धनी रोगियो से घिरते पारम्परिक चिकित्सक और शार्ट-कट उपचार की बाध्यता
मेरी जंगल डायरी से कुछ पन्ने-41
- पंकज अवधिया
धनी रोगियो से घिरते पारम्परिक चिकित्सक और शार्ट-कट उपचार की बाध्यता
“बडे होकर क्या बनोगे?” एक प्रसिद्ध पारम्परिक चिकित्सक के तीन पोतो के सामने मैने यह प्रश्न रखा तो वे तुरंत बोल पडे कि हम तो बाबा का काम करेंगे। बाबा मतलब पारम्परिक चिकित्सक। यह जवाब किसी भी पारम्परिक चिकित्सक को प्रसन्न कर सकता है। मुझे याद आता है कि जब 1990 के आस-पास मैने वानस्पतिक सर्वेक्षण का कार्य शुरु किया तब पारम्परिक चिकित्सक अपने ज्ञान के भविष्य को लेकर बहुत चिंतित थे। उस पारम्परिक चिकित्सको को कोई सम्मान नही मिलता था। यह कार्य पैसे कमाने के लिये नही था इसलिये बच्चो का कैरियर नही बन सकता था। फिर गाँव के लोग ही पारम्परिक चिकित्सको के पास आते थे। पारम्परिक चिकित्सको को डर था कि कही बच्चे उनके ज्ञान को बेच न दे। पर आज हालात वैसे नही है।
इस जंगल यात्रा के दौरान मै दो ऐसे पारम्परिक चिकित्सको से मिला जिन्हे दम मारने की फुरसत नही है। एक पारम्परिक चिकित्सक किसी रोगी को देखने पास के शहर गये थे। सुदूर गाँव मे उनके घर के सामने दसो गाडियाँ खडी थी। ये गाडियाँ उन मरीजो की थी जो पारम्परिक चिकित्सक के आने का इंतजार कर रहे थे। हमे घर से काफी दूर गाडी खडी करनी पडी। पार्किंग की समस्या जो थी। इतनी भीड तो शहरी डाक्टरो के दवाखानो के सामने भी कम ही दिखती है। हम भी कतार मे लग गये।
पास मे एक बूढी माँ बैठी हुयी थी। पता चला कि वे पारम्परिक चिकित्सक की माँ थी। मैने उनसे बात करने का अवसर नही गँवाया। उनके पति यानि पारम्परिक चिकित्सक के पिता क्षेत्र के जाने-माने पारम्परिक चिकित्सक थे। उन्होने राज परिवारो को भी अपनी सेवाए दी थी। उस समय सारी दवाए जंगल की जडी-बूटियो से बनती थी। वे लगभग सारे रोगो की चिकित्सा करते थे। उस समय क्षेत्र मे बहुत जंगल थे और जंगली जानवर दिन मे गाँव मे आ जाते थे।
बुजुर्ग पारम्परिक चिकित्सक के सौ से ज्यादा चेले थे पर वे अपना सारा ज्ञान अपने बेटे को देना चाहते थे। पर बेटा इसके लिये तैयार नही था। उसने सिर्फ तीस रोगो के बारे मे ज्ञान अर्जित किया। शेष ज्ञान बुजुर्ग ने अपनी पत्नी को दे दिया। जैसे-जैसे पत्नी की आयु बढी उस ज्ञान को व्यवहार मे न लाने के कारण वे सब भूलती गयी। इस तरह महत्वपूर्ण पारम्परिक ज्ञान समाप्त हो गया। अब तो बुजुर्ग पारम्परिक चिकित्सक हमारे बीच नही है पर उनके अधेड बेटे ने तीस रोगो के लिये मोर्चा खोल रखा है। इन्ही से मिलने हम आये थे।
