वनस्पतियो का पारम्परिक उपचार और इससे विषैले साँपो से बचाव
मेरी जंगल डायरी से कुछ पन्ने-54
- पंकज अवधिया
वनस्पतियो का पारम्परिक उपचार और इससे विषैले साँपो से बचाव
कल रात से तेज बारिश शुरु हो गयी है। अब हफ्तो तक घने जंगलो मे जाना मुश्किल हो जायेगा। सडक मार्ग से घने जंगलो को निहारा तो जा सकेगा पर अन्दर घुस पाना सम्भव नही होगा। जंगलो का चप्पा-चप्पा जानने वाले भी इस मौसम मे जंगल से दूर रहते है। पता नही कहाँ पानी भरा हो या कहाँ दलदल हो। सारी जडी-बूटियाँ उन भागो से एकत्र कर ली जाती है जो ऊपरी भाग मे है। बरसात मे नाना प्रकार के विषैले जीव निकल आते है। साँपो का भय सबसे अधिक होता है। मै हर बार दूर से घने जंगओ को निहारकर मन मसोस कर रह जाता हूँ। कई बार जाँबाज पारम्परिक चिकित्सको ने मेरे मन से साँप का डर दूर करने के लिये बहुत से उपाय किये पर कुछ उपायो को मैने अपनाया और शेष को अपनाने की हिम्मत ही नही हुयी।
दो तरह के साँप स्थानीय तौर पर पिटपिटी और डोन्ह्रिया के नाम से जाने जाते है। ये साँप अक्सर नही काटते है। मनुष्य़ को देखते ही राह बदल देते है। पिटपिटी को तो गाँव के बच्चे उठा-उठाकर फेकते रहते है। यह उनका ग्रामीण खिलौना है। मै बचपन से यह सुन रहा हूँ कि इन दोनो साँपो मे से किसी एक के काट लेने पर ज्यादा नुकसान नही होता है पर एक सीमित अवधि तक दूसरे विषैले साँप नही काटते है। डोन्ह्रिया के काटने पर तो डेढ गाँजे का नशा आता है और फिर स्थिति सुधर जाती है। जब मै छत्तीसगढ के मैदानो मे सर्वेक्षण कर रहा था तब बहुत से लोगो ने इस साँपो से जबरदस्ती कटवाने की बात कही। एक बार तो डोन्ह्रिया को पकड भी लिया गया। वह काटने को तैयार ही नही होता था। मै जोश के साथ अपना पैर आगे करके बैठा था। काफी जद्दोजहद के बाद भी कोई नतीजा नही निकला। हम कुछ रुककर फिर से एक और प्रयास करने की योजना बनाने लगे।
तभी वहाँ से एक पारम्परिक चिकित्सक गुजरे। उन्होने देखते ही सारा माजरा समझ लिया। वे क्रोध मे बोले कि यह डोन्ह्रिया नही है बल्कि विषैला साँप है। इसका मतलब स्थानीय लोगो से साँप की पहचान मे भूल हुयी थी। अच्छा ही हुआ जो उसने मुझे काटा नही। अन्यथा लेने के देने पड जाते।
बाद मे जब मैने सर्प विष चिकित्सा मे महारत रखने वाले पारम्परिक चिकित्सको और सर्प विशेषज्ञो के बीच काम किया तो मुझे सही जानकारियाँ मिलने लगी। उन्होने बहुत सी ऐसी वनस्पतियो के विषय मे बताया जिन्हे खाने से शरीर मे एक विशेष प्रकार की दुर्गन्ध आने लगती है। उस दुर्गन्ध के कारण साँप दूर ही रहते है। मुझे गुम्मा की याद आती है। छत्तीसगढ मे धान के खेतो मे काम करने वाले लोग अक्सर इसके बारे मे बताते है। गुम्मा खरप्तवार की तरह बरसात के मौसम मे उगता है। इसकी भाजी बडे चाव से खायी जाती है। इसे खाने के बाद किसान बेधडक खेतो मे काम करते है साँपो के बीच। गुम्मा की गन्ध जो हमे महसूस नही होती है, साँपो को दूर रखती है।
