हड्डी रोगो की चिकित्सा मे जुटा एक गाँव, खरदा कन्द और संवर्धित ज्ञान की महत्ता

मेरी जंगल डायरी से कुछ पन्ने-50
- पंकज अवधिया

हड्डी रोगो की चिकित्सा मे जुटा एक गाँव, खरदा कन्द और संवर्धित ज्ञान की महत्ता


इस जंगल यात्रा के दौरान मै एक ऐसे गाँव पहुँचा जहाँ लगभग सभी घरो मे हड्डी रोगो की चिकित्सा होती थी। बडी संख्या मे रोगी यहाँ एकत्र थे। रोगियो लगातार यहाँ आते रहते है। सडक पर पडे गुटखे के पाउच और चिप्स के पैकेट इसके प्रमाण थे। आज से दस-बारह साल पहले जब मै उस गाँव मे आया था तब केवल एक ही पारम्परिक चिकित्सक रोगियो को देखते थे। मैने उनसे लम्बी बात की थी और फिर अपने बाटेनिकल डाट काम वाले शोध दस्तावेजो मे उनके बारे मे विस्तार से लिखा था। वे इतने सहज थे कि रोगियो को जडी-बूटी के बारे मे बता देते थे। पर फिर भी रोगी उनके हाथो से ही उन जडी-बूटियो को लेना पसन्द करते थे। इतने सालो के बाद एक बार फिर वहाँ जाकर मै रोमांचित था। अपना देश इतना बडा है कि एक ही स्थान मे दोबारा जाना कम ही हो पाता है। शायद इस जन्म मे देश के सभी कोनो तक जाकर पारम्परिक चिकित्सको से मिलना सम्भव ही नही हो पाये पर जितना सम्भव हो उतना तो किया ही जा सकता है।

गाँव पहुँचने पर मैने उसी पारम्परिक चिकित्सक से मिलने का मन बनाया। मै उनके घर पहुँचा तो वहाँ नाममात्र की भीड थी। पारम्परिक चिकित्सक तो दिखे नही। हाँ, उनकी शक्ल से मिलती0जुलती शक्ल वाला एक व्यक्ति रोगियो को देख रहा था। वह उनका लडका था। शायद उसने मुझे पहले देखा हो। झट से पहचान गया और घर के अन्दर ले गया। अन्दर खाट पर वही पारम्परिक चिकित्सक लेटे हुये थे। बहुत उम्र हो गयी थी उनकी। मुझे देख वे उठ बैठे और हम चर्चा करने लगे।

यह गाँव जंगलो से घिरा हुआ था। “था” इसलिये कह रहा हूँ क्योकि इस यात्रा के दौरान मैने खेत ही खेत देखे। धान के खेत जिनमे खेती की तैयारी चल रही थी। खेतो मे बबूल के वृक्ष जमे हुये थे। हाँ, कुछ परसा और पडरी के वृक्ष भी थे जो इस बात का अहसास करा रहे थे कि यहाँ पहले जंगल था। इन दस-बारह सालो मे सब कुछ कितना बदल गया। जंगल को स्थानीय लोगो ने चूल्हे मे फूँक डाला। अब वे बहुत पछता रहे है। जंगल से उन्हे सब कुछ मिल जाया करता था। वे इसे बचाते हुये इसका दोहन कर सकते थे जैसा कि उनके पूर्वज पीढीयो से कर रहे थे। अब उन्हे लकडी से लेकर दवाओ तक के लिये शहर पर निर्भर रहना होता है। और इन सब के लिये जेबे ढीली करनी होती है। जंगल के विनाश ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था को असंतुलित कर दिया है।

“मुफ्त मे ज्ञान बाँटना मेरे लिये अभिशाप बन गया साहब।” बुजुर्ग पारम्परिक चिकित्सक की बातो मे गहरा दर्द छुपा हुआ था। उन्होने रोगियो की बढती भीड को देखते हुये गाँव के ही कुछ लोगो को अपना ज्ञान बाँट दिया। ज्ञान का वितरण हो रहा है- ऐसा सुनकर दूर-दूर से लोग आये। पारम्परिक चिकित्सक ने उन्हे विधि विधान से सब कुछ बताया और उनसे शपथ करवायी कि किसी भी हालत मे वे चिकित्सा के पैसे नही लेंगे। उनके चेलो ने सब कुछ एकस्वर से स्वीकार किया। पर सभी ने इसका पालन नही किया। बहुत से चेले आज भी नि:शुल्क चिकित्सा कर रहे है पर उनके अपने गाँव के चेलो ने इसे व्यापार बना दिया। अब आप तो जानते ही है कि व्यापार मे सब कुछ सीधा सादा नही होता है। जिसमे छल प्रपंच न हो वह कैसे सफल व्यापारी होगा? उनके चेलो ने सबसे पहले गुरु को बदनाम करने की राह पकडी। उनके बारे मे उडा दिया गया कि वे इलाज कम और जादू अधिक करते है। फिर इलाज के लिये मोटी फीस तय कर दी गयी। अनपढ चेलो ने शहरो के पैथोलाजी लैब से सम्पर्क कर लिया। अब रोगी को वहाँ से जाँच करवानी पडती थी। शहर के कुछ आधुनिक चिकित्सक भी इस व्यापार मे भागीदार हो गये। चेलो का भला हुआ पर गुरु के पास रोगियो का टोटा हो गया।

