मिट्टी के फल, सर्प विष का भोग और मणि के ऊपर उगता जामुन

मेरी जंगल डायरी से कुछ पन्ने-40
- पंकज अवधिया

मिट्टी के फल, सर्प विष का भोग और मणि के ऊपर उगता जामुन


“आपको हमारे साथ जंगल चलना ही है तो आज डोंगर के उस पार चलते है जहाँ वृक्षो पर मिट्टी के फल लटके होंगे।“पारम्परिक चिकित्सक की बात सुनकर अचरज हुआ। भला वृक्षो मे मिट्टी के फल कैसे फलेंगे? मै तैयार हो गया। गाडी किनारे पर खडा करके चाबी ड्रायवर के हवाले की और पारम्परिक चिकित्सक के पीछे-पीछे चल पडा। हम जिस डोंगर की ओर बढ रहे थे वह वृक्ष विहीन था। केवल शीर्ष पर एक चिरईजाम यानि जामुन का वृक्ष लगा हुआ था। पारम्परिक चिकित्सक ने बताया कि पीढीयो से लोग यह मानते है कि शीर्ष पर स्थित इस वृक्ष के नीचे दो मणियाँ है। इसी मान्यता के कारण इसकी पूजा की जाती है। अब सब तो इतनी ऊँचाई पर नही पहुँच पाते है इसलिये नीचे से ही पूजा हो जाती है। इस वृक्ष ने बहुत से तूफान झेले है पर फिर भी बिना किसी परेशानी के उग रहा है। हमे यह आश्चर्य होता है कि इस पथरीले डोंगर मे इसे पानी कहाँ से मिलता होगा?

मणि वाली मान्यता ने दूर-दूर से धनी लोगो को सदा ही आकर्षित किया है। धनी पैसे लुटाने की तैयारी से आते है और वृक्ष का सौदा करने लगते है। वृक्ष को हटाने के बाद ही तो मणि निकलेगी। स्थानीय लोग इस काम के लिये तैयार नही होते है। बाहरी मजदूर आते है तो सारी बाते पता चलने पर वे वापस लौट जाते है। अब धनी खुद तो शीर्ष पर जाकर यह काम नही कर सकते है।

पारम्परिक चिकित्सक ने बताया कि मणि की बात से ज्यादा उन्हे इस जामुन के पेड के औषधीय गुणो मे विश्वास है। ज्यादातर नदी या दूसरे जलस्त्रोतो के पास जामुन प्राकृतिक रुप से उगता है। आप कुल्लु और सलिहा जैसे वृक्षो जो कि पथरीली जमीन पसन्द करते है, के साथ जामुन को कम ही पायेंगे। ऐसे जामुन के फल मे विशेष औषधीय गुण होते है। हम समर्थ व्यक्तियो को शीर्ष पर भेजकर अपने आप गिरे फलो को एकत्र करवा लेते है। फलो का गूदा और गुठली निकालकर फेक देते है और केवल पतले छिलके को रख लेते है। इस छिलके को नीम की छाँव मे सुखाकर साल भर प्रयोग के लिये रख लिया जाता है। हम नाना प्रकार के औषधीय मिश्रणो मे इस छिलके को डालते है। केवल छिलके भी औषधि की तरह देते है। हमारे साथ मजबूरी यह है कि ऐसा एक ही वृक्ष है और साल मे कुछ फल ही मिल पाते है। हमने इस वृक्ष को फैलाने की बहुत कोशिश की पर सफल नही हो पाये। बहुत से फल वही पडे रह जाते है पर उस पथरीली जमीन मे उग कर नये पौधे नही बन पाते है। पारम्परिक चिकित्सक ने कहा कि आपको आज छिलके का स्वाद चखने का अवसर मिलेगा। मै मन ही मन बडा प्रसन्न हुआ।

काफी दूर चलने के बाद हम डोंगर के दूसरी ओर पहुँचे। सुनसान क्षेत्र था। नाना प्रकार की चिडियो की आवाज आती थी। टूटे हुये भिम्भौरे साफ संकेत दे रहे थे कि वहाँ भालू आते थे। किसी मरे हुये जानवर की बदबू भी आ रही थी। मुझे बताया गया कि किसी माँसाहारी ने ताजा शिकार कल रात या आज सुबह किया होगा। बहुत से साँप भी दिखे जो कि उमस से बैचैन होकर बिलो से बाहर आ गये थे। शायद और भी बहुत से जीव हो जो हमे देख रहे हो पर किसी को हमारी परवाह नही थी। हम एक वृक्ष के पास रुके। मैने उसकी पहचान बबूल की एक जाति के रुप मे की। पारम्परिक चिकित्सक ने बताया कि यह गौहर का वृक्ष है। यह मेरे लिये नया नाम था। मैने अब तक इस वृक्ष के दसो स्थानीय नाम सुने थे पर यह एकदम नया था। खैर, नाम मे क्या रखा है। मैने सिर उठाया तो सचमुच मुझे ढेरो मिट्टी के फल दिखायी दिये। नियम से तो इस वृक्ष मे फल्लियाँ लगी होनी चाहिये थी पर हर शाखा मे मिट्टी की गोल-गोल आकृति लटक रही थी। कहने को तो ये फल कहे जा सकते थे पर वास्तव मे ये फल नही थे।

