साँपो के डर के कारण विलुप्त होती गरुड जडी और इसे बचाने की मुहिम

मेरी जंगल डायरी से कुछ पन्ने-45
- पंकज अवधिया

साँपो के डर के कारण विलुप्त होती गरुड जडी और इसे बचाने की मुहिम


यदि आपको पता चले कि पूरे जंगल से जो वनस्पति लुप्त हो चुकी है वह पास के गाँव के एक घर मे सुरक्षित है तो आप तुरंत ही उस ओर चल पडेंगे। मैने भी ऐसा ही किया। जिस वनस्पति के बारे मे ऐसा कहा जा रहा था वह आयुर्वेद के दृष्टिकोण से भी अति महत्वपूर्ण है। प्रसिद्ध दशमूल योग इस वनस्पति के बिना अधूरा है। यह वनस्पति है सोनपाठा। मेरे देखते ही देखते एक दशक के अन्दर इसकी संख्या मे अप्रत्याशित कमी आयी है। अभी भी बडी मात्रा मे इसकी जड का एकत्रण किया जाता है। आप समझ सकते है कि जड के एकत्रण के बाद वनस्पति की क्या हालत होती होगी?पारम्परिक चिकित्सक तो जड का थोडा सा भाग ही एकत्र करते है और फिर वनस्पति के कटे हुय्रे भाग मे जडी-बूटियो का घोल और मिट्टी लगा देते है ताकि इस चोट से वनस्पति जल्द से जल्द उबर जाये पर जब व्यापारियो के गुर्गे यह काम करते है तो उन्हे केवल जड और उसके माध्यम से आने वाला पैसा दिखता है। यदि उन्हे जड का शीर्ष चाहिये होगा तो भी वे पूरी जड उखाडेंगे और इस तरह उस वनस्पति का अस्तित्व समाप्त कर देगे। सोनपाठा का अस्तित्व केवल इसी एकत्रण से खतरे मे नही है। इसके नये उपयोगो ने संकट पैदा कर दिया।

गाँव मे पहुँचते ही हमने पूछना शुरु किया। लोग जानते थे कि सोनपाठा किस घर मे लगा है। हम एक घर मे घुस गये। वह किसी बैगा का घर था। साथ मे आये पारम्परिक चिकित्सक बैगा से मिलने चले गये जबकि मै आँगन मे रुक गया। तभी मेरी नजर तुलसी चौरा पर पडी। तुलसी की जगह एक वृक्ष लगा हुआ था। यह सोनपाठा ही था। बैगा नही था पर उसकी बूढी पत्नी थी। उन्होने बताया कि उडीसा के घने जंगलो से लाकर इस वनस्पति को रोपा गया है। इसकी रोज पूजा की जाती है। आँगन मे इसके सूखे हुये फूल बिखरे हुये थे। बैगा की पत्नी ने बताया कि एक-एक फूल अपने औषधीय महत्व के लिये महंगे मे बिकता है। वृक्ष पर फल लगे हुये थे। मैने फल तोडने की अनुमति चाही तो उन्होने साफ इंकार कर दिया। उन्होने कहा कि पहले पूजा की जाये उसके बाद ही इसे तोडा जाये। साथ चल रहे पारम्परिक चिकित्सक नारियल और अगरबत्ती लेने चल गये।

अचानक बैगा की पत्नी उठी और अन्दर से ढेर सारे फल लेकर आ गयी। मैने कहा कि जब फल थे तो फिर पारम्परिक चिकित्सको को नारियल लेने क्यो भेजा? उन्होने विनम्रता से जवाब दिया कि इस फल के लिये जबरदस्त मारामारी है। यदि वे इन्हे देख लेते तो किसी भी बहाने से ले जाते। हमे एक और लम्बे साल की प्रतीक्षा करनी पडती। मैने इस वनस्पति के सभी भागो की तस्वीरे ली और साथ ही बैगा की पत्नी का साक्षात्कार लिया।

सोनपाठा को स्थानीय लोग गरुण या गरुड के नाम से जानते है। वैसे इस नाम की बीस से अधिक वनस्पतियाँ देहातो मे मिल जाती है। इसे सर्प विष प्रतिषेधक माना जाता है। सर्प दंश मे जितना इसका उपयोग नही होता उससे अधिक इसके फलो को घर मे रखा जाता है, इस विश्वास के चलते कि इससे सर्प घर मे नही आयेंगे। बैगा की पत्नी ने अपनी झोपडी की छत मे इसे रखा था। कुछ-कुछ साँप के फन के तरह दिखता है यह फल। मैने अपने लेखो मे पहले यह बार-बार लिखा है कि घरो को सर्पो से मुक्त रखने के लिये फिनायल और कैरोसीन का सरल प्रयोग किया जा सकता है। इसके लिये वनस्पतियो को नष्ट करने की आवश्यकत्ता नही है। पर पीढीयो से गरुण के बारे मे जो बाते प्रचारित जी जा रही है उन बातो ने ग्रामीण और शहरी समाज मे गहरी जडे जमा ली है। आज इसके बढते बाजार ने इस वनस्पति के सभी पौध भागो को सर्प भगाने वाला घोषित कर दिया है। जबकि यह सत्य से कोसो दूर है।

सडक के किनारे जडी-बूटी बेचने वालो के पास या फिर देहाती मेलो मे इस वनस्पति की जड से तैयार छोटे-छोटे साँप बिकते देखे जा सकते है। यह दावा किया जाता है कि इस जड से बने सर्प को घर मे रखने से असली साँप नही आते है। पता नही असली साँपो को इसकी खबर है या नही?