मेरी उनसे दर्जनो बार मुलाकात हो चुकी है। वे इतनी भीड के बावजूद खुद होकर पैसे नही माँगते है। कोई पैसे देने की जिद करता है तो उसे घर के मन्दिर मे अर्पित करने की बात करते है। यह पैसा दवाओ के लिये खर्च होता है। आधुनिक शिक्षा प्राप्त कर चुके उनके बच्चे बेरोजगार है। वे अपना पिता को अच्छा व्यवसायी नही मानते है। उन्हे लगता है कि यदि थोडे भी पैसे लिये जाये तो कुबेर का खजाना हाथ लग सकता है। बचपन से जिन्होने जिस काम को हेय दृष्टि से देखा था अब वे इस काम को अपनाना चाहते है। निस्वार्थ सेवा के लिये नही बल्कि इससे धानार्जन करने के लिये। जिस पारम्परिक चिकित्सक की चर्चा मै यहाँ कर रहा हूँ उनके तीनो बेटे सिर्फ सात रोगो की चिकित्सा का ज्ञान सीखना चाहते है। वह भी शार्ट कट मे। मैने जब उनसे बातचीत की तो उनकी रुचि महंगे मोबाइल, बडी कारो और आलीशान घर मे दिखी, पारम्परिक ज्ञान पर उनकी पकड सतही थी। ये शुभ लक्षण नही है। पारम्परिक चिकित्सक भी इस बात को जानते है पर उन्हे इस बात की तसल्ली है कि कम से कम उनके बच्चे इसमे रुचि तो ले रहे है।
1000 जीबी से अधिक आकार की मधुमेह की जो वैज्ञानिक रपट मै तैयार कर रहा हूँ उसमे मैने विस्तार से पारम्परिक चिकित्सा विधियो का वर्णन किया है। उदाहरण के लिये मधुमेह की जटिल अवस्था मे पारम्परिक चिकित्सक अपने दिमाग मे 200 दिनो की कार्ययोजना बनाते है। यानि 200 दिनो तक रोगी को कौन-कौन सा उपचार दिया जाना है। मैने पहले लिखा है कि जब पारम्परिक चिकित्सको के इस ज्ञान को कागजो पर लिखने का प्रयास किया जाता है तो 200 दिनो की केवल एक कार्य योजना को लिखने मे हजारो पन्ने रंग जाते है। पारम्परिक चिकित्सक ऐसी दस से बारह कार्ययोजनाए मन मे रखते है। रोग की अवस्था के अनुसार अलग-अलग कार्ययोजनाओ को लागू करते रहते है। यह बडा ही अद्भुत तरीका है चिकित्सा का। पर मधुमेह की चिकित्सा के लिये 200 दिनो तक पूरे नियम कायदो से कोई भी चिकित्सा करवाने को तैयार नही होता है। पारम्परिक चिकित्सको पर दबाव होता है कि वे कोई ऐसा मिश्रण दे जिससे तुरंत असर दिखे। यदि असर नही दिखा तो रोगी तुरंत दूसरे पारम्परिक चिकित्सको के पास चला जायेगा। ऐसे मे या तो पारम्परिक चिकित्सक हाथ जोडकर साफ मना कर देते है या फिर पारम्परिक विधियो को ताक मे रखकर प्रभावी मिश्रण देने का मन बना लेते है। पारम्परिक चिकित्सको की नयी पीढी इसी तात्कालिक लाभ वाले मिश्रणो को जानना चाहती है। ऐसे मिश्रण कुल ज्ञान रुपी सागर की कुछ बून्दो के समान है। मुझे डर है कि यह परम्परा दिव्य ज्ञान को सदा के लिये समाप्त कर देगी।
