माध्यम से देख सकते है।
कुकुरमुत्तो के बीच घूमते हुये अचानक मेरी नजर कुछ ऐसे कुकुरमुत्तो पर पडी जो कि हू-बहू मानव लिंग की तरह दिख रहे थे। एक बार तो मुझे विश्वास ही नही हुआ। ध्यान से देखा तो लगा मानो दसो छोटे-बडे मानव लिंग जंगल की धरती पर बिखरे पडे है। मैने उन्हे छूने के लिये जैसे ही हाथ बढाया पारम्परिक चिकित्सको ने रोक दिया। ये जहरीले थे। उन्होने पास से तेन्दु और पलाश की पत्तियाँ तोडी और फिर उनकी सहायता से इन्हे जमीन से अलग किया। मेरा कैमरा तो जैसे रुकने को तैयार नही था। तस्वीरे ही लिये जा रहा था। यह दुर्लभ था। इसलिये नही कि मैने इसे पहली बार देखा था बल्कि पारम्परिक चिकित्सको ने भी इसे सालो बाद देखा था। वे अपने दिन को शुभ मान रहे थे। सम्भवत: जिस वर्ष देर से वर्षा होती है उस वर्ष ये उगते हो।
मुझे बताया गया कि यह कुकुरमुत्ता बहुत अधिक नशा करता है। होशो-हवास उडा देता है। बहुत सूक्षम मात्रा मे तांत्रिक अपनी तंत्र क्रिया के प्रदर्शन से थोडा पहले इसे खा लेते है। उनकी आँखे लाल हो जाती है। वे अंट-शंट बकने लगते है। भाव-भंगिमाए बनाने लगते है। दूसरे लोको की बात करने लगते है। तांत्रिक की यह स्थिति दर्शको को आतंकित कर देती है। उन्हे साधारण से जादू पर भी विश्वास होने लगता है। तांत्रिक इस नशे की काट भी जानते है। हालत बिगडने पर झट से काट का सेवन कर लिया जाता है। यह सब इतना आसान नही है। सही मायने मे तांत्रिक अपनी जान से खेलता है। जरा सी भी मात्रा अधिक नही हुयी कि उसकी तत्काल मौत हो सकती है। यही कारण है कि नयी पीढी के तांत्रिक इस तरह का जोखिम नही उठाते है।
पारम्परिक चिकित्सक दवा के रुप मे इसका प्रयोग करते है। वे कहते है कि याददाश्त खो चुके रोगियो पर इसका सकारात्मक प्रभाव पडता है। किसी गहरे सदमे से रोगी जब खाना-पीना छोड देता है और धीरे-धीरे मौत की ओर बढता जाता है तब भी इसका प्रयोग किया जाता है। रोगी यदि इसे खाना नही चाहे तो दूसरी वनस्पतियो के साथ इसका लेप तलवो पर लगाया जाता है। यह प्रक्रिया तब तक दोहरायी जाती है जब तक रोगी प्रतिक्रिया नही देने लगता है। साथ चल रहे पारम्परिक चिकित्सक सिर खुजाकर कहते है कि मानव लिंग की तरह दिखने वाले इस कुकुरमुत्ते का प्रयोग लिंग से सम्बन्धित रोगो की चिकित्सा मे भी होना चाहिये। मानव अंगो की आकृतियो वाले पौध भागो के इस तरह के प्रयोग पीढीयो से होते आये है। पर इन्हे कैसे प्रयोग किया जाये, ये उन्हे नही मालूम है। जहरीला होने के कारण वे किसी पर इसका प्रयोग भी नही करना चाहते है।
जंगल से वापस लौटने के बाद जब मैने अपने डेटाबेस को खंगाला तो मुझे 1994 मे सरगुजा के पारम्परिक चिकित्सको की बात याद आयी। वे इस तरह के कुकुरमुत्ते के विषय मे बताया करते थे। मैने उन्हे देखा नही था पर फिर भी उस बारे मे विस्तार से जानकारी एकत्र करके डेटाबेस मे डाल दी थी। सरगुजा के पारम्परिक चिकित्सक इस प्रजाति का प्रयोग कामशक्तिवर्धक के रुप मे करते थे। वनस्पतियो क्रे साथ इसका प्रयोग होता था।
पारम्परिक चिकित्सक जंगल मे कुकुरमुत्तो की भूमिका को जानते है। उन्हे इस बात का अहसास है कि जंगल की सफाई मे उनकी अहम भूमिका है। यही कारण है कि उन्होने थोडी मात्रा मे ही कुकुरमुत्तो को एकत्र किया। बारिश होते ही नाना प्रकार के कुकुरमुत्ते निकल जायेंगे। तब एक बार फिर जंगल की यात्रा करनी होगी। पारम्परिक चिकित्सको ने अगली बार जंगल के भीतर तक कीचड से होते हुये जाने की तैयारी कर आने को कहा है। मुझे उम्मीद है कि अगली जंगल यात्रा मे नयी प्रजातियाँ मिल सकेंगी। (क्रमश:)
(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)
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