खरदा कन्द नाम से पहचानी जाने वाली वनस्पति पूरे प्रदेश मे मिलती है। पारम्परिक हड्डी विशेषज्ञ इसे अक्सर प्रयोग मे लाते है। पर इसके अलावा भी इस वनस्पति के ढेरो उपयोग है। इसका प्रयोग अनगिनत पारम्परिक नुस्खो मे होता है। इनमे से बहुत से ऐसे नुस्खे है जो इसके बिना अधूरे माने जाते है। जब से राज्य मे नयी पीढी के हड्डी विशेषज्ञो की बाढ आयी है तब से इस कन्द का मिलना कम हो गया है। न केवल स्थानीय उपयोग के लिये इसे एकत्र किया जा रहा है बल्कि अब तो व्यापारी भी बडी मात्रा मे इसका एकत्रण करवाकर महानगरो मे भेज रहे है। व्यापारी अपने सम्पर्को को बता रहे है कि कैसे इस कन्द का प्रयोग करना है? इस कन्द का एकत्रण करने वालो का कहना है कि यदि यही स्थिति रही तो आने वाले कुछ सालो मे कन्द के लिये मारामारी मच जायेगी।

देश मे औषधीय और सगन्ध फसलो की व्यवसायिक खेती कर रहे किसान कुछ चुनिन्दा फसलो तक ही सीमित है। इन फसलो से उन्हे उतना अधिक लाभ नही हो पा रहा है। मै अपने लेखो के माध्यम से खरदा कन्द जैसी वनस्पतियो की खेती की सलाह देता हूँ ताकि किसान इससे लाभ प्राप्त कर सके और जंगलो पर दबाव कम हो सके।

मुझे याद आता है कि सरगुजा मे अपने वानस्पतिक सर्वेक्षणो के दौरान मैने इस कन्द पर आश्रित रहने वाले एक बीटल को देखा था। वहाँ के पारम्परिक चिकित्सको ने बताया था कि यह कीट केवल इस वनस्पति को खाता है और इसी पर अपना जीवन चक्र पूरा करता है। यदि यह वनस्पति समाप्त हुयी तो यह कीट भी समाप्त हो जायेगा। इस कीट और वनस्पति सम्बन्ध की यह विशेषता थी कि कीट पूरी तरह से वनस्पति को नष्ट नही करता है और वनस्पति ने भी इस कीट को नष्ट करने के लिये इतने लम्बे समय मे रसायन विकसित नही किये। पारम्परिक चिकित्सको के लिये कीट और वनस्पति दोनो ही उपयोगी है। कीटो का प्रयोग बहुत ही कम मात्रा मे औषधि के रुप मे वे करते है। जिन जंगलो से कन्दो को बडी मात्रा मे उखाडा जा रहा है वहाँ इस कीट की हालत क्या हो रही होगी, यह कल्पना से परे है। मै उनके व्यवहार पर निगरानी रखना चाहता हूँ पर दूसरे कार्यो के कारण यह सम्भव नही हो पा रहा है। काश! ऐसे समय मे कोई शोधार्थी सामने आता और इस महत्वपूर्ण कार्य को अपने हाथ मे ले लेता पर अपने देश मे तो सभी ने विदेश का रुख करने की ठानी है।

बहरहाल, उस गाँव के बुजुर्ग पारम्परिक चिकित्सक की ओर लौटे। उन्होने अपनी बात जारी रखते हुये कहा कि उनके पूर्वजो ने इस कन्द का एक ही तरह से उपयोग बताया था। इसके दूसरी तरह से उपयोग के विषय मे मुझे जानकारी नही है। प्रचलित विधि तो चेलो मे बँट गयी और वे चेले मेरे बेटे को आगे बढने नही दे रहे है। इससे ही मै निराशा मे हूँ। मैने खाट पकड ली है। पारम्परिक चिकित्सक की ये बाते निश्चित ही दुख पहुँचाने वाली थी। क्या मै उनकी मदद कर सकता था? हाँ, कर तो सकता था। पर कैसे?