मैने जब इस पारम्परिक ज्ञान के विषय मे अपने शोध दस्तावेजो मे लिखा तो विज्ञान जगत के तथाकथित महारथियो ने खूब मजाक उडाया। पर मैने इसका जमीनी स्तर पर प्रयोग देखा था। मै अपने कार्य मे लगा रहा। विज्ञान के पैरोकारो के साथ सबसे बडी समस्या यह है कि जिस रहस्य या मान्यता की व्याख्या वे नही कर पाते है उसे बिना देर किये अन्ध-विश्वास की संज्ञा दे दी जाती है। कालांतर मे जब वैज्ञानिक इसकी व्याख्या कर लेते है तो फिर उसे विज्ञान मान लिया जाता है। मैने अपने लम्बे अनुभव से यह पाया है कि आम लोगो का पारम्परिक ज्ञान विज्ञान सम्मत है। यदि आज का विज्ञान इसकी व्याख्या नही कर पा रहा है तो वह इस ज्ञान का नकारात्म्क पहलू नही है बल्कि आधुनिक विज्ञान की कमी है। अब भला अपनी गल्ती कौन मानता है? इसलिये सारा दोष पारम्परिक ज्ञान पर मढ दिया जाता है। पर इससे पारम्परिक ज्ञान और इसकी सहायता से जीवन जीने वालो पर कोई असर नही पडता है। वे बिना परवाह इसका उपयोग करते रहते है। मै तो इन्हे अन्ध-विश्वास की संज्ञा देने की बजाय विज्ञान मानते हुये व्याख्या के लिये खुला रखने की सलाह देता हूँ।
बहरहाल, गुम्मा के विषय मे शोध दस्तावेजो के प्रकाशित होने के बाद जब दुनिया भर के अलग-अलग भागो के पारम्परिक ज्ञान विशेषज्ञो ने इस बात की पुष्टि करनी आरम्भ की तो इस पारम्परिक ज्ञान को महत्ता मिली। साँपो के अधययन पर अपना जीवन कुर्बान कर देने वाले बहुत से विशेषज्ञो ने गुम्मा जैसी दसो वनस्पतियो के विषय मे बताया। इस सब के बावजूद हमारे देश मे इस ज्ञान का माखौल उडाया जाता रहा। पाश्चात्य जगत ने साँप प्रभावित क्षेत्रो मे अपनी सेना को सुरक्षित रखने के लिये इस तरह की वनस्पतियो पर शोध आरम्भ किया। तब जाकर भारतीय वैज्ञानिको को अपने पिछवाडे मे उग रही इस वनस्पति का महत्व पता चला। यहाँ भी इस पर शोध आरम्भ हुये है। मै इन्हे सही शोध नही कहता हूँ क्योकि इनका आधार मूल पारम्परिक चिकित्सकीय ज्ञान होता है और इसी ज्ञान को शब्दो के आकर्षक साँचे मे डालकर ज्यादातर वैज्ञानिक बडी चतुराई से इसे अपने नाम कर लेते है। वैसे भारत मे यदि मुख्य धारा से हट कर काम करना है तो महात्मा गाँधी की यह बात हमेशा याद रखनी चाहिये।
First they ignore you, then they ridicule you, then they fight you, then you win
- Mahatma Gandhi.