जंगल विभाग के एक बैरियर मे हमे रोक लिया गया और कहा गया कि गाडी की जाँच होगी। हमे कोई परेशानी नही थी। जाँच के बाद आश्वस्त होकर उन्होने हमे हरी झंडी दिखा दी पर हम कहाँ जाने वाले थे। हम सालो से जंगल मे घूम रहे थे पर कभी ऐसी चेकिंग नही हुयी थी। हमे बताया गया कि इस क्षेत्र मे लगातार हर गाडी की चेकिंग होती है। क्यो? जवाब चौकाने वाला था। हमे बताया गया कि शहर से छोटी गाडियाँ बडी संख्या मे आती है और दुर्लभ जडी-बूटियो को खोदकर ले जाती है। शहरी लोग किसी पारम्परिक चिकित्सक के गाँव के आस-पास की सारी जडी-बूटियो के नमूने ले जाते है। उन्हे लगता है कि इस तरह उन्होने सारा ज्ञान प्राप्त कर लिया है। पर यह उनका भ्रम ही है। शहरियो का यह कार्य पारम्परिक चिकित्सको के लिये परेशानी पैदा करता है। उन्हे वनस्पतियो के लिये काफी दूरी तय करनी पडती है।
बहुत से पारम्परिक चिकित्सको ने राजधानी मे घर ले लिया है, बहुत से हवाई यात्रा के दौरान मिल जाते है, रेल की उच्च श्रेणियो मे भी वे दिख जाते है। दुनिया भर से आ रहे सन्देश कहते है कि ऐसा केवल छत्तीसगढ के पारम्परिक चिकित्सको के साथ होता है क्योकि उनके बारे मे काफी कुछ लिखा जा रहा है। हाल ही मे राजस्थान के पारम्परिक चिकित्सको के एक दल ने मुझसे सम्पर्क किया कि वे छत्तीसगढ आकर यहाँ के पारम्परिक चिकित्सको से कुछ सीखना चाहते है। उन्हे लगता था कि उनके क्षेत्र मे उतनी महत्वपूर्ण जडी-बूटियाँ नही है जितनी कि छत्तीसगढ मे है। मैने उन्हे समझाया कि हम सौभाग्यशाली है कि भारत मे जहाँ भी खडे हो जाइये आपको चारो ओर जडी-बूटियो का खजाना बिखरा मिलेगा। आपका छत्तीसगढ मे स्वागत है पर आप अपने क्षेत्र के पारम्परिक ज्ञान की भी कद्र करे। (क्रमश:)
(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)
© सर्वाधिकार सुरक्षित
- पंकज अवधिया
धनी रोगियो से घिरते पारम्परिक चिकित्सक और शार्ट-कट उपचार की बाध्यता
“बडे होकर क्या बनोगे?” एक प्रसिद्ध पारम्परिक चिकित्सक के तीन पोतो के सामने मैने यह प्रश्न रखा तो वे तुरंत बोल पडे कि हम तो बाबा का काम करेंगे। बाबा मतलब पारम्परिक चिकित्सक। यह जवाब किसी भी पारम्परिक चिकित्सक को प्रसन्न कर सकता है। मुझे याद आता है कि जब 1990 के आस-पास मैने वानस्पतिक सर्वेक्षण का कार्य शुरु किया तब पारम्परिक चिकित्सक अपने ज्ञान के भविष्य को लेकर बहुत चिंतित थे। उस पारम्परिक चिकित्सको को कोई सम्मान नही मिलता था। यह कार्य पैसे कमाने के लिये नही था इसलिये बच्चो का कैरियर नही बन सकता था। फिर गाँव के लोग ही पारम्परिक चिकित्सको के पास आते थे। पारम्परिक चिकित्सको को डर था कि कही बच्चे उनके ज्ञान को बेच न दे। पर आज हालात वैसे नही है।
इस जंगल यात्रा के दौरान मै दो ऐसे पारम्परिक चिकित्सको से मिला जिन्हे दम मारने की फुरसत नही है। एक पारम्परिक चिकित्सक किसी रोगी को देखने पास के शहर गये थे। सुदूर गाँव मे उनके घर के सामने दसो गाडियाँ खडी थी। ये गाडियाँ उन मरीजो की थी जो पारम्परिक चिकित्सक के आने का इंतजार कर रहे थे। हमे घर से काफी दूर गाडी खडी करनी पडी। पार्किंग की समस्या जो थी। इतनी भीड तो शहरी डाक्टरो के दवाखानो के सामने भी कम ही दिखती है। हम भी कतार मे लग गये।
