ग्रहण के दौरान उपयोग की जाने वाली वनस्पतियो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान
मेरी जंगल डायरी से कुछ पन्ने-55
- पंकज अवधिया
ग्रहण के दौरान उपयोग की जाने वाली वनस्पतियो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान
सूर्य ग्रहण से कुछ घंटो पहले जब मै यह लेख आरम्भ कर रहा हूँ तब मेरे पास रात भर जागने के लिये भरपूर पानी रखा हुआ है। मौसम बहुत ठंडा हो गया है क्योकि चौबीस घंटो से भी अधिक समय से घनघोर वर्षा हो रही है। मेरे पास पीने के लिये जो पानी है उसमे तुलसी की पत्तियाँ डाल दी गयी है। घर मे रखी सभी भोज्य सामग्रियो मे तुलसी मौजूद है। मै बचपन से देख रहा हूँ कि किसी भी ग्रहण के समय तुलसी का इसी तरह प्रयोग किया जाता है। ऐसा नही है कि ग्रहण के समय केवल तुलसी का ही प्रयोग किया जाता है। देश के अलग-अलग भागो मे अलग-अलग प्रकार की वनस्पतियो के प्रयोग के उदाहरण मिलते है।
मुझे याद आता है, बस्तर मे एक पारम्परिक चिकित्सक के साथ मै ग्रहण की चर्चा कर रहा था। उन्होने बताया कि ग्रहण के समय मंजूरगोडी नामक वनस्पति का महत्व बढ जाता है। इस वनस्पति को उन बेशकीमती वनौषधीयो के साथ रख दिया जाता है जिनका उपयोग पारम्परिक चिकित्सक साल भर करते है। मंजूरगोडी अपने आप मे एक बेशकीमती वनस्पति है। बहुत से पारम्परिक चिकित्सक कौआगोडी का प्रयोग करते है। वे ग्रहण से चौबीस घंटे पहले इसे एकत्र कर लेते है और फिर ग्रहण के दौरान इसे घर के बाहर टाँग कर रखा जाता है।
उत्तरी छत्तीसगढ के पारम्परिक चिकित्सक तो नेगुर के प्रयोग के पक्षघर है। वे इसकी पत्तियो को एकत्र करते है और फिर ग्रहण के दौरान तोरण के रुप मे प्रवेश द्वार पर लगा देते है। इन पत्तियो को गर्भवती महिलाओ के सिरहाने पर भी रख दिया जाता है। नेगुर की जडो को छोटे-छोटे टुकडो मे काट लिया जाता है फिर इसकी माला बनाकर छोटे बच्चो को पहना दी जाती है। बीमार बुजुर्गो के सिरहाने पर जड को रख दिया जाता है। पारम्परिक चिकित्सक ग्रहण के बीस दिन पहले से ही इस वनस्पति की सेवा शुरु कर देते है। पहले सात दिनो तक इसे गोबर के घोल से सींचा जाता है और फिर विभिन्न वनस्पतियो के सत्व से। नेगुर के पौध भागो को ग्रहण के तुरन्त बाद पास की बडी नदी मे प्रवाहित कर दिया जाता है।
मैने अपने शोध दस्तावेजो मे पहले यह लिखा है कि नेगुर को पारम्परिक चिकित्सक बहुत ही उपयोगी वनस्पति मानते है। आम लोगो के लिये भी यह पूजनीय है। आम लोग से अपने घरो के सामने लगाते है ताकि वे साल भर बीमारी से बचे रहे।
अपनी नियमगिरि यात्रा के दौरान उडीसा के पारम्परिक चिकित्सको से इस विषय मे चर्चा हुयी। उन्होने ग्रहण काल मे उपयोग की जाने वाली साठ से अधिक वनस्पतियो के विषय मे बताया। इनमे सबसे रोचक और प्रचलित उपयोग कलमी नामक वनस्पति का था। पर्वत के उन स्थानो से जहाँ से नदियो का उदगम होता है पारम्परिक चिकित्सक कलमी की जड ले आते है और फिर ग्रहण के दौरान इसे घर के विभिन्न कोनो मे रख देते है। अलाबेली नामक गाँव के पारम्परिक चिकित्सक बताते है कि पहले इस जड के काढे से ग्रहण के पहले और बाद मे नहाने की परम्परा थी पर अब कम ही लोग इस बारे मे जानते है।