चलिये, अब पारम्परिक चिकित्सको की ओर लौटते है। पारम्परिक चिकित्सको ने मुझे बताया कि यह सही है कि बहुत से साँपो के काट लेने पर दूसरे विषैले साँप बहुत दिनो तक नही काटते है। पर यह सब विशेषज्ञो की निगरानी मे किया जाना चाहिये। इसके लिये बहुत से नियम है। सरगुजा मे वानस्पतिक सर्वेक्षणो के दौरान पारम्परिक चिकित्सको ने मुझे पाँच दिनो की तैयारी की बात बतायी। पहले दिन पेट की सफाई की जाती है और फिर औषधीय चावल और कन्द-मूल खाने को दिये जाते है। यह क्रम तीसरे दिन तक चलता रहता है। चौथे दिन विशेष वनस्पतियो का सेवन आरम्भ होता है। पाँचवे दिन विशेष साँपो से कटवाया जाता है। इसके बाद पारम्परिक चिकित्सक नंगे पाँव उस व्यक्ति को जंगल मे ले जाते है और जानबूझकर विषैले साँपो को छेडने को कहते है। वे दावा करते है कि व्यक्ति की जीवनी शक्ति के आधार पर यह उपचार तीन से पाँच महिने तक कारगर रहता है। व्यक्ति को कुछ फर्क नही पडता है। उसमे किसी प्रकार के शारीरिक परिवर्तन नही आते है। हाँ, इन दिनो वह बीमार कम पडता है। यह साँपो का नही बल्कि वनस्पतियो का असर होता है।
अम्बिकापुर के अजीरमा गाँव मे अपनी शिक्षा के दौरान मैने एक पारम्परिक चिकित्सक से मुलाकात की थी। उनका कहना था कि ऐसे उपचार सभी साँपो के लिये उपयोगी न होकर करैत और नाग के लिये ही प्रभावकारी होते है। एक दशक से भी अधिक समय मे मैने सौ से ज्यादा ऐसी उपचार विधियो की जानकारियो का दस्तावेजीकरण किया है। साँपो के प्रकार और वनस्पतियो की उपलब्धता के आधार पर उपचार की विधि बदलती जाती है। एक दिन का भी उपचार होता है और सबसे लम्बा उपचार एक महिने का होता है। एक महिने लम्बा उपचार जहरीले कीटो से भी रक्षा करता है। दावा तो यह भी किया जाता है कि इससे भालू जैसे वन्य जीवो की आक्रमण की स्थिति मे कम नुकसान होता है।
गुम्मा भाजी हर साल मै शौक से खाता हूँ। साँपो के लिये नही बल्कि उसके स्वाद के लिये। जिन उपचारो के विषय मे मैने जानकारियो का दस्तावेजीकरण किया है उनमे से वनस्पति आधारित उपचारो को मैने अपनाया है। मैने अपने स्तर पर इसके प्रभाव का पूरा-पूरा आँकलन नही किया है पर इन उपचारो को सामान्य स्वास्थ्य के लिये बडा ही उपयोगी पाया है।
आज यह पारम्परिक चिकित्सकीय ज्ञान कुछ लोगो तक ही सीमित है और इसका प्रयोग कम हो रहा है। इस बात की पूरी सम्भावना है कि यह आने वाले समय मे संरक्षण के अभाव मे विलुप्त हो जाये। इस ज्ञान की बडी महत्ता है। पर इसके लिये आधुनिक योजनाकारो और शोधकर्ताओ को इसे विस्तार से बताना होगा। यह सम्भव नही जान पडता है। यह मै उदाहरण के माध्यम से समझाना चाहूँगा। मैने औषधीय कीटो पर बहुत काम किया है। कल ही अमेरिका से एक जाने माने कीट वैज्ञानिक का सन्देश आया कि वे लाल चीटे जिसे स्थानीय भाषा मे चापरा या माटरा कहा जाता है, के औषधीय गुणो पर पूरी दुनिया मे उपलब्ध जानकारियो को एक स्थान पर एकत्र कर रहे है। उन्होने मेरे शोध पत्र का उल्लेख किया और कहा कि क्या आपके देश के चिकित्सा वैज्ञानिको ने इस चीटे