जाने किसे झेलना होगा मुम्बई मे कृत्रिम वर्षा के प्रयोग का अभिशाप?
मेरी जंगल डायरी से कुछ पन्ने-43
- पंकज अवधिया
जाने किसे झेलना होगा मुम्बई मे कृत्रिम वर्षा के प्रयोग का अभिशाप?
कौन-कौन से वृक्ष वर्षा कराते है? इस प्रश्न का जवाब मै सालो से खोज रहा हूँ पर जवाब के रुप मे जिन वृक्षो की सूची मुझे मिल रही है वे जंगल मे खोजे नही मिल रहे है। कुछ हफ्तो पहले मुझे पारम्परिक चिकित्सक एक ऊँची पहाडी पर लेकर गये और एक बहुत ऊँचा वृक्ष दिखाया। वे बोले, ये कैम का वृक्ष है। इस जंगल मे यह एकमात्र वृक्ष है। यह पानी बरसाता है। आप जिस भी जंगल मे इसे अधिक संख्या मे पायेंगे वहाँ आपको अच्छी वर्षा वाले आँकडे मिलेंगे। पहले हमारे जंगलो मे भी यह बडी संख्या मे था पर आधुनिक मानव समाज की लालची निगाहो से यह नही बच पाया। स्वयम जंगल विभाग ने तीन बार इस जंगल को लकडी के लिये काटा है। यह वृक्ष पहाडी पर था इसलिये बच गया। “देखिये यह कितना मोटा और ऊँचा है।“ यदि आज हम इसका पौधा लगाये तो कई दशक लगेंगे इस आकार का वृक्ष तैयार होने मे। पर आज इसका जंगल लगाने से कई दशको के बाद पानी की समस्या नही रहेगी।
पारम्परिक चिकित्सको की बात सुनकर मुझे उडीसा के नियमगिरि की याद आ गयी। यहाँ भी बडी संख्या मे कैम के वृक्ष थे। इन्हे स्थानीय भाषा मे कदम कहा जाता है। यह कृष्ण-कन्हैया वाला कदम नही है। नियमगिरि पर्वत अपनी अच्छी वर्षा के कारण नाना प्रकार की वनस्पतियो और वन्य जीवो को आश्रय दिये हुये था। यहाँ से कई नदियाँ निकलती है जो असंख्य लोगो की प्यास बुझाती है और फिर भी इनका पानी कम नही होता है। इन नदियो पर मैदानी भागो मे बडे-बडे बाँध बने हुये है। असंख्य किसान इन नदियो के सहारे है और ये नदियाँ कैम जैसे बरसात लाने वाले वृक्षो पर निर्भर है। केवल कैम ही सक्रिय भूमिका नही निभाता है। कैम के साथ नियमगिरि मे साल के जंगल है। महुआ के साथ बडे पुराने पीपल है। इन सब का मिश्रण बादलो को आकर्षित करता है।
जंगल मे मै लगातार जा रहा हूँ। बरसात मे रोज देर दोपहर जंगल मे पानी बरसता ही है। पानी की बौछारे देर तक साथ चलती रहती है पर शहर के पास आते ही रुठ कर वही रुक जाती है। कितना भी मनाने की कोशिश करो, वे आगे नही बढती है। मुझे याद आता है अपना छात्र जीवन जब मै छुटियो मे जगदलपुर चला जाया करता था। सुबह से जडी-बूटी एकत्र करता था और स्थानीय मार्गदर्शको के साथ घूमता रहता था। पर शाम होते ही हमे लौटना पडता था। रोज शाम को बारिश जो हो जाती थी। यह सिलसिला पूरी गर्मी चलता था। अल सुबह गर्मियो मे चादर ओढने की जरुरत पडती थी। आज मेरा मन उस शहर मे जाने को नही करता है। जंगल तेजी से विकास की भेंट चढ गये। एक विशेष प्रकार का जंगल अभी भी बढ रहा है और वह है कांक्रीट जंगल। अब तो साल भर शहर को ठंडा रखना होता है। एसी की जरुरत साल भर होती है। यह जरुरत बढने ही वाली है क्योकि वहाँ बडी-बडी भठ्ठियाँ लगने वाली है लोहे को गलाने के लिये। पता नही तब कितना और गर्म होगा यह शहर?