पास मे एक बूढी माँ बैठी हुयी थी। पता चला कि वे पारम्परिक चिकित्सक की माँ थी। मैने उनसे बात करने का अवसर नही गँवाया। उनके पति यानि पारम्परिक चिकित्सक के पिता क्षेत्र के जाने-माने पारम्परिक चिकित्सक थे। उन्होने राज परिवारो को भी अपनी सेवाए दी थी। उस समय सारी दवाए जंगल की जडी-बूटियो से बनती थी। वे लगभग सारे रोगो की चिकित्सा करते थे। उस समय क्षेत्र मे बहुत जंगल थे और जंगली जानवर दिन मे गाँव मे आ जाते थे।
बुजुर्ग पारम्परिक चिकित्सक के सौ से ज्यादा चेले थे पर वे अपना सारा ज्ञान अपने बेटे को देना चाहते थे। पर बेटा इसके लिये तैयार नही था। उसने सिर्फ तीस रोगो के बारे मे ज्ञान अर्जित किया। शेष ज्ञान बुजुर्ग ने अपनी पत्नी को दे दिया। जैसे-जैसे पत्नी की आयु बढी उस ज्ञान को व्यवहार मे न लाने के कारण वे सब भूलती गयी। इस तरह महत्वपूर्ण पारम्परिक ज्ञान समाप्त हो गया। अब तो बुजुर्ग पारम्परिक चिकित्सक हमारे बीच नही है पर उनके अधेड बेटे ने तीस रोगो के लिये मोर्चा खोल रखा है। इन्ही से मिलने हम आये थे।
मेरी उनसे दर्जनो बार मुलाकात हो चुकी है। वे इतनी भीड के बावजूद खुद होकर पैसे नही माँगते है। कोई पैसे देने की जिद करता है तो उसे घर के मन्दिर मे अर्पित करने की बात करते है। यह पैसा दवाओ के लिये खर्च होता है। आधुनिक शिक्षा प्राप्त कर चुके उनके बच्चे बेरोजगार है। वे अपना पिता को अच्छा व्यवसायी नही मानते है। उन्हे लगता है कि यदि थोडे भी पैसे लिये जाये तो कुबेर का खजाना हाथ लग सकता है। बचपन से जिन्होने जिस काम को हेय दृष्टि से देखा था अब वे इस काम को अपनाना चाहते है। निस्वार्थ सेवा के लिये नही बल्कि इससे धानार्जन करने के लिये। जिस पारम्परिक चिकित्सक की चर्चा मै यहाँ कर रहा हूँ उनके तीनो बेटे सिर्फ सात रोगो की चिकित्सा का ज्ञान सीखना चाहते है। वह भी शार्ट कट मे। मैने जब उनसे बातचीत की तो उनकी रुचि महंगे मोबाइल, बडी कारो और आलीशान घर मे दिखी, पारम्परिक ज्ञान पर उनकी पकड सतही थी। ये शुभ लक्षण नही है। पारम्परिक चिकित्सक भी इस बात को जानते है पर उन्हे इस बात की तसल्ली है कि कम से कम उनके बच्चे इसमे रुचि तो ले रहे है।
1000 जीबी से अधिक आकार की मधुमेह की जो वैज्ञानिक रपट मै तैयार कर रहा हूँ उसमे मैने विस्तार से पारम्परिक चिकित्सा विधियो का वर्णन किया है। उदाहरण के लिये मधुमेह की जटिल अवस्था मे पारम्परिक चिकित्सक अपने दिमाग मे 200 दिनो की कार्ययोजना बनाते है। यानि 200 दिनो तक रोगी को कौन-कौन सा उपचार दिया जाना है। मैने पहले लिखा है कि जब पारम्परिक चिकित्सको के इस ज्ञान को कागजो पर लिखने का प्रयास किया जाता है तो 200 दिनो की केवल एक कार्य योजना को लिखने मे हजारो पन्ने रंग