बैगा की पत्नी ने बताया कि दवा के रुप मे प्रयोग के लिये फूल कम बिकते है, ज्यादातर लोग तो बुरी नजर से बचने के लिये इस फूल को ले जाते है और अपने घरो मे बन्द कर देते है। पता नही वे बुरी नजर से बच पाते है या नही पर उनके इस काम से इस वनस्पति के विस्तार के द्वार बन्द हो जाते है। फूल से फल बनते और फिर बीज नयी पीढी को जन्म देते। पर बडी मात्रा मे फल और फूल के एकत्रण से इसका अस्तित्व समाप्ति की ओर है। यह विडम्बना ही है कि सरकारी स्तर पर इस जानलेवा व्यापार को रोकने की कोई पहल नही की जा रही है। समाज मे वैज्ञानिक चेतना जगाने का जिम्मा लिये अरबो रुपये वसूलती सामाजिक संस्थाए निष्क्रिय है। अखबार भी मौन है। कुछ अखबार तो हर बार व्यापारियो के कहने पर इस फल से सर्प के न आने की अफवाह उडा देते है और फिर फलो की बिक्री शुरु हो जाती है। कोई यह नही सोचता कि इससे जंगल मे इस वनस्पति की प्राकृतिक आबादी पर कितना गहरा असर पड रहा है। इस बार कुछ अखबारो ने मेरी मुहिम का साथ देने का मन बनाया है। देखते है कि कब तक अति सम्पन्न बाजार के सामने यह मुहिम टिक पाती है। अखबारो के माध्यम से आम जनता से यह अनुरोध किया जा रहा है कि वे इस फल को न खरीदे और पर्यावरण की रक्षा मे अपना अहम योगदान दे। फल नही बिकेंगे तो अपने आप व्यापारी इसमे रुचि लेना छोड देंगे। व्यापारी नही खरीदेंगे तो जंगल से इसका एकत्रण नही होगा।

देश के बहुत से हिस्सो मे उपलब्ध सरकारी दस्तावेज बताते है कि सोनपाठा के व्यापक रोपण की पहल की जा रही है ताकि दशमूल योग के अवयव की आपूर्ति होती रहे। पर ये सरकारी स्तर के रोपण कितने जमीन पर है और कितने कागज पर, यह यकीन से कह पाना मुश्किल है। पारम्परिक चिकित्सक ऐसे रोपणो से खुश नही है। आमतौर पर किसी भी खाली जमीन पर ऐसे रोपण कर दिये जाते है। जंगलो मे जाकर यह देखने की कोशिश नही की जाती है कि कैसी परिस्थितियो मे यह उगता है? किन वनस्पतियो के साथ उगता है? सरकारी रोपण से वृक्ष तो तैयार हो जाते है पर उनके औषधीय गुणो मे कमी रहती है। सारा प्रयास बेकार जाता है। पारम्परिक चिकित्सक यह भी कहते है कि इन वृक्षो को तैयार होने मे दशको लगेंगे तब तक इस धरती मे माँ प्रकृति द्वारा भेंट किये गये वृक्ष ही मानव सेवा करेंगे। उन्हे किसी भी हालत मे नष्ट होने से बचाना है।

व्यापारी मेरी इस चिंता पर हँसते है। वे कहते है कि अभी बाजार मे जितना सोनपाठा है उतना तो इस धरती मे मौजूद वृक्षो से नही आ सकता। इतनी मात्रा के लिये मंगल और चाँद मे भी सोनपाठा लगाना होगा। व्यापारी की बाते साफ इशारा करती है कि सोनपाठा मे मिलावट की जा रही है। बहुत बार ऐसी मिलावटे अप्रत्यक्ष रुप से मुख्य वनस्पति की संख्या को कम होने से बचाती है पर इस मिलावट से जन-स्वास्थ्य के लिये बडा खतरा उत्पन्न हो जाता है। साथ ही जिन वनस्पतियो की मिलावट की जाती है उनके अस्तित्व पर भी खतरा उत्पन्न हो सकता है।

इस जंगल यात्रा के दौरान एक बुजुर्ग पारम्परिक चिकित्सक मिले। वे इस वनस्पति को बढा रहे है। पैसे कमाने के लिये नही बल्कि लोगो को स्वस्थ्य बनाने के लिये। मैने उनके घर मे उग रहे कुछ पौधो को देखा। वे मेरी मदद चाहते है ताकि हर बीज नये पौधो को जन्म दे सके। मै अपनी सेवाए देने के लिये तत्पर हूँ। उम्मीद है कि आने वाले सालो मे हम अधिक से अधिक संख्या मे सोनपाठा उगा पायेंगे। (क्रमश:)

(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)

© सर्वाधिकार सुरक्षित

Comments

Kisalaya said…
Bahu achhi lagi ye jankari . Hame is Jadi ko bachane ka prayas karna chahiye . Haan is jadi ke photograph jo aapne liye the wo bhi blog per den jis-se hame use pahchanne me aasaani ho sake .
यदि यह Oroxylum indicum है तो बताते हैं कि इसका नाम अरलू है। रात में फूलता है और काफ़ी बदबू करता है। चमगादड़ इसका पोलिनेशन करते हैं -ऐसा प्रदीप क्रिशन कहते हैं अपने किताब ट्रीज़ ऑफ़ डेल्ही में।

आप जारी रहें। बढ़िया है!

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