हाल की जंगल यात्रा के दौरान मुझे पारम्परिक चिकित्सको से नयी जानकारी मिली। वे आज के सूर्य ग्रहण की तैयारियाँ कर रहे थे। उन्होने दस पुराने वृक्षो के नीचे से मिट्टी एकत्र की और फिर उसे सुरक्षित रख लिया। पीपल, बरगद, गस्ती, पाकर, नीम, भिरहा, कलमी, गिन्धोल, सेमर और सलिहा के पुराने वृक्ष इस हेतु चुने गये। ग्रहण से पहले वे इस मिट्टी का लेप तैयार करके अपने शरीर मे लगा लेंगे और ग्रहण के समाप्त होते ही नदी मे स्नान कर लेंगे। ऐसा केवल पारम्परिक चिकित्सक ही करते है। आम लोगो को ऐसा करने की सलाह नही दी जाती है।
बहुत से भागो मे तुलसी के साथ नीम का प्रयोग लिया जाता है। ग्रहण के दौरान बेल की नयी पत्तियो को चबाने की परम्परा भी है। बेल के साथ नीम की पत्तियो को भी चबाया जाता है। बागबहरा के पारम्परिक चिकित्सक बताते है कि ग्रहण के दौरान बुजुर्गो विशेषकर जटिल रोगो से ग्रस्त बुजुर्गो का बहुत ध्यान रखा जाता है। ग्रहण के पहले और बाद पाँच प्रकार की वनस्पतियो को जलाकर धुँए को कमरे के हर कोने तक पहुँचाया जाता है। इनमे भिरहा की पत्तियाँ सबसे अधिक मात्रा मे डाली जाती है। मैने अपने शोध दस्तावेजो मे पहले लिखा है कि भिरहा के धुँए की सहायता से आज की पीढी बरसात मे मच्छरो को दूर रखती है। इसका धुँआ इतना कडवा होता है कि छोटे बच्चे रो पडते है। कई मायनो मे इसे नीम से बेहतर माना जाता है।
जबलपुर मे मेरी नानी ग्रहण के दौरान बहुत सी वनस्पतियो के प्रयोग की सलाह देती थी। इनमे तुलसी और नीम प्रमुख थी। ग्रहण के पहले सूतक लगने के बाद से ही खाना-पीना बन्द कर दिया जाता था और ग्रहण के दौरान भजन किया जाता था। “दादी माँ के नुस्खे” विषय पर जानकारी एकत्र करते समय मैने देश भर की दादी माँओ द्वारा सुझाये गये हजारो ऐसे नुस्खो के विषय मे जानकारी एकत्र की जो ग्रहण के समय उपयोग की जाने वाली वनस्पतियो से सम्बन्धित है। आज भी ग्रामीण क्षेत्रो मे इनका प्रयोग हो रहा है।
औषधीय कीडो और मकौडो के जानकार पारम्परिक चिकित्सक ग्रहण के पहले और बाद मे इनका एकत्रण नही करते है। इस बार रेड वेलवेट माइट यानि रानी कीडे देर से निकले है मानसून मे देरी के कारण पर पारम्परिक चिकित्सक इस ग्रहण के कारण इस बार माइट को एकत्र करने मे देर कर रहे है। व्यापारी इस बात को नही मानते है इसलिये व्यवसायिक स्तर पर एकत्रण जारी है।
मैने हजारो वनस्पतियो के विषय मे इस तरह की जानकारियाँ एकत्र की है। परम्परा के रुप मे पारम्परिक चिकित्सक और आम लोग इन्हे अपनाते है। हमारी तरह वे इसके वैज्ञानिक कारण ढूँढने की कोशिश नही करते है। पारम्परिक ज्ञान का दस्तावेजीकरण करते समय सभी जानकारियो को जस का तस लिख देना होता है। इसी नियम के कारण ये जानकारियाँ मेरे पास सुरक्षित रह पायी है। कौन जाने आने वाले समय मे यह पारम्परिक ज्ञान मानव जाति के बहुत काम आये।
आधे घंट मे जंगल की यात्रा शुरु करनी है। तेज बारिश के कारण नदी-नाले अटे हुये है। घर के सामने ही पानी भरा हुआ है। ड्रायवर का अता-पता नही है पर फिर भी उम्मीद है कि हम इस यात्रा मे जा पायेंगे---- (क्रमश:)