से सम्बन्धित पारम्परिक चिकित्सकीय ज्ञान पर शोध कार्य किये? मैने उन्हे विनम्रता से जवाब दिया कि बहुत से चिकित्सा वैज्ञानिको ने इसमे रुचि दिखायी पर जो जानकारी मेरे शोध पत्र मे है वह ऊँट के मुँह मे जीरे के समान है। असली जानकारी तो हजारो पन्नो की शक्ल मे है। कम्प्यूटर की भाषा मे कहे तो 2 जीबी से अधिक की सामग्री। अब इस सामग्री को दुनिया की कोई भी शोध पत्रिका मूल रुप मे प्रकाशित नही करेगी। वे इसे काट-छाँटकर कुछ पन्नो की सामग्री बना देंगे। इससे अर्थ का अंनर्थ भी हो सकता है। इसलिये सौ से अधिक शोध-पत्रो को पचपन से अधिक प्रतिष्ठित शोध पत्रिकाओ के माध्यम से प्रकाशित करवाने के बाद मैने यह राह छोड दी। अब अपने डेटाबेस मे इसे सुरक्षित रखता हूँ इस उम्मीद मे कि इस जीवन मे या इसके बाद कोई इसे मूल रुप मे प्रकाशित कर पाने मे सक्षम होगा।
चलिये, अब फिर वापस लौटते है। आपने छत्तीसगढ के नाग लोक का नाम तो सुना ही होगा। तलहटी वाले इस क्षेत्र मे बडी संख्या मे साँप पाये जाते है। हर साल इनके डसने के कारण बडी संख्या मे लोग मारे जाते है। ऐसा नही है कि साँप से बचने के उपचारो की जानकारी इस क्षेत्र मे नही है। जानकारियाँ है पर उन्हे फिर से पुनरजीवित करने की जरुरत है। इस साल मेरी योजना इस क्षेत्र मे जाकर महिनो गुजारने की थी पर यह सम्भव नही हो पाया। योजनाकार चाहे तो राज्य के एक क्षेत्र के उपयोगी पारम्परिक ज्ञान का उपयोग दूसरे क्षेत्र मे करके जनता को अकाल मौतो से बचा सकते है।
बरसात मे जंगल के भीतर घुसने के लिये मै तो अंतरिक्ष यात्रियो की तरह विशेष सूट बनाने की मंशा रखता हूँ। ऐसा सूट जिसके अन्दर बैचैनी न हो और वह जहरीले जीवो से बचा सके। स्थानीय स्तर पर दर्जी मेरी बात सुनते है और सूट तैयार करते है पर “परफेक्शन” आने मे अभी सालो लगेंगे-ऐसा लगता है। (क्रमश:)
(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)
© सर्वाधिकार सुरक्षित
- पंकज अवधिया
वनस्पतियो का पारम्परिक उपचार और इससे विषैले साँपो से बचाव
कल रात से तेज बारिश शुरु हो गयी है। अब हफ्तो तक घने जंगलो मे जाना मुश्किल हो जायेगा। सडक मार्ग से घने जंगलो को निहारा तो जा सकेगा पर अन्दर घुस पाना सम्भव नही होगा। जंगलो का चप्पा-चप्पा जानने वाले भी इस मौसम मे जंगल से दूर रहते है। पता नही कहाँ पानी भरा हो या कहाँ दलदल हो। सारी जडी-बूटियाँ उन भागो से एकत्र कर ली जाती है जो ऊपरी भाग मे है। बरसात मे नाना प्रकार के विषैले जीव निकल आते है। साँपो का भय सबसे अधिक होता है। मै हर बार दूर से घने जंगओ को निहारकर मन मसोस कर रह जाता हूँ। कई बार जाँबाज पारम्परिक चिकित्सको ने मेरे मन से साँप का डर दूर करने के लिये बहुत से उपाय किये पर कुछ उपायो को मैने अपनाया और शेष को अपनाने की हिम्मत ही नही हुयी।