आज पूरा देश उस समाचार पर नजर गडाये हुये है जिसमे “क्लाउड सीडींग” यानि कृत्रिम वर्षा की बात की जा रही है। इस बार सम्भावित सूखे को देखते हुये मुम्बई मे नयी तकनीक से वर्षा करायी जायेगी। मीडिया चीख-चीख कर एक तरफा यानि “क्लाउड सीडींग” के पक्ष मे बाते कर रहा है। तस्वीर के दूसरे पहलू को देखने कोई तैयार नही है। मै भी मौसम विशेषज्ञ नही हूँ इसलिये मैने अपने कुछ वैज्ञानिक मित्रो से इस बारे मे पूछा तो वे बोले कि यह तकनीक तो पूरी दुनिया मे अपनायी जा रही है। इस बात की बहुत सम्भावना है कि वर्षा होगी। पर इस वर्षा की कीमत किसी न किसी को चुकानी ही पडेगी। कही आस-पास पड रहा सूखा और तीव्र हो जायेगा। फिर सिल्वर आयोडाइड के प्रयोग से भी पर्यावरण विशेषकर वनस्पतियो पर असर पडेगा। मित्रो ने पूछा कि जहाँ ऐसे प्रयोग हो रहे है वहाँ आस-पास जैव-विविधता वाला क्षेत्र तो नही है। मैने उनसे कहा कि पश्चिम घाट तो जैव-विविधता वाला क्षेत्र है। मित्रो ने कहा कि ऐसे मे इस तकनीक का प्रयोग सम्भल कर अपने विवेक का इस्तमाल करके किया जाना चाहिये।
“क्लाउड सीडींग” पर जब मैने वैज्ञानिक साहित्यो को खंगाला तो इसके पक्ष और विपक्ष मे बहुत सी बाते जानने को मिली। यह आभास हुआ कि सब कुछ सीधा-सीधा नही है। दुनिया के बहुत से देशो मे इस पर प्रतिबन्ध भी लगता रहा है। वैज्ञानिक दस्तावेज बताते है कि थाईलैंड मे इस तकनीक के लम्बे समय तक प्रयोग ने सूखे की बुरी स्थिति को जन्म दिया है। तकनीकी विषय होने के कारण मीडिया मे इसके नकारात्मक पहलुओ के विषय मे कम ही कहा जाता है। यह देशी नही बल्कि विदेशी मीडिया के साथ भी समस्या है।
“क्लाउड सीडींग” के लिये सरकार करोडो (या अरबो) रुपये पानी की तरह बहायेगी, इस बात की परवाह किये बिना कि यह तकनीक असफल भी हो सकती है। विदर्भ मे ऐसे प्रयोग पहले किये गये है। सन्योग से कुछ वर्षो पहले जब यह प्रयोग किया जा रहा था तब मै वही था। आशातीत सफलता नही मिली थी पर इस बात को सामने नही आने दिया गया। ऐसे मे मै आधुनिक “क्लाउड सीडींग” की स्थान पर पारम्परिक “क्लाउड सीडींग” के पक्ष मे रहना पसन्द करुंगा। माँ प्रकृति सदियो से “क्लाउड सीडींग” कर रही है। जंगलो मे उन्होने ऐसी व्यवस्था बना रखी है कि बिना मेहनत के सदियो से मनुष्यो को पानी मिल रहा है। माँ प्रकृति की इस “क्लाउड सीडींग” मे पक्षपात नही है। सबको बराबर पानी मिलता है। साथ ही इस “क्लाउड सीडींग” मे सिल्वर आयोडाइड जैसे विषाक्त रसायनो का भी प्रयोग नही होता है। फिर क्यो नही नयी जानलेवा तकनीक की जगह माँ प्रकृति की “क्लाउड सीडींग” के यंत्रो को फिर से सुधारा जाता? सरकारे क्यो नही भिड कर जंगल को बचाती और उनका विस्तार करती है? क्यो नदियो को जन्मने वाले नियमगिरि मे बाक्साइट खनन की छूट देकर प्राकृतिक “क्लाउड सीडींग” स्त्रोत को सदा के लिये विनाश के गर्त मे ढकेला जा रहा है? आज योजनाकार जैट्रोफा (रतनजोत) जैसी अधिक जल-माँग वाली बायोडीजल फसल के रोपण मे रुचि दिखाते है और खरबो पानी की तरह बहाने के बाद नतीजा सिफर ही रहता है। क्यो नही इतने पैसे कैम, साल, महुआ आदि पर खर्च किये जाते? जाने कब इन प्रश्नो के उत्तर मिलेंगे?
कुछ समय पूर्व डिस्कवरी चैनल पर एक कार्यक्रम मे बताया जा रहा था कि जब तेजी से बढते हुये एक समुदी तूफान को खत्म करने के लिये बादलो पर रसायनो का छिडकाव किया गया तो तूफान वहाँ तो टल गया पर उसने दिशा बदलकर दूसरे स्थानो पर जबरदस्त कहर बरसाया। प्रकृति की व्यवस्था की नकल इतनी सरल नही है। अब देखिये मुम्बई की “क्लाउड सीडींग” की कितनी बडी कीमत हमे चुकानी पडती है? (क्रमश:)
(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)
© सर्वाधिकार सुरक्षित
- पंकज अवधिया
जाने किसे झेलना होगा मुम्बई मे कृत्रिम वर्षा के प्रयोग का अभिशाप?