(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)
© सर्वाधिकार सुरक्षित
- पंकज अवधिया
ग्रहण के दौरान उपयोग की जाने वाली वनस्पतियो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान
सूर्य ग्रहण से कुछ घंटो पहले जब मै यह लेख आरम्भ कर रहा हूँ तब मेरे पास रात भर जागने के लिये भरपूर पानी रखा हुआ है। मौसम बहुत ठंडा हो गया है क्योकि चौबीस घंटो से भी अधिक समय से घनघोर वर्षा हो रही है। मेरे पास पीने के लिये जो पानी है उसमे तुलसी की पत्तियाँ डाल दी गयी है। घर मे रखी सभी भोज्य सामग्रियो मे तुलसी मौजूद है। मै बचपन से देख रहा हूँ कि किसी भी ग्रहण के समय तुलसी का इसी तरह प्रयोग किया जाता है। ऐसा नही है कि ग्रहण के समय केवल तुलसी का ही प्रयोग किया जाता है। देश के अलग-अलग भागो मे अलग-अलग प्रकार की वनस्पतियो के प्रयोग के उदाहरण मिलते है।
मुझे याद आता है, बस्तर मे एक पारम्परिक चिकित्सक के साथ मै ग्रहण की चर्चा कर रहा था। उन्होने बताया कि ग्रहण के समय मंजूरगोडी नामक वनस्पति का महत्व बढ जाता है। इस वनस्पति को उन बेशकीमती वनौषधीयो के साथ रख दिया जाता है जिनका उपयोग पारम्परिक चिकित्सक साल भर करते है। मंजूरगोडी अपने आप मे एक बेशकीमती वनस्पति है। बहुत से पारम्परिक चिकित्सक कौआगोडी का प्रयोग करते है। वे ग्रहण से चौबीस घंटे पहले इसे एकत्र कर लेते है और फिर ग्रहण के दौरान इसे घर के बाहर टाँग कर रखा जाता है।
उत्तरी छत्तीसगढ के पारम्परिक चिकित्सक तो नेगुर के प्रयोग के पक्षघर है। वे इसकी पत्तियो को एकत्र करते है और फिर ग्रहण के दौरान तोरण के रुप मे प्रवेश द्वार पर लगा देते है। इन पत्तियो को गर्भवती महिलाओ के सिरहाने पर भी रख दिया जाता है। नेगुर की जडो को छोटे-छोटे टुकडो मे काट लिया जाता है फिर इसकी माला बनाकर छोटे बच्चो को पहना दी जाती है। बीमार बुजुर्गो के सिरहाने पर जड को रख दिया जाता है। पारम्परिक चिकित्सक ग्रहण के बीस दिन पहले से ही इस वनस्पति की सेवा शुरु कर देते है। पहले सात दिनो तक इसे गोबर के घोल से सींचा जाता है और फिर विभिन्न वनस्पतियो के सत्व से। नेगुर के पौध भागो को ग्रहण के तुरन्त बाद पास की बडी नदी मे प्रवाहित कर दिया जाता है।
मैने अपने शोध दस्तावेजो मे पहले यह लिखा है कि नेगुर को पारम्परिक चिकित्सक बहुत ही उपयोगी वनस्पति मानते है। आम लोगो के लिये भी यह पूजनीय है। आम लोग से अपने घरो के सामने लगाते है ताकि वे साल भर बीमारी से बचे रहे।
अपनी नियमगिरि यात्रा के दौरान उडीसा के पारम्परिक चिकित्सको से इस विषय मे चर्चा हुयी। उन्होने ग्रहण काल मे उपयोग की जाने वाली साठ से अधिक वनस्पतियो के विषय मे बताया। इनमे सबसे रोचक और प्रचलित उपयोग कलमी नामक वनस्पति का था। पर्वत के उन स्थानो से जहाँ से नदियो का उदगम होता है पारम्परिक चिकित्सक कलमी की जड ले आते है और फिर ग्रहण के दौरान इसे घर के विभिन्न कोनो मे रख देते है। अलाबेली नामक गाँव के पारम्परिक चिकित्सक बताते है कि पहले इस जड के काढे से ग्रहण के पहले और बाद मे नहाने की परम्परा थी पर अब कम ही लोग इस बारे मे जानते है।