दो तरह के साँप स्थानीय तौर पर पिटपिटी और डोन्ह्रिया के नाम से जाने जाते है। ये साँप अक्सर नही काटते है। मनुष्य़ को देखते ही राह बदल देते है। पिटपिटी को तो गाँव के बच्चे उठा-उठाकर फेकते रहते है। यह उनका ग्रामीण खिलौना है। मै बचपन से यह सुन रहा हूँ कि इन दोनो साँपो मे से किसी एक के काट लेने पर ज्यादा नुकसान नही होता है पर एक सीमित अवधि तक दूसरे विषैले साँप नही काटते है। डोन्ह्रिया के काटने पर तो डेढ गाँजे का नशा आता है और फिर स्थिति सुधर जाती है। जब मै छत्तीसगढ के मैदानो मे सर्वेक्षण कर रहा था तब बहुत से लोगो ने इस साँपो से जबरदस्ती कटवाने की बात कही। एक बार तो डोन्ह्रिया को पकड भी लिया गया। वह काटने को तैयार ही नही होता था। मै जोश के साथ अपना पैर आगे करके बैठा था। काफी जद्दोजहद के बाद भी कोई नतीजा नही निकला। हम कुछ रुककर फिर से एक और प्रयास करने की योजना बनाने लगे।
तभी वहाँ से एक पारम्परिक चिकित्सक गुजरे। उन्होने देखते ही सारा माजरा समझ लिया। वे क्रोध मे बोले कि यह डोन्ह्रिया नही है बल्कि विषैला साँप है। इसका मतलब स्थानीय लोगो से साँप की पहचान मे भूल हुयी थी। अच्छा ही हुआ जो उसने मुझे काटा नही। अन्यथा लेने के देने पड जाते।
बाद मे जब मैने सर्प विष चिकित्सा मे महारत रखने वाले पारम्परिक चिकित्सको और सर्प विशेषज्ञो के बीच काम किया तो मुझे सही जानकारियाँ मिलने लगी। उन्होने बहुत सी ऐसी वनस्पतियो के विषय मे बताया जिन्हे खाने से शरीर मे एक विशेष प्रकार की दुर्गन्ध आने लगती है। उस दुर्गन्ध के कारण साँप दूर ही रहते है। मुझे गुम्मा की याद आती है। छत्तीसगढ मे धान के खेतो मे काम करने वाले लोग अक्सर इसके बारे मे बताते है। गुम्मा खरप्तवार की तरह बरसात के मौसम मे उगता है। इसकी भाजी बडे चाव से खायी जाती है। इसे खाने के बाद किसान बेधडक खेतो मे काम करते है साँपो के बीच। गुम्मा की गन्ध जो हमे महसूस नही होती है, साँपो को दूर रखती है।
मैने जब इस पारम्परिक ज्ञान के विषय मे अपने शोध दस्तावेजो मे लिखा तो विज्ञान जगत के तथाकथित महारथियो ने खूब मजाक उडाया। पर मैने इसका जमीनी स्तर पर प्रयोग देखा था। मै अपने कार्य मे लगा रहा। विज्ञान के पैरोकारो के साथ सबसे बडी समस्या यह है कि जिस रहस्य या मान्यता की व्याख्या वे नही कर पाते है उसे बिना देर किये अन्ध-विश्वास की संज्ञा दे दी जाती है। कालांतर मे जब वैज्ञानिक इसकी व्याख्या कर लेते है तो फिर उसे विज्ञान मान लिया जाता है। मैने अपने लम्बे अनुभव से यह पाया है कि आम लोगो का पारम्परिक ज्ञान विज्ञान सम्मत है। यदि आज का विज्ञान इसकी व्याख्या नही कर पा रहा है तो वह इस ज्ञान का नकारात्म्क पहलू नही है बल्कि आधुनिक विज्ञान की कमी है। अब भला अपनी गल्ती कौन मानता है? इसलिये सारा दोष पारम्परिक ज्ञान पर मढ दिया जाता है। पर इससे पारम्परिक ज्ञान और इसकी सहायता से जीवन जीने वालो पर कोई असर नही पडता है। वे बिना परवाह इसका उपयोग करते रहते है। मै तो इन्हे अन्ध-विश्वास की संज्ञा देने की बजाय विज्ञान मानते हुये व्याख्या के लिये खुला रखने की सलाह देता हूँ।