कौन-कौन से वृक्ष वर्षा कराते है? इस प्रश्न का जवाब मै सालो से खोज रहा हूँ पर जवाब के रुप मे जिन वृक्षो की सूची मुझे मिल रही है वे जंगल मे खोजे नही मिल रहे है। कुछ हफ्तो पहले मुझे पारम्परिक चिकित्सक एक ऊँची पहाडी पर लेकर गये और एक बहुत ऊँचा वृक्ष दिखाया। वे बोले, ये कैम का वृक्ष है। इस जंगल मे यह एकमात्र वृक्ष है। यह पानी बरसाता है। आप जिस भी जंगल मे इसे अधिक संख्या मे पायेंगे वहाँ आपको अच्छी वर्षा वाले आँकडे मिलेंगे। पहले हमारे जंगलो मे भी यह बडी संख्या मे था पर आधुनिक मानव समाज की लालची निगाहो से यह नही बच पाया। स्वयम जंगल विभाग ने तीन बार इस जंगल को लकडी के लिये काटा है। यह वृक्ष पहाडी पर था इसलिये बच गया। “देखिये यह कितना मोटा और ऊँचा है।“ यदि आज हम इसका पौधा लगाये तो कई दशक लगेंगे इस आकार का वृक्ष तैयार होने मे। पर आज इसका जंगल लगाने से कई दशको के बाद पानी की समस्या नही रहेगी।
पारम्परिक चिकित्सको की बात सुनकर मुझे उडीसा के नियमगिरि की याद आ गयी। यहाँ भी बडी संख्या मे कैम के वृक्ष थे। इन्हे स्थानीय भाषा मे कदम कहा जाता है। यह कृष्ण-कन्हैया वाला कदम नही है। नियमगिरि पर्वत अपनी अच्छी वर्षा के कारण नाना प्रकार की वनस्पतियो और वन्य जीवो को आश्रय दिये हुये था। यहाँ से कई नदियाँ निकलती है जो असंख्य लोगो की प्यास बुझाती है और फिर भी इनका पानी कम नही होता है। इन नदियो पर मैदानी भागो मे बडे-बडे बाँध बने हुये है। असंख्य किसान इन नदियो के सहारे है और ये नदियाँ कैम जैसे बरसात लाने वाले वृक्षो पर निर्भर है। केवल कैम ही सक्रिय भूमिका नही निभाता है। कैम के साथ नियमगिरि मे साल के जंगल है। महुआ के साथ बडे पुराने पीपल है। इन सब का मिश्रण बादलो को आकर्षित करता है।
जंगल मे मै लगातार जा रहा हूँ। बरसात मे रोज देर दोपहर जंगल मे पानी बरसता ही है। पानी की बौछारे देर तक साथ चलती रहती है पर शहर के पास आते ही रुठ कर वही रुक जाती है। कितना भी मनाने की कोशिश करो, वे आगे नही बढती है। मुझे याद आता है अपना छात्र जीवन जब मै छुटियो मे जगदलपुर चला जाया करता था। सुबह से जडी-बूटी एकत्र करता था और स्थानीय मार्गदर्शको के साथ घूमता रहता था। पर शाम होते ही हमे लौटना पडता था। रोज शाम को बारिश जो हो जाती थी। यह सिलसिला पूरी गर्मी चलता था। अल सुबह गर्मियो मे चादर ओढने की जरुरत पडती थी। आज मेरा मन उस शहर मे जाने को नही करता है। जंगल तेजी से विकास की भेंट चढ गये। एक विशेष प्रकार का जंगल अभी भी बढ रहा है और वह है कांक्रीट जंगल। अब तो साल भर शहर को ठंडा रखना होता है। एसी की जरुरत साल भर होती है। यह जरुरत बढने ही वाली है क्योकि वहाँ बडी-बडी भठ्ठियाँ लगने वाली है लोहे को गलाने के लिये। पता नही तब कितना और गर्म होगा यह शहर?