हाल की जंगल यात्रा के दौरान मुझे पारम्परिक चिकित्सको से नयी जानकारी मिली। वे आज के सूर्य ग्रहण की तैयारियाँ कर रहे थे। उन्होने दस पुराने वृक्षो के नीचे से मिट्टी एकत्र की और फिर उसे सुरक्षित रख लिया। पीपल, बरगद, गस्ती, पाकर, नीम, भिरहा, कलमी, गिन्धोल, सेमर और सलिहा के पुराने वृक्ष इस हेतु चुने गये। ग्रहण से पहले वे इस मिट्टी का लेप तैयार करके अपने शरीर मे लगा लेंगे और ग्रहण के समाप्त होते ही नदी मे स्नान कर लेंगे। ऐसा केवल पारम्परिक चिकित्सक ही करते है। आम लोगो को ऐसा करने की सलाह नही दी जाती है।
बहुत से भागो मे तुलसी के साथ नीम का प्रयोग लिया जाता है। ग्रहण के दौरान बेल की नयी पत्तियो को चबाने की परम्परा भी है। बेल के साथ नीम की पत्तियो को भी चबाया जाता है। बागबहरा के पारम्परिक चिकित्सक बताते है कि ग्रहण के दौरान बुजुर्गो विशेषकर जटिल रोगो से ग्रस्त बुजुर्गो का बहुत ध्यान रखा जाता है। ग्रहण के पहले और बाद पाँच प्रकार की वनस्पतियो को जलाकर धुँए को कमरे के हर कोने तक पहुँचाया जाता है। इनमे भिरहा की पत्तियाँ सबसे अधिक मात्रा मे डाली जाती है। मैने अपने शोध दस्तावेजो मे पहले लिखा है कि भिरहा के धुँए की सहायता से आज की पीढी बरसात मे मच्छरो को दूर रखती है। इसका धुँआ इतना कडवा होता है कि छोटे बच्चे रो पडते है। कई मायनो मे इसे नीम से बेहतर माना जाता है।
जबलपुर मे मेरी नानी ग्रहण के दौरान बहुत सी वनस्पतियो के प्रयोग की सलाह देती थी। इनमे तुलसी और नीम प्रमुख थी। ग्रहण के पहले सूतक लगने के बाद से ही खाना-पीना बन्द कर दिया जाता था और ग्रहण के दौरान भजन किया जाता था। “दादी माँ के नुस्खे” विषय पर जानकारी एकत्र करते समय मैने देश भर की दादी माँओ द्वारा सुझाये गये हजारो ऐसे नुस्खो के विषय मे जानकारी एकत्र की जो ग्रहण के समय उपयोग की जाने वाली वनस्पतियो से सम्बन्धित है। आज भी ग्रामीण क्षेत्रो मे इनका प्रयोग हो रहा है।
औषधीय कीडो और मकौडो के जानकार पारम्परिक चिकित्सक ग्रहण के पहले और बाद मे इनका एकत्रण नही करते है। इस बार रेड वेलवेट माइट यानि रानी कीडे देर से निकले है मानसून मे देरी के कारण पर पारम्परिक चिकित्सक इस ग्रहण के कारण इस बार माइट को एकत्र करने मे देर कर रहे है। व्यापारी इस बात को नही मानते है इसलिये व्यवसायिक स्तर पर एकत्रण जारी है।
मैने हजारो वनस्पतियो के विषय मे इस तरह की जानकारियाँ एकत्र की है। परम्परा के रुप मे पारम्परिक चिकित्सक और आम लोग इन्हे अपनाते है। हमारी तरह वे इसके वैज्ञानिक कारण ढूँढने की कोशिश नही करते है। पारम्परिक ज्ञान का दस्तावेजीकरण करते समय सभी जानकारियो को जस का तस लिख देना होता है। इसी नियम के कारण ये जानकारियाँ मेरे पास सुरक्षित रह पायी है। कौन जाने आने वाले समय मे यह पारम्परिक ज्ञान मानव जाति के बहुत काम आये।
आधे घंट मे जंगल की यात्रा शुरु करनी है। तेज बारिश के कारण नदी-नाले अटे हुये है। घर के सामने ही पानी भरा हुआ है। ड्रायवर का अता-पता नही है पर फिर भी उम्मीद है कि हम इस यात्रा मे जा पायेंगे---- (क्रमश:)
(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)
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