बहरहाल, गुम्मा के विषय मे शोध दस्तावेजो के प्रकाशित होने के बाद जब दुनिया भर के अलग-अलग भागो के पारम्परिक ज्ञान विशेषज्ञो ने इस बात की पुष्टि करनी आरम्भ की तो इस पारम्परिक ज्ञान को महत्ता मिली। साँपो के अधययन पर अपना जीवन कुर्बान कर देने वाले बहुत से विशेषज्ञो ने गुम्मा जैसी दसो वनस्पतियो के विषय मे बताया। इस सब के बावजूद हमारे देश मे इस ज्ञान का माखौल उडाया जाता रहा। पाश्चात्य जगत ने साँप प्रभावित क्षेत्रो मे अपनी सेना को सुरक्षित रखने के लिये इस तरह की वनस्पतियो पर शोध आरम्भ किया। तब जाकर भारतीय वैज्ञानिको को अपने पिछवाडे मे उग रही इस वनस्पति का महत्व पता चला। यहाँ भी इस पर शोध आरम्भ हुये है। मै इन्हे सही शोध नही कहता हूँ क्योकि इनका आधार मूल पारम्परिक चिकित्सकीय ज्ञान होता है और इसी ज्ञान को शब्दो के आकर्षक साँचे मे डालकर ज्यादातर वैज्ञानिक बडी चतुराई से इसे अपने नाम कर लेते है। वैसे भारत मे यदि मुख्य धारा से हट कर काम करना है तो महात्मा गाँधी की यह बात हमेशा याद रखनी चाहिये।
First they ignore you, then they ridicule you, then they fight you, then you win
- Mahatma Gandhi.
चलिये, अब पारम्परिक चिकित्सको की ओर लौटते है। पारम्परिक चिकित्सको ने मुझे बताया कि यह सही है कि बहुत से साँपो के काट लेने पर दूसरे विषैले साँप बहुत दिनो तक नही काटते है। पर यह सब विशेषज्ञो की निगरानी मे किया जाना चाहिये। इसके लिये बहुत से नियम है। सरगुजा मे वानस्पतिक सर्वेक्षणो के दौरान पारम्परिक चिकित्सको ने मुझे पाँच दिनो की तैयारी की बात बतायी। पहले दिन पेट की सफाई की जाती है और फिर औषधीय चावल और कन्द-मूल खाने को दिये जाते है। यह क्रम तीसरे दिन तक चलता रहता है। चौथे दिन विशेष वनस्पतियो का सेवन आरम्भ होता है। पाँचवे दिन विशेष साँपो से कटवाया जाता है। इसके बाद पारम्परिक चिकित्सक नंगे पाँव उस व्यक्ति को जंगल मे ले जाते है और जानबूझकर विषैले साँपो को छेडने को कहते है। वे दावा करते है कि व्यक्ति की जीवनी शक्ति के आधार पर यह उपचार तीन से पाँच महिने तक कारगर रहता है। व्यक्ति को कुछ फर्क नही पडता है। उसमे किसी प्रकार के शारीरिक परिवर्तन नही आते है। हाँ, इन दिनो वह बीमार कम पडता है। यह साँपो का नही बल्कि वनस्पतियो का असर होता है।
अम्बिकापुर के अजीरमा गाँव मे अपनी शिक्षा के दौरान मैने एक पारम्परिक चिकित्सक से मुलाकात की थी। उनका कहना था कि ऐसे उपचार सभी साँपो के लिये उपयोगी न होकर करैत और नाग के लिये ही प्रभावकारी होते है। एक दशक से भी अधिक समय मे मैने सौ से ज्यादा ऐसी उपचार विधियो की जानकारियो का दस्तावेजीकरण किया है। साँपो के प्रकार और वनस्पतियो की उपलब्धता के आधार पर उपचार की विधि बदलती जाती है। एक दिन का भी उपचार होता है और सबसे लम्बा उपचार एक महिने का होता है। एक महिने लम्बा उपचार जहरीले कीटो से भी रक्षा करता है। दावा तो यह भी किया जाता है कि इससे भालू जैसे वन्य जीवो की आक्रमण की स्थिति मे कम नुकसान होता है।