आज पूरा देश उस समाचार पर नजर गडाये हुये है जिसमे “क्लाउड सीडींग” यानि कृत्रिम वर्षा की बात की जा रही है। इस बार सम्भावित सूखे को देखते हुये मुम्बई मे नयी तकनीक से वर्षा करायी जायेगी। मीडिया चीख-चीख कर एक तरफा यानि “क्लाउड सीडींग” के पक्ष मे बाते कर रहा है। तस्वीर के दूसरे पहलू को देखने कोई तैयार नही है। मै भी मौसम विशेषज्ञ नही हूँ इसलिये मैने अपने कुछ वैज्ञानिक मित्रो से इस बारे मे पूछा तो वे बोले कि यह तकनीक तो पूरी दुनिया मे अपनायी जा रही है। इस बात की बहुत सम्भावना है कि वर्षा होगी। पर इस वर्षा की कीमत किसी न किसी को चुकानी ही पडेगी। कही आस-पास पड रहा सूखा और तीव्र हो जायेगा। फिर सिल्वर आयोडाइड के प्रयोग से भी पर्यावरण विशेषकर वनस्पतियो पर असर पडेगा। मित्रो ने पूछा कि जहाँ ऐसे प्रयोग हो रहे है वहाँ आस-पास जैव-विविधता वाला क्षेत्र तो नही है। मैने उनसे कहा कि पश्चिम घाट तो जैव-विविधता वाला क्षेत्र है। मित्रो ने कहा कि ऐसे मे इस तकनीक का प्रयोग सम्भल कर अपने विवेक का इस्तमाल करके किया जाना चाहिये।
“क्लाउड सीडींग” पर जब मैने वैज्ञानिक साहित्यो को खंगाला तो इसके पक्ष और विपक्ष मे बहुत सी बाते जानने को मिली। यह आभास हुआ कि सब कुछ सीधा-सीधा नही है। दुनिया के बहुत से देशो मे इस पर प्रतिबन्ध भी लगता रहा है। वैज्ञानिक दस्तावेज बताते है कि थाईलैंड मे इस तकनीक के लम्बे समय तक प्रयोग ने सूखे की बुरी स्थिति को जन्म दिया है। तकनीकी विषय होने के कारण मीडिया मे इसके नकारात्मक पहलुओ के विषय मे कम ही कहा जाता है। यह देशी नही बल्कि विदेशी मीडिया के साथ भी समस्या है।
“क्लाउड सीडींग” के लिये सरकार करोडो (या अरबो) रुपये पानी की तरह बहायेगी, इस बात की परवाह किये बिना कि यह तकनीक असफल भी हो सकती है। विदर्भ मे ऐसे प्रयोग पहले किये गये है। सन्योग से कुछ वर्षो पहले जब यह प्रयोग किया जा रहा था तब मै वही था। आशातीत सफलता नही मिली थी पर इस बात को सामने नही आने दिया गया। ऐसे मे मै आधुनिक “क्लाउड सीडींग” की स्थान पर पारम्परिक “क्लाउड सीडींग” के पक्ष मे रहना पसन्द करुंगा। माँ प्रकृति सदियो से “क्लाउड सीडींग” कर रही है। जंगलो मे उन्होने ऐसी व्यवस्था बना रखी है कि बिना मेहनत के सदियो से मनुष्यो को पानी मिल रहा है। माँ प्रकृति की इस “क्लाउड सीडींग” मे पक्षपात नही है। सबको बराबर पानी मिलता है। साथ ही इस “क्लाउड सीडींग” मे सिल्वर आयोडाइड जैसे विषाक्त रसायनो का भी प्रयोग नही होता है। फिर क्यो नही नयी जानलेवा तकनीक की जगह माँ प्रकृति की “क्लाउड सीडींग” के यंत्रो को फिर से सुधारा जाता? सरकारे क्यो नही भिड कर जंगल को बचाती और उनका विस्तार करती है? क्यो नदियो को जन्मने वाले नियमगिरि मे बाक्साइट खनन की छूट देकर प्राकृतिक “क्लाउड सीडींग” स्त्रोत को सदा के लिये विनाश के गर्त मे ढकेला जा रहा है? आज योजनाकार जैट्रोफा (रतनजोत) जैसी अधिक जल-माँग वाली बायोडीजल फसल के रोपण मे रुचि दिखाते है और खरबो पानी की तरह बहाने के बाद नतीजा सिफर ही रहता है। क्यो नही इतने पैसे कैम, साल, महुआ आदि पर खर्च किये जाते? जाने कब इन प्रश्नो के उत्तर मिलेंगे?
कुछ समय पूर्व डिस्कवरी चैनल पर एक कार्यक्रम मे बताया जा रहा था कि जब तेजी से बढते हुये एक समुदी तूफान को खत्म करने के लिये बादलो पर रसायनो का छिडकाव किया गया तो तूफान वहाँ तो टल गया पर उसने दिशा बदलकर दूसरे स्थानो पर जबरदस्त कहर बरसाया। प्रकृति की व्यवस्था की नकल इतनी सरल नही है। अब देखिये मुम्बई की “क्लाउड सीडींग” की कितनी बडी कीमत हमे चुकानी पडती है? (क्रमश:)
(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)
© सर्वाधिकार सुरक्षित
Comments
Nature ke saath khilwaad..hamesha manushy par bhaari hi padaa hai.
greenary badhane par ,global warming ke solutions,energy ke vikalpon ko dhoondhne par yah paisa lagana chaheeye.