कुछ वर्षो पहले मैने पहली बार इन तथकथित मिट्टी के फलो को देखा था। उस समय मै दुर्ग जिले के पारम्परिक चिकित्सको के साथ था। उन्होने बताया था कि यह मिट्टी का ढेला वृक्षो की शाखाओ से बन्धा रहता है। आम लोग समझते है कि ये किसी कीडे ने बनाया होगा पर जब इन्हे तोडा जाता है तो इनके अन्दर से कुछ नही निकलता है। न ही कीडे और न ही उनके अंडे। पारम्परिक चिकित्सक इन्हे एकत्र करते थे और पानी मे उबालकर काढा बनाते थे। इस काढे का बाहरी और आँतरिक उपयोग वात रोगो की चिकित्सा मे किया जाता था। मैने प्राचीन भारतीय ग्रंथो और आधुनिक वैज्ञानिक साहित्यो को खंगाल डाला पर कुछ भी जानकारी नही मिली।

उस समय मैने तस्वीरे खीची और दुनिया भर के वैज्ञानिक मित्रो को भेजी। विश्व खाद्य संगठन मे काम करने वाले पौध-रोग विशेषज्ञ मित्रो ने आशंका जाहिर की कि यह मिट्टी न होकर वृक्ष द्वारा किसी रोग की प्रतिक्रिया मे बनायी गयी संरचना है। उन्होने विस्तार से ली गयी तस्वीरे माँगी। मैने फिर से उस स्थान का दौरा किया और सारी तस्वीरे लेकर लौटा। उन्होने तुरंत पुष्टि कर दी कि यह यूरोमाइक्लेडियम नामक कवक की करामात है। उन्हे यह जानकर घोर आश्चर्य हो रहा था कि इसका औषधीय उपयोग है। उन्होने बताया कि दुनिया भर की अकेसिया प्रजाति मे इसका आक्रमण होता है। पर कही भी इसका प्रयोग औषधि के रुप मे नही होता है। मैने मित्रो को धन्यवाद दिया है। यह मेरे लिये बडी ही उपयोगी जानकारी थी। बाद मे अपने सर्वेक्षणो के दौरान मैने परसा सहित बहुत से जंगली वृक्षो मे ऐसी संरचनाए देखी। अलग-अलग क्षेत्र के पारम्परिक चिकित्सक अलग-अलग विधियो से इनका प्रयोग करते है।

इस जंगल यात्रा के दौरान इस संरचना को गौहर के वृक्ष पर देखकर पुरानी यादे ताजा हो गयी। मैने पारम्परिक चिकित्सक को यूरोमाइक्लेडियम के बारे मे बताना चाहा पर फिर यह सोचकर रुक गया कि उन्हे भला इससे क्या मतलब? मैने इन संरचनाओ को एकत्र करने मे मदद की और जल्दी ही हम वापस लौट आये। वापस आकर पारम्परिक चिकित्सक ने संरचनाओ को तोडा और फिर चूर्ण को धूप मे सुखाया। अब साल भर वे स्त्री रोगो की चिकित्सा मे इसका प्रयोग करेंगे। वायदे के अनुसार उन्होने मुझे विशेष जामुन के फलो के छिलके खिलाये और कहा कि इससे आपकी स्मरण शक्ति बढेगी। मैने उनका आभार व्यक्त किया।

22 जुलाई को उन्होने अपने घर आमंत्रित किया है। उस दिन उनके चेले बडी संख्या मे उपस्थित होंगे और विषैले सर्पो का जहर निकाला जायेगा। इस जहर की पूजा की जायेगी और फिर चेले को इसे भात के साथ मिलाकर खिलाया जायेगा। यह सच है कि यदि आपके मुँह मे छाले न हो और पाचन तंत्र के मे किसी तरह की चोट न हो तो मुँह के रास्ते भात के साथ जहर खाने से यह नुकसान नही करता है। मैने “अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग” नामक लेखमाला मे लिखा है कि कैसे गणेश नामक सर्प विशेषज्ञ अपने चेलो को विशेष दिन भात मे मिला कोबरा का जहर खिलाते है। सर्प विशेषज्ञ हो या पारम्परिक चिकित्सक, विष का सेवन करके वे कुछ सिद्ध नही करना चाहते है। वे तो बस अपनी परम्परा निभाते है।

मैने देखा है कि आजकल के गुटखा खाने वाले मुँह जो कि अन्दर के कटे-फटे होते है गुरु से मिले जहर युक्त भात को मजे से खा जाते है। उनपर बुरा असर नही होता है। यदि किसी को जहर चढता है तो जडी-बूटियो से स्थिति को सम्भाल लिया जाता है। मुझे याद आता है कुछ वर्षो पहले मैने जहर को इस रुप मे ग्रहण किया था। जीभ कटी हुयी थी। जहर ने असर दिखाया और गर्मी लगने लगी। सिर घूमने लगा। मुझे बहुत से कन्दो को चबाने को कहा गया और ढेर सा घी पिलाया गया। काफी देर के बाद स्थिति सम्भली। मुझे बस यही डर था कि कही मेरे दिमाग रुपी हार्ड डिस्क मे दर्ज बाते कही गडमड न हो जाये पर शुक्र है, ऐसा हुआ नही।

मैने पारम्परिक चिकित्सक को 22 जुलाई को आने का आश्वासन दिया। मैने शहर से कुछ मँगाने के बारे मे पूछा तो उन्होने पाँच आम के पौधे लाने को कहा जिसे मैने सहर्ष स्वीकार लिया। अब बेसब्री से उस दिन का इंतजार है। (क्रमश:)

(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)

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