गुम्मा भाजी हर साल मै शौक से खाता हूँ। साँपो के लिये नही बल्कि उसके स्वाद के लिये। जिन उपचारो के विषय मे मैने जानकारियो का दस्तावेजीकरण किया है उनमे से वनस्पति आधारित उपचारो को मैने अपनाया है। मैने अपने स्तर पर इसके प्रभाव का पूरा-पूरा आँकलन नही किया है पर इन उपचारो को सामान्य स्वास्थ्य के लिये बडा ही उपयोगी पाया है।
आज यह पारम्परिक चिकित्सकीय ज्ञान कुछ लोगो तक ही सीमित है और इसका प्रयोग कम हो रहा है। इस बात की पूरी सम्भावना है कि यह आने वाले समय मे संरक्षण के अभाव मे विलुप्त हो जाये। इस ज्ञान की बडी महत्ता है। पर इसके लिये आधुनिक योजनाकारो और शोधकर्ताओ को इसे विस्तार से बताना होगा। यह सम्भव नही जान पडता है। यह मै उदाहरण के माध्यम से समझाना चाहूँगा। मैने औषधीय कीटो पर बहुत काम किया है। कल ही अमेरिका से एक जाने माने कीट वैज्ञानिक का सन्देश आया कि वे लाल चीटे जिसे स्थानीय भाषा मे चापरा या माटरा कहा जाता है, के औषधीय गुणो पर पूरी दुनिया मे उपलब्ध जानकारियो को एक स्थान पर एकत्र कर रहे है। उन्होने मेरे शोध पत्र का उल्लेख किया और कहा कि क्या आपके देश के चिकित्सा वैज्ञानिको ने इस चीटे से सम्बन्धित पारम्परिक चिकित्सकीय ज्ञान पर शोध कार्य किये? मैने उन्हे विनम्रता से जवाब दिया कि बहुत से चिकित्सा वैज्ञानिको ने इसमे रुचि दिखायी पर जो जानकारी मेरे शोध पत्र मे है वह ऊँट के मुँह मे जीरे के समान है। असली जानकारी तो हजारो पन्नो की शक्ल मे है। कम्प्यूटर की भाषा मे कहे तो 2 जीबी से अधिक की सामग्री। अब इस सामग्री को दुनिया की कोई भी शोध पत्रिका मूल रुप मे प्रकाशित नही करेगी। वे इसे काट-छाँटकर कुछ पन्नो की सामग्री बना देंगे। इससे अर्थ का अंनर्थ भी हो सकता है। इसलिये सौ से अधिक शोध-पत्रो को पचपन से अधिक प्रतिष्ठित शोध पत्रिकाओ के माध्यम से प्रकाशित करवाने के बाद मैने यह राह छोड दी। अब अपने डेटाबेस मे इसे सुरक्षित रखता हूँ इस उम्मीद मे कि इस जीवन मे या इसके बाद कोई इसे मूल रुप मे प्रकाशित कर पाने मे सक्षम होगा।
चलिये, अब फिर वापस लौटते है। आपने छत्तीसगढ के नाग लोक का नाम तो सुना ही होगा। तलहटी वाले इस क्षेत्र मे बडी संख्या मे साँप पाये जाते है। हर साल इनके डसने के कारण बडी संख्या मे लोग मारे जाते है। ऐसा नही है कि साँप से बचने के उपचारो की जानकारी इस क्षेत्र मे नही है। जानकारियाँ है पर उन्हे फिर से पुनरजीवित करने की जरुरत है। इस साल मेरी योजना इस क्षेत्र मे जाकर महिनो गुजारने की थी पर यह सम्भव नही हो पाया। योजनाकार चाहे तो राज्य के एक क्षेत्र के उपयोगी पारम्परिक ज्ञान का उपयोग दूसरे क्षेत्र मे करके जनता को अकाल मौतो से बचा सकते है।
बरसात मे जंगल के भीतर घुसने के लिये मै तो अंतरिक्ष यात्रियो की तरह विशेष सूट बनाने की मंशा रखता हूँ। ऐसा सूट जिसके अन्दर बैचैनी न हो और वह जहरीले जीवो से बचा सके। स्थानीय स्तर पर दर्जी मेरी बात सुनते है और सूट तैयार करते है पर “परफेक्शन” आने मे अभी सालो लगेंगे-ऐसा लगता है। (क्रमश:)
(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)
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