मेरी शोध की कई विधियो मे से एक विधि यह रही है कि किसी नुस्खे के विषय मे जानकारी होने पर मै उसी नुस्खे की चर्चा जितने भी पारम्परिक चिकित्सको से मिलता हूँ, उनसे करता हूँ। पारम्परिक चिकित्सक अपने अनुभव के आधार पर उस नुस्खे के गुण-दोष बताते जाते है। इससे उस नुस्खे के विषय मे जानकारी बढती जाती है। एक पंक्ति का नुस्खा इस तरह कालांतर मे हजारो पन्नो का हो जाता है। गाँव के इस बुजुर्ग पारम्परिक चिकित्सक से दस-बारह साल पहले मैने जो खरदा कन्द का नुस्खा सीखा था उसके साथ भी मैने ऐसा ही किया। आज खरदा कन्द का यह सरल नुस्खा कम्प्यूटर की 50 एमबी से अधिक की फाइल की शक्ल ले चुका है। इसमे इस कन्द के हजारो प्रयोग है। इसे तीन सौ से अधिक वनस्पतियो के साथ प्रयोग करके शक्तिशाली बनाया जा सकता है। अब वह समय आ गया था कि मै इस बुजुर्ग पारम्परिक चिकित्सक का ज्ञान “संवर्धित ज्ञान” के रुप मे उन्हे वापस करुँ। मैने उन्हे इसके विषय मे विस्तार से बताना आरम्भ किया। अपने मूल ज्ञान के इस विस्तार को जानकर वे अचम्भित थे। उन्होने इसका कुछ अंश ही लिया और फिर आजमाने की बात कही। इससे निश्चित ही उनके रोगियो को अधिक लाभ होगा। उनकी आँखो मे आँसू थे। वे धन्यवाद दे रहे थे पर इसमे मेरा कोई विशेष योगदान नही था। मैने तो बस इस ज्ञान को संवर्धित करने मे अपनी छोटी सी भूमिका निभायी। यह अलग बात है कि इसे संवर्धित करने मे न जाने कितना धन जेब से चला गया पर इस बात का सुकून है कि यह “संवर्धित ज्ञान” असंख्य रोगियो की जान बचा पायेगा।

इस मूल ज्ञान के संवर्धन का अभी अंत नही हुआ है। अभी मुझे ना जाने कितने और पारम्परिक चिकित्सको से मिलना है और उनसे इस ज्ञान के विषय मे जानना है। खरदा कन्द के ज्ञान को जानने के बाद बुजुर्ग पारम्परिक चिकित्सक ने मुझे एक उपयोगी नुस्खा बताया। यह नुस्खा सिकल सेल एनीमिया से सम्बन्धित था। राज्य की 17 प्रतिशत से अधिक आबादी इस लाइलाज समझे जाने वाले रोग से प्रभावित है। बहुत से रोगी इस मर्ज को साथ लिये लम्बे समय तक जीवित रह जाते है। उन्हे समस्याए आती रहती है। इन्ही समस्याओ के समाधान के लिये बुजुर्ग पारम्परिक चिकित्सक ने यह नुस्खा बताया। मैने सिकल सेल एनीमिया पर बहुत कुछ लिखा है। मैने उन्हे धन्यवाद दिया और उम्मीद जाहिर की तो इस मूल नुस्खे को संवर्धित करके मै वापस लौटाने एक दिन फिर से आऊँगा। (क्रमश:)

(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)

© सर्वाधिकार सुरक्षित

Comments

वनौषधियाँ इस तरह कम होती रहीं तो भारत में तो इन का मिलना असंभव हो जाएगा।
अवधिया जी नमस्कार
एक बात कहना चाहता हूं।
महेन्द्रगढ (हरियाणा) के पास एक गांव में एक पारम्परिक चिकित्सक टूटी हड्डी को केवल ग्वार (एक पशु आहार) के लेप से जोडते हैं।
रोहतक मैडिकल के डाक्टर्स ने आपरेशन द्वारा स्टील की प्लेट डालने के अलावा कोई चारा नही है ऐसा कहा था। इन वैध जी ने उस हड्डी को केवल 6 पट्टियों से जोड दिया है।
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