जाते है। पारम्परिक चिकित्सक ऐसी दस से बारह कार्ययोजनाए मन मे रखते है। रोग की अवस्था के अनुसार अलग-अलग कार्ययोजनाओ को लागू करते रहते है। यह बडा ही अद्भुत तरीका है चिकित्सा का। पर मधुमेह की चिकित्सा के लिये 200 दिनो तक पूरे नियम कायदो से कोई भी चिकित्सा करवाने को तैयार नही होता है। पारम्परिक चिकित्सको पर दबाव होता है कि वे कोई ऐसा मिश्रण दे जिससे तुरंत असर दिखे। यदि असर नही दिखा तो रोगी तुरंत दूसरे पारम्परिक चिकित्सको के पास चला जायेगा। ऐसे मे या तो पारम्परिक चिकित्सक हाथ जोडकर साफ मना कर देते है या फिर पारम्परिक विधियो को ताक मे रखकर प्रभावी मिश्रण देने का मन बना लेते है। पारम्परिक चिकित्सको की नयी पीढी इसी तात्कालिक लाभ वाले मिश्रणो को जानना चाहती है। ऐसे मिश्रण कुल ज्ञान रुपी सागर की कुछ बून्दो के समान है। मुझे डर है कि यह परम्परा दिव्य ज्ञान को सदा के लिये समाप्त कर देगी।
जंगल विभाग के एक बैरियर मे हमे रोक लिया गया और कहा गया कि गाडी की जाँच होगी। हमे कोई परेशानी नही थी। जाँच के बाद आश्वस्त होकर उन्होने हमे हरी झंडी दिखा दी पर हम कहाँ जाने वाले थे। हम सालो से जंगल मे घूम रहे थे पर कभी ऐसी चेकिंग नही हुयी थी। हमे बताया गया कि इस क्षेत्र मे लगातार हर गाडी की चेकिंग होती है। क्यो? जवाब चौकाने वाला था। हमे बताया गया कि शहर से छोटी गाडियाँ बडी संख्या मे आती है और दुर्लभ जडी-बूटियो को खोदकर ले जाती है। शहरी लोग किसी पारम्परिक चिकित्सक के गाँव के आस-पास की सारी जडी-बूटियो के नमूने ले जाते है। उन्हे लगता है कि इस तरह उन्होने सारा ज्ञान प्राप्त कर लिया है। पर यह उनका भ्रम ही है। शहरियो का यह कार्य पारम्परिक चिकित्सको के लिये परेशानी पैदा करता है। उन्हे वनस्पतियो के लिये काफी दूरी तय करनी पडती है।
बहुत से पारम्परिक चिकित्सको ने राजधानी मे घर ले लिया है, बहुत से हवाई यात्रा के दौरान मिल जाते है, रेल की उच्च श्रेणियो मे भी वे दिख जाते है। दुनिया भर से आ रहे सन्देश कहते है कि ऐसा केवल छत्तीसगढ के पारम्परिक चिकित्सको के साथ होता है क्योकि उनके बारे मे काफी कुछ लिखा जा रहा है। हाल ही मे राजस्थान के पारम्परिक चिकित्सको के एक दल ने मुझसे सम्पर्क किया कि वे छत्तीसगढ आकर यहाँ के पारम्परिक चिकित्सको से कुछ सीखना चाहते है। उन्हे लगता था कि उनके क्षेत्र मे उतनी महत्वपूर्ण जडी-बूटियाँ नही है जितनी कि छत्तीसगढ मे है। मैने उन्हे समझाया कि हम सौभाग्यशाली है कि भारत मे जहाँ भी खडे हो जाइये आपको चारो ओर जडी-बूटियो का खजाना बिखरा मिलेगा। आपका छत्तीसगढ मे स्वागत है पर आप अपने क्षेत्र के पारम्परिक ज्ञान की भी कद्र करे। (क्रमश:)
(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)
© सर्वाधिकार सुरक्षित
Comments